एनएलडी सरकार के विरोध के कारण ही प्रस्तावित चीनी परियोजनाओं में कटौती की गई। चीन-म्यांमा आर्थिक गलियारे में प्रस्तावित कुल अड़तीस योजनाओं में से सिर्फ नौ योजनाओं पर एनएलडी की तत्कालीन लोकतांत्रिक सरकार ने सहमति जताई थी। ऐसे में चीन कैसे एनएलडी की निर्वाचित सरकार को बर्दाश्त कर पाता?

म्यांमा में लोकतंत्र की बहाली को लेकर अनिश्चितता के बादल और गहराते जा रहे हैं। इस मुल्क में लोकतंत्र बहाल होगा भी या नहीं, और होगा तो कब तक, ये ऐसे सवाल हैं जो न सिर्फ एशियाई देशों बल्कि पश्चिमी देशों के लिए भी चिंता का विषय बने हुए हैं। हालांकि यहां के सैन्य शासकों के अब तक के रुख से तो यही लग रहा है कि म्यांमा में लोकतंत्र की वापसी आसान नहीं है। पिछले महीने भारत के विदेश सचिव हर्षवर्धन शृंगला म्यांमा के सरकारी दौरे गए थे। म्यांमा में पिछले साल फरवरी में निर्वाचित सरकार के तख्तापलट के बाद किसी भारतीय प्रतिनिधि का यह पहला दौरा था। इस यात्रा के दौरान भारतीय विदेश सचिव ने जेल में बंद नेता आंग सान सू की से मुलाकात करने के लिए म्यांमा के सैन्य शासकों से इजाजत मांगी थी। पर उन्हें इसकी अनुमति नहीं मिली। म्यांमा के सैन्य शासकों का यह रुख काफी कुछ संकेत देता है।

शृंगला की म्यांमा यात्रा दबाव की कूटनीति के लिहाज से महत्त्वपूर्ण मानी जी रही है। हालांकि इसके नतीजों को लेकर फिलहाल कोई अनुमान लगाना जल्दबाजी होगी। भारतीय विदेश सचिव की यह यात्रा पूर्वोत्तर राज्यों में बढ़ते उग्रवाद और चीन के परोक्ष दखल के मद्देनजर भी महत्त्वपूर्ण थी। भारत ने म्यांमा में लोकतंत्र बहाली के लिए सैन्य शासकों पर दबाव बनाने की कोशिश की है। म्यांमा प्रशासनिक परिषद के साथ हुई बैठक में शृंगला ने कई अहम मुद्दों पर बात की। इस बैठक में भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में बढ़ती उग्रवादी गतिविधियों और म्यांमा की सीमा में शिविर बनाए बैठे उग्रवादी संगठनों का मुद्दा खासतौर से उठा था। हालांकि भारत की चिंताओं पर म्यांमा कितना गंभीर होगा, यह चीन पर निर्भर करता है। क्योंकि इस समय म्यांमा का सैन्य प्रशासन पर पूरी चरह से चीन के प्रभाव में है।

देश में लोकतंत्र बहाली को लेकर म्यांमा के सैन्य शासक कोई भी बाहरी दबाव मानने को तैयार नहीं हैं। वे संयुक्त राष्ट्र और अमेरिका सहित दूसरे पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों की परवाह भी नहीं कर रहे हैं। चीन और म्यांमा के सैन्य शासकों के बीच एक समझौता है, जिसमें दोनों एक दूसरे के हितों का ख्याल रख रहे हैं। इसका सीधा प्रभाव म्यांमा के दूसरे पड़ोसी देशों पर पड़ रहा है। चीन का भय इस कदर है कि आसियान सहित कई अन्य देश म्यांमा को लेकर सतर्कता के साथ कदम उठा रहे हैं। म्यांमा में लोकतंत्र के खात्मे का सीधा असर भारत, बांग्लादेश और थाईलैंड पड़ा है। लोकतंत्र समर्थकों पर सैन्य दमन बढ़ने के कारण भारत, बांग्लादेश, थाईलैंड में लोग शरण लेने को मजबूर हुए थे। म्यांमा की सेना आज भी लोकतंत्र समर्थकों के साथ हिंसक व्यवहार कर रही है। देशभर में जिस तरह से लोकतंत्र समर्थकों को निशाना बनाया जा रहा है और आंदोलनों को कुचला जा रहा है, वह पूरी दुनिया देख रही है।

म्यांमा के साथ भारत की लगभग सत्रह सौ किलोमीटर लंबी सीमा लगती है। भारत की चिंता यह भी है कि पूर्वोत्तर राज्यों में सक्रिय उग्रवादी संगठनों ने म्यांमा में जो अड्डे बना रखे हैं, उन्हें म्यांमा की सेना गुपचुप मदद दे रही है और ऐसा वह चीन के इशारे पर कर रही है। कुछ समय पहले मणिपुर में हुए आतंकी हमले में भारतीय सेना के एक अधिकारी सहित कुछ जवान शहीद हो गए थे। माना जा रहा है कि इस हमले के लिए जिम्मेवार उग्रवादी संगठन के लोग म्यांमा के इलाके में हैं।

अपने इस दौरे में भारतीय विदेश सचिव ने नेशनल लीग फार डेमोक्रेसी (एनएलडी) के प्रतिनिधियों से मुलाकात की। म्यांमा में लोकतांत्रिक सरकार के तख्तापलट में चीन की परोक्ष भूमिका रही है। दरअसल इस साल फरवरी में लोकतांत्रिक सरकार के तख्तापलट से पहले म्यांमा सेना के मुखिया मिन आंग लेंग और चीन सरकार के वरिष्ठ राजनयिक वांग यी की मुलाकात हुई थी। बताया जाता है कि इसी मुलाकात में तख्तापलट को लेकर चीन ने सहमति दी थी। यही कारण है कि म्यांमा वैश्विक दबाव की परवाह नहीं कर रहा है और आंग सान सू की को जेल में बंद कर रखा है।

एक मामले में उन्हें सजा भी सुना दी गई है। भारत इस हकीकत से अनजान नहीं है कि म्यांमा की तत्कालीन एनएलडी की सरकार से चीन नाखुश था। इसके मूल में कारण चीन के आर्थिक हित थे। एनएलडी की सरकार म्यांमा में प्रस्तावित चीनी निवेश योजनाओं से सहमत नहीं थी। विभिन्न निवेश योजनाओं में मिलने वाले चीनी कर्ज को लेकर एनएलडी की सरकार सावधान थी। उसे डर था कि म्यांमा चीनी निवेश के बहाने कर्ज के जाल में फंस जाएगा। एनएलडी सरकार के विरोध के कारण ही प्रस्तावित चीनी परियोजनाओं में कटौती की गई। चीन-म्यांमा आर्थिक गलियारे में प्रस्तावित कुल अड़तीस योजनाओं में से सिर्फ नौ योजनाओं पर एनएलडी की तत्कालीन लोकतांत्रिक सरकार ने सहमति जताई थी। ऐसे में चीन कैसे एनएलडी की निर्वाचित सरकार को बर्दाश्त कर पाता?

लेकिन अब सैन्य शासन आने के बाद चीन-म्यांमा आर्थिक गलियारा का काम जोरों पर है। यह आर्थिक गलियारा चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे की तर्ज पर विकसित किया जा रहा है। चीन-म्यांमा आर्थिक गलियारा चीन को हिंद महासागर में सैन्य विस्तार में काफी मदद देगा। इसके तहत म्यांमा में रेल नेटवर्क खड़ा किया जाना है। प्रस्तावित रेल नेटवर्क से देश के भीतर विभिन्न औद्योगिक क्षेत्रों को जोड़े जाने का प्रस्ताव है। गलियारे की एक महत्त्वपूर्ण योजना म्यांमा के रखाइन प्रांत स्थित क्याकप्यू बंदरगाह का विकास भी है।

यह बंदरगाह भारत की पूर्वी सीमा पर स्थित है, जो भविष्य का ग्वादर बनेगा। पाकिस्तान में बलूचिस्तान स्थित ग्वादर बंदरगाह अब पूरी तरह से चीन के कब्जे में है। ग्वादर बंदरगाह पर चीन की मौजूदगी को सुरक्षित करने के लिए स्थानीय नागरिकों पर तमाम प्रतिबंध लगाए जा रहे हैं। स्थानीय लोग इन प्रतिबंधों के कारण सरकार के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं। अगर चीन म्यांमा के क्याकप्यू बंदरगाह को विकसित करने में कामयाब हो गया तो भविष्य में इसका नुकसान भारत को तो होगा ही, म्यांमा भी इससे अछूता नहीं रहने वाला। चीन इस बंदरगाह के जरिए हिंद महासागर में अपना दबदबा बढ़ाएगा। एक तरफ चीन क्याकप्यू बंदरगाह के रास्ते तेल और गैस आयात करने की योजना बना रहा है, तो दूसरी तरफ उसका मकसद भारतीय समुद्री सीमा को घेरना भी है।

बेशक म्यांमा के सैन्य शासक चीन के उद्देश्यों में सहयोग दे रहे हैं, पर म्यांमा की जनता चीन के उद्देश्यों को समझ रही है और इसीलिए उसका विरोध कर रही है। चीन म्यांमा के प्राकृतिक संसाधनों का जम कर दोहन कर रहा है। इससे स्थानीय लोगों में खासा गुस्सा है। चीनी परियोजनाओं के कारण म्यांमा में विस्थापन की समस्या और गंभीर हो गई है। कचीन राज्य में लोगों ने चीन के सहयोग से प्रस्तावित मैत्सोन जल बिजली परियोजना का विरोध किया था, जिस कारण इस परियोजना को रद्द करना पड़ गया था। इसलिए चीन चाहता है कि म्यांमा में सैन्य सरकार बनी रहे और विरोध करने को कुचलती रहे।

भारत और म्यांमा का संबंध सदियों पुराना है। इसका आधार दोनों देशों की सभ्यता और संस्कृति है। म्यांमा में बहुसंख्यक आबादी बौद धर्म को मानती है। यहां की अट्ठासी प्रतिशत आबादी बौद्ध है। लेकिन यहां अल्पसंख्यक मुसलमान शुरू से ही बौद्धों और सेना के निशाने पर रहे हैं। म्यांमा में होने वाली इस जातीय और धार्मिक हिंसा का सीधा प्रभाव भारत पर पड़ता है। ऐसी हिंसा का ही नतीजा है कि आज हजारों रोहिंग्या शरणार्थी भारत में शरण लिए हुए है। ऐसे में अगर म्यांमा में चीन सीधे तौर पर मजबूत होगा तो भारत के लिए हालात उतने ही चुनौतीपूर्ण होंगे।