केंद्र सरकार ने मृदा क्षरण रोकने के लिए गांव-गांव में जागरूकता अभियान चलाए हैं। इसके अलावा मृदा संरक्षण के दूसरे अभियान भी चलाए जा रहे हैं, लेकिन अगर किसान भूमि की उर्वरता बनाए रखने के लिए पहल नहीं करेगा तो ये सारे अभियान सफल नहीं हो पाएंगे। ऐसे में जरूरी है कि जिन कारणों से जमीन बंजर हो रही है, उन कारणों पर गौर किया जाए और जमीन की उर्वरता बढ़ाई जाए।

खेती-किसानी में रासायनिक खाद का इस्तेमाल कब शुरू हुआ, इसका इतिहास शायद ही कोई जानता हो। माना जाता है कि सबसे पहले सन 1840 के आसपास जर्मन वैज्ञानिक लिबिक ने खेती में नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश के उपयोग की बात दुनिया के सामने रखी थी। बाद में दुनिया के तमाम कृषि वैज्ञानिकों ने उनके शोध को स्वीकारा। लिबिक ने कहा था कि अगर नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश (एनपीके) की खाद बना कर खेतों में डाली जाए तो इससे फसलें तेजी से बढ़ सकती हैं। इस नए प्रयोग को दुनिया भर के किसानों ने अपनाया। लेकिन इसके लगातार इस्तेमाल ने मिट्टी की उर्वरता तो घटा ही दी, बल्कि करोड़ों हेक्टेयर जमीन को भी बंजर बना डाला।

दुनिया भर में रेगिस्तानी क्षेत्र तेजी से फैल रहे हैं। मिट्टी की उर्वरता भी कम होती जा रही है। ऐसे में निर्जन रेगिस्तान में जीवन कैसे वापस लाया जाए, यह एक बड़ी चुनौती खड़ी हो गई है। मृदा वैज्ञानिकों के मुताबिक मिट्टी की गुणवत्ता में गिरावट के चार बड़े कारण हैं। इनमें तेजी से होता औद्योगिकीकरण, कृषि में पानी का अत्यधिक इस्तेमाल, मवेशियों के लिए चरागाहों का जरूरत से ज्यादा दोहन और सूखे की बढ़ती मियाद।

आंकड़े बताते हैं कि रासायनिक खाद के बढ़ते इस्तेमाल से उर्वर और हरे-भरे भूमि क्षेत्र भी बंजर इलाकों में तब्दील होकर दुनियाभर में करीब एक अरब लोगों की जिंदगी के लिए खतरा बन चुके हैं। इसकी वजह से लाखों जैविक और वनस्पति प्रजातियों का जीवन भी खतरे में पड़ गया है। पेड़-पौधों की कई प्रजातियों का तो हमेशा के लिए खात्मा हो चुका है। करोड़ों लोग जो खेती-बागवानी के जरिए जिंदगी बसर कर रहे थे, उन्हें पलायन करने पर मजबूर होना पड़ा है। आकलन बताते हैं कि इस सदी के मध्य तक धरती की एक चौथाई मिट्टी मरुस्थलीकरण से प्रभावित होगी। यह एक चिंताजनक पहलू है, लेकिन हालात और बिगड़ने के पहले ही स्थिति को संभालने के लिए यदि आगे आया जाए, तो इस विकट संकट से बचा जा सकता है।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद भारी मात्रा में बचे गोला-बारूद की रायायनिक सामग्रियों को एनपीके खाद और कीटनाशक बना कर बेचने के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने दुनिया भर में नया कारोबार खड़ा कर लिया था। इस कारोबार में कंपनियों को भारी मुनाफा होने लगा था और बाजार में इनकी जड़ें भी मजबूत हो चली थीं। ज्यादातर किसान इन कंपनियों द्वारा बनाई खादों पर इस कदर निर्भर होते गए कि इन खादों के बिना कोई फसल उगाते ही नहीं।

भारत और एशियाई देशों में औद्योगिक क्रांति के बाद हरित क्रांति की शुरुआत हुई। खाद और कीटनाशकों का कारोबार करने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने यह प्रचारित करना शुरू कर दिया था कि बेहतर उपज लेने के लिए कीटनाशकों का इस्तेमाल जरूरी है। इसके बाद देश के छोटे-बड़े किसान कीटनाशकों का इस्तेमाल इस कदर करने लगे कि जमीन की उर्वरता पर इसका बुरा असर पड़ने लगा। आज हालत यह है कि देश के लाखों किसानों की जमीन की उर्वरता इतनी कम हो गई है कि बिना बड़ी मात्रा में रासायनिक खादों और कीटनाशकों के कोई भी फसल होती ही नहीं।

कृषि वैज्ञानिक भी मानते हैं कि रासायनिक खादों और कीटनाशकों का प्रयोग कई तरह की समस्याएं पैदा करता है। जमीन में जो जहरीलापन बढ़ता जा रहा है, वह कई बीमारियों का कारण बन रहा है। इससे मिट्टी में पाए जाने वाले तत्त्वों का संतुलन भी बिगड़ गया है। इससे किसान नई-नई समस्याओं से घिरते जा रहे हैं। अब केंद्र सरकार ने नीम के लेप वाली यूरिया को रासायनिक खाद का विकल्प बताया है। लेकिन इस संबंध में यह जानना जरूरी है कि इसके इस्तेमाल से मिट्टी और जीव-जंतुओं पर कितना बुरा असर पड़ रहा है।

मिट्टी को लेकर हुए तमाम शोधों से यह सामने आया है कि इसमें नाइट्रोजन, पोटेशियम, फास्फोरस, कैल्शियम, मैग्नीशियम, सोडियम, कार्बन, आक्सीजन और हाइड्रोजन थोड़ी मात्रा में रहना चाहिए। लेकिन न्यून मात्रा में इसमें लोहा, गंधक, सिलिका, क्लोरीन, मैगनीज, जिंक, कोबाल्ट, मोलिब्डेनम, तांबा, बोरान और सेलेनियम की मौजूदगी भी जरूरी है। गौरतलब है कि कुदरत अपने हिसाब से इन तत्त्वों की भागीदारी तय करती है, पर इंसान की गतिविधियों की वजह से इन सारे तत्त्वों का संतुलन गड़बड़ा गया है।

दिलचस्प बात है कि मिट्टी में नाइट्रोजन कार्बनिक रूप में भी रहती है और अकार्बनिक रूप में भी। कार्बनिक पदार्थों के सड़ने से अमोनियम के साथ जीवाणु क्रिया करते हैं और अंतत: जीवाणुओं से एंजाइम का निर्माण होता है। दूसरे तत्त्वों की भी अपनी खास भूमिका है। कैल्शियम पौधे के तने को मजबूत करता है, तो फास्फेट फूल और फल के लिए लाभदायक होता है। मैग्नीशियम क्लोरोफिल बनाने की प्रक्रिया में मदद करता है। हाइड्रोजन और आक्सीजन पौधों को मिट्टी में समाए हुए पानी से मिलता है। इन प्राकृतिक तत्त्वों के आधार पर ही तय होता है कि मिट्टी कैसी है। ज्यादा अम्लता और ज्यादा क्षारीयता, दोनों ही पौधों के लिए नुकसानदायक होते हैं।

कृषि वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर साल भूमि क्षरण की वजह से पच्चीस लाख टन नाइट्रोजन, तेंतीस लाख टन फास्फोरस और पच्चीस लाख टन पोटाश की क्षति होती है। यदि इस क्षरण को बचा लिया जाए तो हर साल करीब साठ हजार लाख टन मिट्टी की ऊपरी परत बचेगी और इससे हर साल करीब पचपन लाख टन नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश की मात्रा बचाई जा सकेगी। गौरतलब है कि केंद्र सरकार किसानों की आय दुगना करने और उन्हें खुशहाल किसान बनाने की बात तो करती है, लेकिन सवाल यह है कि जमीन की घटती उर्वरता को बचाए बगैर क्या यह संभव हो सकता है?

केंद्र सरकार की पहल पर मृदा संरक्षण बोर्ड का गठन सन 1953 में हुआ था। तब से लाखों हेक्टेयर भूमि को उर्बर बनाया जा चुका है, लेकिन अभी भी इससे ज्यादा भूमि ऐसी है जिसे उपजाऊ बनाने की जरूरत है। औद्योगिकीकरण, वनीकरण और विकास की दूसरी परियोजनाओं की वजह से जमीन का रकबा भी घटता जा रहा है, साथ ही भूमि का क्षरण भी तेजी से हो रहा है। केंद्र सरकार ने मृदा क्षरण रोकने के लिए गांव-गांव में जागरूकता अभियान चलाए हैं। इसके अलावा मृदा संरक्षण के दूसरे अभियान भी चलाए जा रहे हैं, लेकिन यदि किसान भूमि की उर्वरता बनाए रखने के लिए पहल नहीं करेगा तो ये सारे अभियान सफल नहीं हो पाएंगे। ऐसे में जरूरी है कि जिन कारणों से जमीन बंजर हो रही है, उन कारणों पर गौर किया जाए और जमीन की उर्वरता बढ़ाई जाए।

भारत में मिट्टी में मौजूद पोषक तत्त्वों में कमी गत चार दशकों से ज्यादा पाई गई। शुरुआत में केवल नाइट्रोजन की कमी थी, लेकिन कटाव, जलभराव, बहुत अधिक कीटनाशकों व रासायनिक खादों का प्रयोग और एक फसल चक्र में जरूरत से ज्यादा फसलों को उगाने जैसे तमाम कारणों की वजह से मिट्टी की उर्वरता घटती गई। आज हालात यह हो गई कि रासायनिक खादों और कीटनाशकों के इस्तेमाल के बावजूद अच्छी पैदावार नहीं हो पा रही है। ऐसे में जागरूक किसानों ने मिट्टी की गुणवत्ता को बढ़ाने वाली जैविक या प्राकृतिक खेती की तरफ रुख किया है। इसमें न तो कीटनाशकों का प्रयोग होता है और न ही रासायनिक खादों का। कंपोस्ट, हरी और जैविक खाद का प्रयोग कर देश के तमाम किसान मिट्टी की सेहत सुधारने में लगे हैं। लेकिन जहां प्राकृतिक खेती नहीं हो रही है, वहां मिट्टी की गुणवत्ता बढ़ाने व संरक्षण का कार्य करना बड़ी चुनौती है।