आज सत्ताधारी दल बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर को हड़पने की कोशिश में जी-जान से जुट गया है। यों यह कोई नई बात नहीं है हिंदुत्ववादियों के लिए। वे बड़ी-बड़ी महान हस्तियों को हड़पे बैठे हैं। गौतम बुद्ध को भी उन्होंने विष्णु का अवतार बना दिया था। सबसे ज्यादा दुर्गति तो उन्होंने क्रांतिकारी कबीर और रैदास की की। अब आंबेडकर साहेब को समायोजित करने के लिए जमीन-आसमान एक कर रहे हैं। आइए इस ‘हड़पो’ अभियान के इतिहास में जाएं। हम कबीर से शुरू करते हैं।

बकौल मैनेजर पांडेय, हिंदी साहित्यकारों द्वारा कबीर का भी संस्कृताइजेशन किया गया। कबीर संस्कृत को कुएं का जल और आम आदमी की बोली को बहती नदी कहते थे। लेकिन एक बोधन नाम के हिंदू संत ने कबीर पर संस्कृत में लिखी अपनी टीका में कबीर की इस मान्यता को उलटने की प्रक्रिया चला दी और संस्कृत भाषा को ‘बहती नदी’ साबित करने की कोशिश की। पंद्रहवीं शती में ही कबीर के दर्शन को, जो परिवर्तनकामी था, पौराणिक धर्म में रूपांतरित करके, उन्हें संस्कृत में ढालने का प्रयास शुरू कर दिया गया था, ताकि उन्हें दलितों से अलग-थलग किया जा सके।

धर्म के आडंबरवादी रूप और जाति-पांति के विरुद्ध उनके परिवर्तनवादी रूप को विकृत करने के लिए 1857 में ही चौदह सौ पृष्ठों का एक ग्रंथ ‘कबीर मंसूर’ तैयार किया गया। इस ग्रंथ में हिंदू देवी-देवताओं के 131 चित्र छपे हैं और यह कहा गया है कि कबीर हर युग में अवतार लेते हैं, वही ईसा हैं, वही राम हैं, वही मुहम्मद हैं। यानी कि कबीर के विद्रोही-अक्खड़-क्रांतिकारी रूप की हत्या की पूरी व्यवस्था कर दी गई इस ग्रंथ में। यह भारतीय मन में व्याप्त ब्राह्मणवादी हिंदुत्ववादी सोच का करिश्मा है, जो हर धर्म में घर कर चुका है।

इतिहास गवाह है कि हिंदी मानसिकता यह कभी बर्दाश्त नहीं कर पाई कि वर्णव्यवस्था के निचले पायदान पर बैठा कोई व्यक्ति बड़ा कवि, बुद्धिजीवी, संत, महात्मा या योद्धा बन कर महत्त्वपूर्ण हो जाए। इसलिए किंवदंतियों, टीकाओं के माध्यम से हिंदी साहित्यकार उन्हें या तो विकृत करते रहे हैं या फिर हड़पने की चेष्टा करते रहे हैं। ऐसे प्रसंगों से वाङमय भरा पड़ा है।

यदि वे हड़प नहीं सके, तो उन्होंने श्यामसुंदर दास का रास्ता अपनाया, जिन्होंने कबीर को ब्राह्मणी जाया तो नहीं कहा (वे स्वयं खत्री थे) पर उन्हें ब्राह्मण की संतान सिद्ध करने के लिए दूसरी स्त्री के पेट से जनमने की बात कह दी। प्रियदास ने एक कदम आगे बढ़ कर नाभादास पर लिखी अपनी टिप्पणी में रैदास की चमड़ी के भीतर जनेऊ को खोज डाला, तो रूपकलादास नाभादास की बात बदलने के लिए इतने आतुर थे कि वे उनके पूर्वजन्म तक जा पहुंचे। भला कोई ब्राह्मण हुए बगैर कभी विद्वान हो सकता है? यही है हिंदूवादी सोच।

इसी सोच के तहत हिंदू आलोचकों, समीक्षकों व टिप्पणीकारों द्वारा एक और हथियार इस्तेमाल किया जाता रहा है। यदि वे किसी दलित साहित्यकार को उपेक्षित करके भी मार नहीं पाए या ‘नकार’ से भी दबा नहीं पाए, तो वे उसे अपने सांचे में फिट करके अपना ठप्पा लगा कर उसकी क्रांतिकारिता ही नष्ट कर देने लगे।

यही ब्राह्मणी हिंदुत्ववादी मानस ने ‘कठौती में गंगा’ के अवतरण की कथा गढ़ कर एक और अन्य कथा भारतीय मानस में जोड़ दी। एक और अंधविश्वास बन गया। जबकि रैदास ने कठौती में गंगा कह कर गंगा के महात्म्य को नकारा था और ‘मन चंगा’ को गंगा से ऊपर माना था। उन्होंने तो आज की समानता और समाजवादी सोच के अनुरूप कहा- ‘ऐसा चाहूं राज मैं जहां मिले सबन को अन्न/ छोट बड़ों सब सम बसै रैदास रहे प्रसन्न।’

लेकिन हिंदी आलोचक भला कैसे पचा पाता उनकी क्रांतिकारिता को? उसने उनकी क्रांतिकारिता को न उजागर कर उनके भजनों की महिमा गाई, चूंकि ये उनके हिंदूवाद को पुष्ट करते नजर आते थे। इसीलिए उसने ‘प्रभु जी तुम चंदन हम पानी’ को श्रेष्ठता के रंग में रंग डाला, जिसमें मनुष्य गौण हो गया और हिंदुत्व मुखर और पुष्ट।

इस प्रकार हिंदी मानस ने हिंदी साहित्यकार और आलोचक ने दलित लेखक को या तो नकारा या उपेक्षित किया, नहीं तो अपने ढांचे में ढाल कर सुधारवादी का रूप दे दिया और क्रांतिकारिता नष्ट कर दी। यानी सवर्ण श्रेष्ठता को भला कोई तोड़ कैसे सकता है? हमें इतिहास में यह नहीं पढ़ाया जाता कि गुरु तेगबहादुर के कटे शीश को लाने के लिए एक दलित ने अपना शीश कटवा कर वहां रखवा दिया था। हमें यह भी नहीं पढ़ाया जाता कि 1857 के स्वतंत्रता के युद्ध में रानी झांसी को किले से सुरक्षित बाहर निकाल कर भेजने वाली उनकी शक्ल से मिलती-जुलती एक दलित महिला झलकारी बाई, जो शूद्र थी, अंग्रेजों से युद्ध करते-करते मारी गई थी। रानी झांसी तो नेपाल के रास्ते में मारी गई थी। 1857 के मंगल पांडे की चर्चा तो होती है लेकिन दलित मातादीन की चर्चा हिंदी साहित्यकार या इतिहासकार नहीं करते, जिसने मंगल पांडे को चर्बी वाली गोली के बारे में सूचित कर विद्रोह की प्रेरणा दी थी।

यही हिंदी या हिंदू मानसिकता, साहित्यकारों पर भी हावी रही है। शिवाजी का राजतिलक ब्राह्मण ने करने से इनकार कर दिया, तो शिवाजी को एक कायस्थ ने तिलक लगाया, वह भी पैर के अंगूठे से। लेकिन इतिहास में उस शूद्र (कुर्मी) शिवाजी को क्षत्रिय कहा गया, चूंकि वे राजा थे। यह उन्हें हड़पने की प्रक्रिया थी हिंदू मानसिकता की। हमें यह पढ़ाया गया कि शिवाजी क्षत्रिय थे। आज शिवाजी पर कुर्मी कब्जा जमा रहे हैं। वांग्मय भरा पड़ा है ऐसे उदाहरणों से, जहां इस हिंदू सोच के तहत किसी भी शूद्र से जनमे महापुरुष को हड़पने के लिए, उसे किसी उच्च कुल के वीर्य या गर्भ से उत्पन्न अथवा पूर्वजन्म में ब्राह्मण कुल का बताया गया।

उसके दलित घर में जन्म को नकारने के लिए उसे अनिवार्यता ब्राह्मण गुरु का शिष्य बता कर, उसकी जन्म-जात विद्वत्ता को नकारा गया। विद्वान कहलाने के लिए उसे ब्राह्मण का अंश होना ही है! रही बात हिंदी साहित्य में दलित साहित्य के कोई महत्त्वपूर्ण स्थान बना पाने या उनके आलोचकों की सहृदयता प्राप्त करने की, तो इस सवाल के दो पहलू हैं। एक, ऐतिहासिक परिदृश्य के कारण द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के परिणामस्वरूप औद्योगिक युग के प्रादुर्भाव का, दूसरा, व्यावहारिकता को नकारने का।

विश्व-स्तर पर औद्योगिक युग में जब मनुष्य केंद्र में पहली बार आया, तो मानववादी सोच उभरी। पूंजीवाद की जरूरतों की पूर्ति के कारण मानव श्रम का भी महत्त्व बढ़ा। श्रमिक वर्ग समूहों में उभरा और सामंती ढांचा चरमराया। इसी काल में मनुष्य ने बराबरी, भाईचारा और आजादी की मुहिम, जो गौतम बुद्ध ने चलाई थी, का सूत्र पकड़ा। फ्रांस की क्रांति हुई। अमेरिका में दास-प्रथा से मुक्ति के लिए गृह-युद्ध हुआ। रूस की अक्तूबर क्रांति के रूप में यह मुहिम आगे बढ़ी और साकार हुई। इस क्रांति ने साम्यवादी सोच को विकसित किया। विश्व के प्रबुद्ध वर्ग ने इस सोच को ग्रहण किया।

इसके प्रभाव से भारतीय बुद्धिजीवी भी अछूते नहीं रहे। वे इसे जाहिरा तौर पर अपनाने लगे। यहां तक कि कतिपय भारतीय सामंत घराने और संत भी अपने-अपने कारणों से इसे जाहिरा तौर पर अपनाते नजर आने लगे। पर वे निजी व्यवहार में मध्ययुगीन वर्णव्यवस्था और धार्मिक आडंबर से भी चिपके रहे। फलत: उनका आचरण दोहरी मानसिकता वाली हिंदू संस्कृति के अनुरूप दोहरा हो गया यानी घर में पोंगापंथी, सार्वजनिक स्तर पर आधुनिक। इस दोहरे आचरण का शिकार प्रगतिशील जनवादी तबका भी हो गया। तब भला हिंदी साहित्य की क्या बिसात थी कि वह समाज की आरसी न बनता।

दर्पण तो वह कभी था ही नहीं, चूंकि उसने पूरे समाज को कभी प्रतिबिंबित ही नहीं किया। लेकिन आधुनिक बनने की होड़, प्रगतिशील कहलाने की ललक ने एक काम जरूर किया। अभिजात बौद्धिकों के मन में भी एक भय भर दिया कि अगर वे जाहिरा भेदभाव बरतेंगे तो पिछड़े और मध्ययुगीन कहलाएंगे। इस भय के चलते उनके लिए दलित आंदोलन को चाहते हुए भी नकारना मुश्किल होने लगा। फलस्वरूप वे दलित साहित्य की चर्चा में भाग लेने लगे, भले वे उन पर अपनी विचारधारा लादने के लिए हर समय प्रयास करते रहते हैं। वे उनका नेतृत्व हथियाने की हर कोशिश करने से नहीं चूकते। हिंदी की अनेक पत्रिकाएं दलित मुद््दों पर बहस करा रही हैं- अपना किंतु-परंतु लगाते हुए।

हालांकि महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और केरल में वामपंथियों की सक्रिय भागीदारी दलित साहित्य की पृष्ठभूमि रही, जिसे दलित साहित्यकार स्वीकार करते हैं- लेकिन हिंदू मानसिकता वाली हिंदी पट्टी में वामपंथ अपने को इस आंदोलन से भावात्मक स्तर पर जोड़ने में पिछड़ गया। भले अब वह भूल सुधार कर साथ जुड़ने की चेष्टा में है। लेकिन उनके अभिजात हिंदी मानस- जो हिंदू मानस है- में कभी-कभी जातिवाद सम्मान भी उछाल मारने लगता है।

लेकिन आधुनिक बनने की होड़, प्रगतिशील कहलाने की ललक ने एक काम जरूर किया। अभिजात बौद्धिकों के मन में भी एक भय भर दिया कि अगर वे जाहिरा भेदभाव बरतेंगे तो पिछड़े और मध्ययुगीन कहलाएंगे। इस भय के चलते उनके लिए दलित आंदोलन को चाहते हुए भी नकारना मुश्किल होने लगा। ॉफलस्वरूप वे दलित साहित्य की चर्चा में भाग लेने लगे, भले वे उन पर अपनी विचारधारा लादने के लिए हर समय प्रयास करते रहते हैं।