मुकेश भरद्वाज जी की बात से मैं पूरी तरह से इत्तेफाक रखते हुए उसमें कुछ और बातें जोड़ना चाहूंगा। हर सियासतदां सत्ता के खेल में पास होने के लिए रणनीति तैयार करते हैं और उसे लागू करते हैं। यह हमेशा से होता आया है। फिर चाहे कांग्रेस हो, जनता पार्टी, सपा, बसपा, जद (एकी), राजद, वाम या दक्षिण। सभी इसी राह पर चलते हैं औoर उत्तर प्रदेश में भी ठीक ऐसा ही हुआ। सच यह है कि सियासतदां के मकसद को कामयाब भी हम और आप ही करते हैं। विकास के नाम पर लोकसभा चुनाव में ऐतिहासिक जीत दर्ज करने के बाद बिहार विधानसभा आते-आते जब विकास ने दम तोड़ना शुरू कर दिया तो लव जेहाद, घर वापसी, गाय और न जाने जाने किन पुराने और जंग लगे औजारों ने विकास की जगह ली। हालांकि जातिवाद नामक हथियार के सामने बिहार विधानसभा में इन हथियारों ने घुटने टेक दिए, यानी जहर ने ही जहर को काटा। ये औजार भी देश के लिए बेहद खतरनाक हैं जिसका इस्तेमाल दशकों से होता चला आ रहा है।

अब बारी थी उत्तरप्रदेश की, जहां एक ऐसे हाइब्रिड औजार की खेप तैयार की गई जिसका असर सिर्फ उत्तर प्रदेश में नहीं बल्कि आने वाले कई सालों और पूरे देश में दिख सकता है। वह भी इतना खतरनाक कि सालों क्या अगर यह कामयाब हो गया तो से देश पर लगे इन औजारों के दाग साफ करने में दशकों लग जाएंगे।दरअसल, यूपी चुनाव में देश की सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी भाजपा की मंशा ही थी कि 81 और 19 के बीच ऐसा फर्क पैदा कर दिया जाए ताकि 19 अलग भी हो जाएं तो 81 उनके पास हों और इसकी लहर पूरे देश में फैल जाए। इस समीकरण को ऐसे समझने की कोशिश कीजिए। उत्तर प्रदेश में मुसलिम आबादी तकरीबन 19 फीसद है। ऐसा माना जाता है और भाजपा भी मानती है कि मुसलिम उन्हें वोट नहीं करते, ये बातें चुनाव से ठीक पहले भाजपा के एक सांसद ने खुल कर कही भी तो पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की तरह नरेंद्र मोदी आज तक मुसलिमों का भरोसा जीतने में नाकाम रहे हैं। शायद वे ऐसा चाहते भी नहीं क्योंकि इससे 81 फीसद को वे अपनी तरफ खींच सकते हैं और ऐसा किया भी। इसे और भी कामयाब बनाया ओवैसी की पार्टी ने जो हर बयान में मुसलिमों को मोदी से डराती है, और जाने-अनजाने में इसका फायदा भाजपा को मिलता रहता है। उत्तर प्रदेश में हिट हो होने के बाद अब इस फार्मूले को पूरे देश में भी 100-24 के हिसाब से लागू किया जा सकता है और शायद किया जाने भी लगा है।

भारत में मुसलमानों की आबादी करीब 24 फीसद है, और अगर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण इसी तरह कामयाब होता गया तो फिर देश की संप्रभुता पर इसका क्या असर पड़ेगा, सोच कर ही रूह सिहर जाती है। सफलता के लिए जो सियासत अच्छी हो वह हर पार्टी करना चाहती है और अभी सांप्रदायिकता से बड़ा कोई औजार हो भी नहीं सकता जो उन्हें सफल बना दे। डर इस बात का है कि यह सियासत देश को आगे ले जाने की बजाए ऐसे अंधेरे और काले कुएं की तरफ ले जा रही है जहां से हो सकता है विकास का रास्ता निकल जाए, लेकिन उस रास्ते में कितनों की शहादत होगी इसके बारे में सोच कर ही कांप जाता हूं। लिहाजा ऐसे विकास का क्या फायदा जिसकी सिंचाई पानी के बजाए खून से हो।
– सैयद इरशाद हुसैन, खेल पत्रकार नई दिल्ली।