रजनी पार्लीवाला
सड़क पर निकल रहे लोगों के गुस्से को समझने के लिए हमें अपने घर और बाहर के ढांचे को समझना होगा। सामाजीकरण के इतिहास, राजनीति और संस्कृति को समझना होगा। घर से लेकर स्कूल तक, गीतों और कविताओं में वीरता का बखान किया जाता है। इसके जरिए पौरुष और आत्मवाद के विस्तार का ही निर्माण होता है।
इसके साथ ही हमें जाति और सामाजिक वर्गों के ढांचे को भी देखना होगा। हमारे समाज में विषमताओं और विरोधाभासों के कारण टकराव होते रहा है। समाज के पायदान में सबसे ऊपर बैठे लोग और सबसे नीचे बैठे लोगों का विरोधाभास संघर्ष में तब्दील होता है। हम सबसे ऊपर हैं कि भावना नीचे तक भी आती है कि तुम्हीं ऊपर क्यों हो? और यहीं से आत्मवाद भी निकलता है। मैंने यह कह दिया तो फिर पलट कैसे जाऊं, अपनी बात तो मनवानी ही है। और दूसरा पक्ष है कि मैं तुम्हारी क्यों सुनूं, मैं क्या तुमसे कम हूं। ‘रघुकुल रीत सदा चली आई प्राण जाई पर वचन न जाई’ तो रटा दिया गया लेकिन इस दोहे का कोई एक पाठ तो रह नहीं गया है। और यह पाठ पौरुष के विस्तार तक ही सिमट कर रह जाता है।
वहीं घर और सड़क पर हमारा व्यवहार किस तरह राजसत्ता से नियंत्रित हो रहा है, उसे भी समझने की जरूरत है। अस्मिता और प्रतीकों की राजनीति के इस दौर में शीर्ष सत्ता सीधे यह संदेश दे रहा है कि अगर लोगों की भावनाओं को आहत करेंगे तो प्रतिक्रिया करना उसका हक बनता है। दादरी कांड का उदाहरण देख लीजिए। एक व्यक्ति के घर में कुछ ऐसा है जो एक खास समूह को पसंद नहीं आता है। वह समूह अपनी नापसंदगी को तरजीह नहीं दिए जाने के गुस्से में घर पर हमला कर देता है और उसकी जान चली जाती है। लेकिन शासन-प्रशासन ने ऐसी ‘प्रतिक्रिया’ को स्वाभाविक मान कर जो संदेश दिया, वह दूर तक गया। पटियाला हाउस में कानून की वर्दी पहने लोगों ने मुलजिम के साथ सड़क पर ही निपटना बेहतर समझा। हाल ही में खबर आई कि कुछ लड़कों ने एक खास समुदाय के लड़कों की इसलिए पिटाई कर दी क्योंकि वे उनकी पसंद का नारा नहीं लगा रहे थे। सत्ता के शीर्ष से निकले मंत्र का जनता ने अब अपने तरीके से पाठ शुरू कर दिया है जो अलग-अलग तरह की हिंसा के रूप में सामने आ रहा है।
समाज के विरोधाभासों के कारण भी सड़क पर ही मामला निपटा लेने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। जो बस्ती में रहते हैं, उन्हें लगता है कि अगर वे पुलिस के पास जाएंगे तो उन्हें इंसाफ नहीं मिलेगा। वे अपने वर्ग के लोगों के साथ ही सुरक्षित मसूस करते हैं और अपने समूह के साथ ही अपने बूते इंसाफ पा लेना चाहते हैं।
हमारे समाज में शहरीकरण भी समस्या है। शहरीकरण बहुत हड़बड़ी में किया गया है। शहर और कालोनियां तो बना दिए गए, लेकिन एक ऐसा नागरिक बनना नहीं सिखाया गया, जो दूसरे नागरिक को मान दे। हम जिस इलाके में बसे हैं उस इलाके के इतिहास और संस्कृति को समझने की समझ विकसित नहीं हो पाई। हमारे पड़ोस में कौन है, सड़क पर हमें कौन मिलेगा और हम उनके साथ कैसे तालमेल बिठाएं इन चीजों के प्रशिक्षण पर समाज और सत्ता दोनों चुप हैं। और इस चुप्पी का खमियाजा हम सड़क पर हिंसा की चीख के तौर पर देखते हैं।