ज्योति सिडाना
जब जनतंत्र बाजार-तंत्र में बदल जाता है तो सरकार के स्वतंत्र रूप से नीति निर्माण करने के पक्ष पर भी प्रश्नचिह्न लग जाता है। सरकार किसके हित में नीतियों का निर्माण करती है, जैसे सवाल महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं। इसलिए आवश्यकता है कि कुछ सवालों पर समय रहते चिंतन-मनन किया जाए, ताकि आर्थिक असमानता को सीमित किया जा सके और समग्र विकास आकार ले सके।
एक अच्छा लोकतंत्र वह है, जिसमें राजनीतिक और सामाजिक न्याय के साथ-साथ आर्थिक न्याय की व्यवस्था भी है। इसमें नागरिक सर्वोपरि होता है। पर वर्तमान में पूंजीवाद के विस्तार के कारण बाजार सर्वोपरि हुआ है, जिसने नवउदारवादी व्यवस्था को उत्पन्न किया जो हस्तक्षेप की नीति की समर्थक है और राज्य के कल्याणकारी चरित्र को देश के आर्थिक विकास में बाधक मानती है।
नवउदारवादियों का तर्क है कि राज्य को आर्थिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, बल्कि मुक्त व्यापार या खुले बाजार का समर्थन करना चाहिए। जब बाजार स्वतंत्र होगा तो देश का विकास भी तीव्र गति से होगा। राज्य का कार्य केवल नीति निर्माण करना है, सेवा कार्य करना नहीं। यानी सड़क, रेल, पानी, बिजली, स्वास्थ्य जैसे सेवा कार्य राज्य के कार्य नहीं हैं, क्योंकि ऐसा करने के लिए वह समर्थ लोगों या पूंजीपतियों, व्यापारियों पर कर लगाते हैं और उससे एकत्र धन को असमर्थ या गरीब लोगों के कल्याण और उत्थान पर खर्च करते हैं।
राज्य को इस कार्य के लिए अपने और जनता के बीच मध्यस्थ की जरूरत होती है, परिणामस्वरूप प्रशासन-तंत्र का उभार होता है। प्रशासन-तंत्र जैसी औपचारिक व्यवस्था के कारण लालफीताशाही उत्पन्न होती है, जो भ्रष्टाचार का एक स्वरूप है। इन सबके कारण देश का विकास अवरुद्ध हो जाता है। इसलिए नवउदारवादी व्यक्ति की स्वतंत्रता और कल्याणकरी राज्य की आलोचना करते हैं।
इसमें भी कोई संदेह नहीं है कि अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण वे पूरे विश्व को एक बाजार के रूप में देखते हैं। विशेष रूप से सोवियत संघ के विघटन के बाद या 1991 के बाद से उदारवाद, निजीकरण और वैश्वीकरण की प्रक्रियाओं ने बाजार केंद्रित विचारधारा को मजबूती प्रदान कर दी। वैश्विक गांव, वैश्विक बाजार, वैश्विक राजनीति की अवधारणाओं ने सभी देशों और सभी राज्यों के बीच की भौगोलिक सीमाओं को ही समाप्त कर दिया।
अब जब बाजार स्वतंत्र है तो व्यक्ति और राज्य का नियंत्रण में होना स्वाभाविक है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि बाजार के गैर-नियंत्रणकारी चरित्र ने आर्थिक असमानता में वृद्धि की है। हाल में आई आक्सफैम इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार भारत की एक प्रतिशत जनसंख्या के पास अब देश की कुल संपत्ति का चालीस प्रतिशत से भी अधिक हिस्सा है।
जबकि नीचे की पचास फीसद आबादी के पास कुल संपत्ति का केवल तीन प्रतिशत हिस्सा है। या कहें कि 2022 तक भारत में अरबपतियों की संपत्ति में 121 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई। यह दलील भी दी जाती है कि अमीर-गरीब के बीच बढ़ती खाई और समाज में आर्थिक असमानता के लिए राज्य का कल्याणकारी चरित्र जिम्मेदार है। इसलिए राज्य को आर्थिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। अप्रत्यक्ष रूप से यह व्यवस्था निजीकरण का समर्थन करती नजर आती है। आज हर क्षेत्र में निजीकरण अपने पैर प्रसार भी रहा है, जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, निर्माण कार्य, बिजली आदि।
बाजार केंद्रित अर्थव्यवस्था का यह कहना है कि प्रशासन-तंत्र के कारण भ्रष्टाचार पनपा, इसलिए अब प्रशासन-तंत्र की जरूरत नहीं है। अब तो ऐसा समय आ गया है जब भ्रष्टाचार के अनेक स्वरूप उभर कर आए हैं। उदाहरण के लिए हिंडनबर्ग की रिपोर्ट आने के बाद की तस्वीर देखी जा सकती है। एक तरफ आर्थिक असमानता, गरीबी और बेरोजगारी बढ़ रही है तो फिर कुछ लोगों की संपत्ति में इतना ज्यादा इजाफा कैसे हो रहा है?
इसी तरह वर्ष 2016 में पनामा पेपर्स मामला सामने आया था, जिसमें भारत समेत दुनिया भर के रईसों की करमुक्त देशों में मौजूद संपत्तियों की जानकारी दी गई थी। बड़े पूंजीपतियों और उद्योगपतियों द्वारा विदेश में छद्म कंपनियां खोलने और कर बचाने का खेल भ्रष्टाचार का ही एक रूप है। न जाने कितने और पूंजीपति अरबों-खरबों का घोटाला करके देश छोड़ कर भाग गए।
भारत जैसे एक लोकतांत्रिक और कल्याणकारी राज्य में अपने नागरिकों को आधारभूत सुविधाएं देना सरकार का दायित्व है, पर जो कुछ दिया उसके बदले में मौन की संस्कृति अपनाने की स्थितियां बनाने को क्या कहा सकता है? शिक्षण संस्थाओं का मुख्य दायित्व लोगों को शिक्षित करना, समाज का सक्रिय सदस्य बनाना, शोषण से मुक्त करने के लिए जागरूक करना और देश के विकास में सहयोग देना है, लेकिन आज के दौर में शिक्षा अपनी इस भूमिका का निर्वाह न करके कुछ और ही कर रही है।
शिक्षकों और विद्यार्थियों को गैर-शैक्षणिक कार्यों में लगा देना, परीक्षा करवाना, आवेदन जमा करना, अनेक समितियों में काम करना, मतदाता पत्र बनाने के लिए शिविर लगवाना, कुछ दिवस मनाना आदि कार्य करवाए जाते हैं, जिनका ज्ञान व्यवस्था से कोई प्रत्यक्ष सरोकार नहीं है। अब शिक्षण संस्थानों में पढ़ने-पढ़ाने के अलावा बहुत कुछ होता है, बस अध्यापन और शोध कार्य बहुत कम होता है। नतीतन, जब शिक्षण कार्य ही नहीं होता तो प्रश्नपत्र बाहर आने जैसे मामले भ्रष्टाचार के एक स्वरूप में उभरते हैं।
इतना ही नहीं, बाल अपराध बढ़ रहा है, हिंसक अश्लीलता एक नए किस्म के अपराध को उत्पन्न कर रही है। इसे रोकने के लिए कोई प्रभावी कदम दिखाई नहीं देता, क्योंकि इससे बाजार को लाभ मिलता है। बाजार सर्वोपरि हो गया है और समाज हाशिये पर आ गया है। अब वास्तव में राज्य का कल्याणकारी चरित्र हाशिये पर दिखाई देता है। सवाल है कि क्या लोकतंत्र की व्याख्या बिना भ्रष्टाचार होने की गुंजाइश बची है?
देश के विभिन्न राजनेताओं और अधिकारियों से क्या नियमित स्वरूप में पूछा या जांचा जाता है कि जब उन्होंने राजनीति या प्रशासन में प्रवेश किया था, तब उनकी संपत्ति कितनी थी और अब कितनी है? अगर उनकी संपत्ति में कम समय में अकूत वृद्धि दिखाई देती है तो कैसे? दरअसल, व्यवस्था के अंदर इतने छेद हो गए हैं कि हर जगह भ्रष्टाचार नजर आता है। उच्च पद पाने या सरकार का संरक्षण पाने के लिए संविधान की व्याख्या करने वाले ही अगर संविधान का उल्लंघन करने लगे और गलत निर्णय देने लगें तो संवैधानिक मूल्यों की रक्षा कैसे होगी, यह सोचने का विषय है।
जब जनतंत्र बाजार-तंत्र में बदल जाता है तो सरकार के स्वतंत्र रूप से नीति निर्माण करने के पक्ष पर भी प्रश्नचिह्न लग जाता है। सरकार किसके हित में नीतियों का निर्माण करती है, जैसे सवाल महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं। इसलिए आवश्यकता है कि कुछ सवालों पर समय रहते चिंतन-मनन किया जाए, ताकि आर्थिक असमानता को सीमित किया जा सके और समग्र विकास आकार ले सके।
क्या कारपोरेट भ्रष्टाचार को स्वीकृति दी जा सकती है? क्या आर्थिक विसंगतियों को दूर करने में समाज वैज्ञानिक एक माध्यम बन सकते हैं? क्या समाज विज्ञान जनमत निर्माण का एक सशक्त माध्यम बन सकता है? आज जिस तरह से बाजार केंद्रित कौशल और तकनीकी ज्ञान को महत्त्व दिया जा रहा है, कहीं ऐसा तो नहीं कि लोगों को सामाजिक आंदोलनों से दूर करने के लिए सामाजिक विज्ञानों की उपेक्षा की जा रही है, ताकि बाजार शक्तियों को विरोध का सामना न करना पड़े।
शायद इसलिए समाज वैज्ञानिक भी गैर-राजनीतिक होते जा रहे हैं। करी नामक समाज वैज्ञानिक कहते हैं कि वर्तमान समाज बाजार समाज है, इसने स्थानीय समुदायों की दक्षताओं पर नकारात्मक प्रभाव उत्पन्न कर अपराध और विचलन को अवसर प्रदान दिए हैं। इसलिए समाज वैज्ञानिकों को एक जन शिक्षक की भूमिका में आना होगा जो लोगों को यह बताएंगे कि बाजार की स्वतंत्रता के सम्मुख क्या खतरे हैं और उसे निजी जगह, सार्वजानिक जगह और राजनीतिक जगह में समान रूप से सक्रिय होना होगा। तभी प्रत्येक तरह के भ्रष्टाचार को रोका या कम किया जा सकता है।