योगेश कुमार गोयल

संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (यूएनएफपीए) ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा भी है कि, ‘आठ अरब उम्मीदें, आठ अरब स्वप्न और आठ अरब संभावनाएं’। इसका सीधा अर्थ यही है कि दुनिया में जो भी बच्चा जन्म लेता है, उसके साथ उम्मीदें, स्वप्न और संभावनाएं जुड़ी होती हैं। इसीलिए यूएन दुनिया की आबादी आठ अरब हो जाने को मानवता के लिए एक अहम पड़ाव मानता है, जिसमें घटती गरीबी, लैंगिक समानता, स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार और शिक्षा का विस्तार जैसी उपलब्धियां शामिल हैं। ज्यादा महिलाएं जीने में सक्षम हैं, ज्यादा बच्चे जीवित रह पा रहे हैं और लोग दशकों तक स्वस्थ जीवन जी रहे हैं।

दुनिया की आबादी आठ अरब हो जाने को मानव सभ्यता के विकास के दृष्टिकोण से खुशी का पल इसलिए भी माना जा रहा है, क्योंकि यह सार्वजनिक स्वास्थ्य, पोषण, व्यक्तिगत स्वच्छता आदि में दुनिया के देशों द्वारा सुधार किए जाने के कारण ही संभव हुआ। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक तीन दशक पहले की तुलना में लोग अब ज्यादा जी रहे हैं। 2019 में जहां लोगों की जीवन प्रत्याशा 72.8 वर्ष हो गई, वहीं 1990 में लोग नौ वर्ष कम जीते थे और उम्मीद जताई जा रही है कि 2050 तक जीवन प्रत्याशा 77.2 वर्ष हो जाएगी।

हालांकि भारत का दुनिया का सर्वाधिक आबादी वाला देश बनना कोई उपलब्धि नहीं, बल्कि यह आबादी देश के लिए आने वाले वर्षों में गंभीर चुनौती न बन जाए। भारत को जनसंख्या नियोजन के लिए अभी से ठोस कदम उठाने होंगे। भारत में फिलहाल दुनिया की सबसे ज्यादा युवा आबादी है, लेकिन इसका देश के विकास में भरपूर लाभ कैसे लिया जाए, यह हमारे तंत्र के लिए गंभीर चुनौती है। इसके लिए ऐसे विशेष उपायों पर ध्यान केंद्रित करना होगा, जहां उनके लिए समुचित शिक्षा तथा रोजगार के पर्याप्त अवसर उपलब्ध हों।

इसके अलावा उद्योग-व्यापार को बढ़ावा देने के भी विशेष उपाय करने की दरकार है, ताकि देश में कृषि क्षेत्र में जरूरत से ज्यादा आबादी की निर्भरता को कम कर उसकी उत्पादकता का सही इस्तेमाल किया जा सके। माना जा रहा है कि भारतीयों की अस्सी फीसद समस्याओं का बड़ा कारण जनसंख्या पर अंकुश न हो पाना है। बढ़ती आबादी की विस्फोटक परिस्थितियों के कारण ही संविधान में जिस उद्देश्य से प्राथमिक शिक्षा का लक्ष्य निर्धारित किया गया था, वह भी गौण हो गया है।

हालांकि विगत दशकों में विभिन्न योजनाओं के माध्यम से नए रोजगार जुटाने के कार्यक्रम चलाए गए, लेकिन बढ़ती आबादी के कारण ये सभी कार्यक्रम ‘ऊंट के मुंह में जीरा’ ही साबित हुए। बढ़ती जनसंख्या के कारण ही देश में आबादी और संसाधनों के बीच असंतुलन बढ़ रहा है। तेजी से बढ़ती आबादी के कारण ही हम सभी तक शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरतों को पहुंचाने में पिछड़ रहे हैं। इसलिए जनसंख्या नियंत्रण कार्यक्रमों की सफलता के लिए सर्वाधिक जरूरी यही है कि घोर निर्धनता में जी रहे लोगों को परिवार नियोजन कार्यक्रमों के महत्त्व के बारे में जागरूक करने की ओर खास ध्यान दिया जाए, क्योंकि जब तक इन कार्यक्रमों में लोगों की भागीदारी नहीं होगी, तब तक लक्ष्य की प्राप्ति संभव नहीं है।

‘पीपुल्स कमीशन’ की अध्ययन रिपोर्ट में हाल ही में यह चौंकाने वाला खुलासा हुआ है कि देश में चार प्रकार की बेरोजगारी है, ढूंढ़ने के बावजूद काम नहीं मिल पाने वाले लोग, निराश होकर काम ढूंढ़ना बंद कर देने वाले, सप्ताह में केवल एक दिन काम पाने वाले और ऐसा छद्म रोजगार पाने वाले, जिनका काम उत्पादकता बढ़ाने में मददगार नहीं होता।

देश में ऐसे लोगों की तादाद करीब 27.8 करोड़ है। इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि देश में प्रतिवर्ष करीब 2.4 करोड़ नए किशोर श्रम बाजार में उतरते हैं, लेकिन उनमें से महज पांच लाख को ही संगठित क्षेत्र में रोजगार मिल पाता है। अर्थशास्त्रियों के अनुसार अगर देश में 27.8 करोड़ बेरोजगारों को पर्याप्त कार्य मिल जाए तो इससे देश की जीडीपी में करीब पंद्रह फीसद की बढ़ोतरी होगी।

आज दुनिया के अनेक देश अपने नागरिकों की न्यूनतम जरूरतों को पूरा करने में भी कठिनाई महसूस करने लगे हैं। संयुक्त राष्ट्र के एक आकलन के मुताबिक दुनिया की करीब नौ फीसद आबादी यानी 69 करोड़ लोग अत्यधिक गरीबी के शिकार हैं और दुनिया की 71 फीसद आबादी भारत सहित कई ऐसे देशों में रहती है, जहां आर्थिक असमानता बहुत ज्यादा है। दुनिया के बयासी करोड़ लोगों को दो वक्त का खाना भी उपलब्ध नहीं होता, 1.4 करोड़ बच्चे गंभीर कुपोषण के शिकार हैं और 45 फीसद बच्चे भूख या अन्य कारणों से मर जाते हैं।

2019 से 2022 के दौरान करीब पंद्रह करोड़ लोग भुखमरी के शिकार हो गए। बढ़ती आबादी की जरूरतें पूरी करने के लिए प्राकृतिक संसाधनों के दोहन का पर्यावरण पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ रहा है। इसी के चलते गर्मी के मौसम में अनेक इलाकों में भयानक जल संकट झेलना पड़ता है। अगर आबादी इसी प्रकार बढ़ती रही तो यह प्राकृतिक संसाधनों के और ज्यादा दोहन का दबाव बढ़ाएगी और ऐसे में कल्पना की जा सकती है कि पर्यावरण पर इसके कितने गंभीर प्रभाव होंगे।

हालांकि अधिकांश विशेषज्ञ यही मानते हैं कि बढ़ती जनसंख्या चुनौती है, तो अवसर भी। दरअसल, अगर यही आबादी साधन बन जाए तो एक देश के लिए इससे बड़ा अवसर और कोई नहीं, लेकिन अगर यह आबादी जिम्मेदारी या बोझ बनने लगे तो चुनौती साबित होती है। स्वास्थ्य, शिक्षा, पोषण युक्त भोजन आदि उपलब्ध करा कर ही इसे अवसर में बदला जा सकता है। कुछ विशेषज्ञों के मुताबिक भारत को खाद्य सुरक्षा से धीरे-धीरे पोषण सुरक्षा की ओर बढ़ना होगा। दरअसल, परिवारों को अगर पोषण सुरक्षा सुनिश्चित होने लगे तो उसकी आय का एक हिस्सा स्वास्थ्य और शिक्षा पर खर्च होगा और सशक्त श्रमबल योगदान के लिए आगे आएगा।

अर्थशास्त्रियों के मुताबिक भारत में विरोधाभासी नीतियों के कारण जनसंख्या भार हो चली है और अगर हम अपनी बड़ी आबादी का इस्तेमाल वरदान के रूप में करना चाहते हैं तो हमें अपनी आर्थिक नीतियों तथा विकास माडल की समीक्षा करनी होगी। उनके अनुसार विकास का जो माडल हमने अपनाया है, उसमें संगठित क्षेत्रों, मशीनीकरण, स्वचालन आदि पर तो पूरा ध्यान दिया जाता है, लेकिन असंगठित क्षेत्र को छोड़ दिया जाता है। हमारी आर्थिक नीतियां रोजगार सृजन को महत्त्व देने के बजाय निवेश पर जोर देती हैं और करीब अस्सी फीसद निवेश संगठित क्षेत्र में होता है, जहां नए रोजगार पैदा होने की संभावना बहुत कम होती है।

करीब पैंतालीस फीसद आबादी कृषि कार्यों में लिप्त है, लेकिन वहां महज पांच फीसद निवेश ही होता है। जनसंख्या के समुचित नियोजन के लिए हमारे नीति-नियंताओं को शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाने के साथ युवाओं को किसी न किसी कौशल से लैस करने पर विशेष ध्यान देना होगा, जिससे उद्योग जगत की जरूरत के अनुरूप सक्षम युवा तैयार करने में मदद मिलेगी। बहरहाल, संयुक्त राष्ट्र का यह कहना ठीक ही है कि यह पल मानवता के लिए संख्याओं से परे देखने और लोगों तथा पृथ्वी की रक्षा के लिए अपनी साझा जिम्मेदारी को पूरा करने का एक स्पष्ट आह्वान है और शुरुआत सबसे कमजोर लोगों के साथ होनी चाहिए।