गहराते तेल संकट के मद्देनजर वर्ष 1994 में स्पेन के टॉलेडो में हुई एक अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस में प्रस्ताव दिया गया था कि दुनिया में कार-मुक्त दिवस (कार फ्री डे) मनाने की परंपरा डाली जानी चाहिए। इसके लिए बाईस सितंबर का दिन भी तय किया गया और इसके अगले साल यानी 1995 तक रेक्जाविक (आइसलैंड), बाथ (ब्रिटेन) और ला रॉचेल (फ्रांस) में अनौपचारिक तौर पर यह दिवस मना भी लिया गया।
इसी वर्ष विश्व कार मुक्त दिवस का आयोजन भी किया गया, लेकिन अपने स्तर पर राष्ट्रीय अभियान चलाने वाला ब्रिटेन ऐसा पहला मुल्क था, जिसने यह आयोजन पृथक रूप से 1997 में अपने यहां किया और इसके बाद फ्रांस ने भी 1998 में ‘इन टाउन, विदाउट माई कार’ नारे के साथ कार मुक्त दिवस का आयोजन किया। अब यह पहल भारत में सर्वप्रथम दिल्ली-एनसीआर के सबसे व्यस्त औद्योगिक शहर गुड़गांव में की गई है। जिस कार के बल पर देश की तेज आर्थिक तरक्की का सपना देखा गया और जिस कार की बदौलत लोगों का जीवन आसान होने की बात कही जा रही है, उसके बिना एक शहर के चलने की जरूरत आखिर क्यों महसूस हो रही है?
असल में, लंबे अरसे से गुड़गांव की सड़कों पर जाम लगने की खबरें लगातार आ रही थीं। राज्य सरकार चौड़ी सड़कें, फ्लाईओवर आदि बना कर इस समस्या के समाधान का आश्वासन देती रही, लेकिन ट्रैफिक जाम का मर्ज बढ़ता जा रहा है। गुड़गांव एक मिसाल है, देश के ज्यादातर शहरों का इससे भी बुरा हाल है क्योंकि वहां की टूटी-फूटी सड़कें और खराब यातायात-व्यवस्था ने कारों को दौड़ने के बजाय रेंगने के लिए मजबूर कर रखा है। हमारे समय की सबसे बड़ी विडंबना है कि जानते हुए भी कि आज शहरों की सबसे बड़ी समस्या ट्रैफिक जाम है, वाहन उद्योग की तेज वृद्धि की कामना की जा रही है। अब महंगी से महंगी कारें बिकने लगी हैं, भले ही उनके चलने के लिए जगह बिल्कुल न हो। दुनिया में कारों का उत्पादन इस मकसद से शुरू हुआ था कि लोग अपने गंतव्य पर जल्दी और आराम से पहुंच सकेंगे, मगर हो रहा है इसका उलटा।
कारों से किसी जगह पहुंचने में अब ज्यादा वक्त लगने लगा है। इसकी वजह है ट्रैफिक जाम, जो कारों की भीड़ के कारण ही पैदा हुई समस्या है। जाम से केवल कार में बैठे यात्री परेशान नहीं होते, स्कूटर और साइकिल सवारों को भी परेशान होना पड़ रहा है। कहीं-कहीं तो पैदल चलना भी संभव नहीं रह गया है। दूसरे देशों में भी ऐसे ही हालात हैं। एक उदाहरण आॅस्ट्रेलिया का है, जहां परामत्ता नामक शहर से सिडनी पहुंचने में सौ साल पहले घोड़ागाड़ी से एक घंटे का वक्त लगता था, आज इससे ज्यादा समय कार से पहुंचने में लगता है। अंदाजा है कि अब से पांच साल बाद 2020 में आस्ट्रेलिया में कार यात्रा का समय मौजूदा समय से दोगुना हो जाएगा।
पर कारें हैं, इतने अवरोधों और समस्याओं के बावजूद बिक भी रही हैं। आखिर उनकी बिक्री में कुछ तो फायदा होगा। कारों की बिक्री को देश के विकास के साथ जोड़ा जाता है। चूंकि कार ज्यादा संख्या में बिक रही हैं, इसलिए आंकड़ों में आर्थिक विकास भी दिख रहा है। आज भारत पैसेंजर और व्यावसायिक कारों के निर्माण में दुनिया में छठे नंबर पर है। वर्ष 2011 में भारत में उनतालीस लाख कारों का निर्माण हुआ और इसने ब्राजील को पीछे छोड़ दिया।
एशिया के पैमाने पर वर्ष 2009 में जापान, दक्षिण कोरिया और थाईलैंड के बाद भारत चौथा सबसे बड़ा कार निर्यातक देश था और अगले दो साल में इसने थाईलैंड को पीछे छोड़ते हुए 2010 में तीसरा स्थान हासिल कर लिया। वर्ष 2010 के आंकड़ों के हिसाब से भारत में कुल मिलाकर सैंतीस लाख कारों का सालाना उत्पादन होता है और चीन के बाद दुनिया में सबसे तेज बढ़ता आॅटो सेक्टर भारत में ही है। हालांकि भारत में अभी कारों की खपत को कम माना जाता है। वर्ष 2009 के आंकड़ों के मुताबिक देश में अभी प्रति हजार लोगों पर चौदह कारें हैं। जबकि पाकिस्तान में यह आंकड़ा उन्नीस, श्रीलंका में अट्ठाईस, सिंगापुर में अड़सठ, यूरोप में पांच सौ से एक हजार और अमेरिका में सात सौ चालीस है। यानी कारों के मामले में हम अभी बहुत पीछे हैं।
दूसरे मुल्कों के मुकाबले हमारे देश में कम कारें हैं, पर वे समस्याएं ज्यादा पैदा कर रही हैं। आखिर क्यों? एक वजह यह है कि हमारे शहरों में कारों की संख्या सड़कों की क्षमता से ज्यादा है। इसका एक हल यह सुझाया जाता है कि सड़कें चौड़ी कर दी जाएं और फ्लाईओवर बना दिए जाएं। पर इससे भी कोई समाधान नहीं निकलता। फ्लाईओवर बनाने के चार-छह महीने बाद ही शहर के उन्हीं इलाकों में कारों की संख्या में इतनी वृद्धि हो जाती है कि फिर से ट्रैफिक जाम लगने लगता है। असल में, इसके पीछे देश के मध्यवर्ग में कारों को लेकर पैदा हुई जबर्दस्त चाहत है। यह चाहत जापान की सुजुकी कंपनी के सहयोग से मारुति कारों के निर्माण की बदौलत देश के मध्यवर्ग में पैदा हुई थी, जिसके नतीजे में आज सड़कों पर करोड़ों कारों को दौड़ते देखा जा सकता है।
मारुति और फिर बाद में टाटा की नैनो कार के बल पर निम्न मध्यवर्ग के लिए भी छोटी कार जो सपना देखा गया, उसने भी कुछ लाख लोगों की जिंदगी में भारी तब्दीली तो की है, लेकिन एक तरफ यही कारें पर्यावरण की शत्रु साबित हुई हैं और दूसरी तरफ उस यातायात समस्या का कोई खास विकल्प नहीं बन पाई हैं, जिसके हल के रूप में उन्हें पेश किया गया था। अलबत्ता ज्यादातर परिवारों के लिए महंगी से महंगी कारें स्टेटस सिंबल जरूर हैं लेकिन ध्यान रहे कि स्टेटस बढ़ाने वाली कारें किसी समस्या का समाधान नहीं सुझाती हैं।
कुछ विश्लेषकों के मत में आज की नौजवान पीढ़ी कहीं आने-जाने के लिए बसों, मेट्रो या ऑटो-टैक्सी पर निर्भर नहीं रहना चाहती, बल्कि वह निजी परिवहन की हिमायती है। यह भी कहा जाता है कि देश में मौसम की विविधता के मद्देनजर भी कारों की जरूरत को समझा जाना चाहिए। कभी तेज धूप, गर्मी, धूल, कभी बरसात और कड़ाके की ठंड। ऐसे में एक वातानुकूलित वाहन बहुत जरूरी लगता है। इसके अलावा बहुत-से व्यवसायों और नौकरियों में संपर्क और आवागमन का सिलसिला इतना ज्यादा बढ़ा है कि उसके लिए सार्वजनिक परिवहन पर आश्रित होकर नहीं रहा जा सकता। कभी मारुति ने हमारे समाज के इस सपने के साथ कदमताल की थी, पर अब इस सपने का दायरा और बढ़ चुका है, जिसने कारों की भरमार और जाम की समस्या पैदा की है।
इसके बावजूद कारों को समस्या मानने के विरोधियों का एक अलग मत भी है। वे कहते हैं कि समस्या कारें नहीं, बल्कि सड़कें और परिवहन के इंतजामात हैं। हमारे देश में ज्यादातर सड़कें कारों के हिसाब से डिजाइन नहीं की गर्इं। पार्किंग के समुचित प्रबंध नहीं किए गए। कानून में नई कॉलोनियों-मकानों के लिए यह जरूरी नहीं किया गया कि उनमें कारों की पार्किंग के लिए अनिवार्य रूप से जगह हो। दिल्ली में सैकड़ों अवैध कॉलोनियां ऐसी हैं जहां कारें बाहर गली में खड़ी की जाती हैं और वहां ऐसा करने पर कोई रोक-टोक नहीं हैं। इसी सबके चलते कारें खुद में एक समस्या बन गई हैं।
हालांकि कारों से एक समस्या पर्यावरण प्रदूषण की भी है। पर्यावरणवादी यह बुनियादी सवाल उठाते हैं कि आखिर देश में कारों की जरूरत ही क्यों होनी चाहिए, जबकि सार्वजनिक परिवहन प्रणाली को बेहतर करके परिवहन संबंधी जरूरतों का आसानी से हल निकाला जा सकता है। उन्हें यह बेमानी और सिर्फ कार कंपनियों को फायदा पहुंचाने वाला लगता है कि सरकार हर कीमत पर प्राइवेट मोटराइजेशन को बढ़ावा दे रही है। बसों पर टैक्स कारों से ज्यादा है और कारों की संख्या नियंत्रित करने की तो कहीं कोई बात ही नहीं है। निजी कारों को बढ़ावा देने का काम सार्वजनिक परिवहन की कीमत पर किया जा रहा है।
हमारे देश में आप जितनी चाहें उतनी कारें खरीद सकते हैं, चला सकते हैं, लेकिन इसके विकल्प में जो सार्वजनिक परिवहन की सुविधा लोगों के पास होनी चाहिए, वह तकरीबन नदारद है। जैसे, दिल्ली कुल ट्रैफिक का पचहत्तर प्रतिशत हिस्सा निजी कारों का है लेकिन उनसे यात्रा की बीस प्रतिशत से भी कम जरूरत पूरी होती है। यह हालत तब है जब इस महानगर के केवल तीस प्रतिशत परिवारों के पास कार की सुविधा है। अंधाधुंध सस्ती छोटी कारों का आना इस शहर के ट्रैफिक का क्या हाल करेगा, इस बारे में विचार किया जाना चाहिए।
लोग अगर दूर की यात्राओं के लिए अपने पास कार रखना चाहते हैं तो रखें लेकिन उनकी रोजमर्रा की यात्रा की जरूरतें अच्छे और सुविधाजनक सार्वजनिक परिवहन से ही पूरी होनी चाहिए। शहर में आम आवाजाही के लिए निजी कारों के इस्तेमाल को हतोत्साहित करना जरूरी है और इस काम में मूल्य निर्धारण, टैक्स, पार्किंग नीति, नियमन समेत हर संभव उपाय आजमाए जाने चाहिए। साल में एक दिन कार फ्री डे मना लेने से जागरूकता का स्तर जरूर कुछ बढ़ेगा, पर यह उम्मीद बेमानी है कि इससे समस्या का कोई स्थायी समाधान निकलेगा।
अभिषेक कुमार
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