इसकी व्याख्या तो बाद में होगी कि भीड़ का किसी घर में घुसकर फ्रिज खोलकर देखना या ट्रेन में किसी का टिफिन खोलकर देखना कि उसमें किस चीज का मांस है निजता के दायरे में आएगा या नहीं। या फिर अलीगढ़ के एक प्रोफेसर के घर में जबरन घुसकर उनके खास यौन रुझान का वीडियो बनाने वाले उस प्रोफेसर की मौत के जिम्मेदार होंगे कि नहीं जिन्होंने उनकी निजता की हत्या की थी। लेकिन यह तय है कि निजता हमारा मौलिक अधिकार है। अब जबकि पंचकूला में सरकार ही अपने अधिकार छोड़ नतमस्तक है तो वह अपने नागरिकों के निजता के अधिकार की कितनी रक्षा कर पाएगी हमारे लोकतंत्र के सामने यही सवाल मुंह उठाए खड़ा है। आधार के मामले में केंद्र सरकार ने अगस्त 2015 में कहा था कि भारत के संविधान के अनुसार निजता एक मौलिक अधिकार नहीं है। तबसे सरकार व भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण दोनों ने अदालत में बार-बार कहा कि भारतीयों का निजता का कोई मौलिक अधिकार नहीं है और निजता केवल आभिजात्य वर्ग की चिंता है। इन हानिकारक तर्कों पर फैसला आने के बाद अहम यह है कि पांच जजों की बेंच आधार मामले पर क्या सुनवाई करेगी। सरकार जिस तरह से आधार को लेकर आक्रामक थी और अदालती आदेशों की परवाह किए बिना उसे हर तरह के सरकारी कामों में लागू कर रही थी, उससे तो यह तय है कि अभी वह अदालत में अपना दमखम लगाएगी। नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं ने आधार के कारोबारी से लेकर राजनीतिक दुरुपयोग तक की आशंकाएं रखी हैं। लोकतंत्र को उलटा लटकाने वाली आधार जैसी योजना निराधार क्यों होनी चाहिए यही तर्क देता इस बार का बेबाक बोल।
जिन तख्तनशीनों को खुदा होने का यकीन होने लगा था उनके कानों में भी शायद नौ जजों का सर्वसम्मति से सुनाया फैसला गूंज रहा होगा। इंदिरा जयसिंह के शब्दों से पूरी तरह सहमत कि यह भारतीय लोकतंत्र के लिए उत्सव मनाने का दिन है। नागरिक अधिकार की इस लड़ाई का हासिल यह है कि अब हमारे बच्चे किताबों में यह पढ़कर बड़े होंगे कि निजता एक बुनियादी अधिकार है। आधार से निकली बहस ने हमारी निजता तो सुरक्षित कर दी है, अब देखना है कि सभी सरकारी सुविधाओं के लिए आधार अनिवार्य करने पर क्या फैसला आता है। जाहिर सी बात है कि अभी सरकार भी अपनी दलीलों के साथ आएगी। लेकिन तीन तलाक पर तीन बनाम दो और निजता पर नौ बनाम नौ के फैसलों ने एक आस तो जगा दी है। अदालत की जंग में नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं की राह आसान हुई है।
जब विचारों के टैंक (थिंक टैंक) बनाने वाली जगह पर युद्धक टैंक रखने की मांग की गई उसके तीसरे ही दिन सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि भारत जैसे विकासशील देश में निजता के अधिकार को अक्षुण्ण नहीं रहने दिया जा सकता है। यानी सरकार का साफ-साफ मानना था कि भारत अभी निजता के अधिकार दिए जाने लायक विकास नहीं कर पाया है, इसलिए सरकार के पास लोगों की निजता को कुचलने के औजार होने चाहिए। 2009 में संप्रग-दो के कार्यकाल में जब 12 अंकों की आधार परियोजना शुरू हुई तो सरकार ने बार-बार आश्वासन दिया कि इसे अनिवार्य नहीं किया जाएगा। 2014 में कांग्रेस मुक्त भारत का आह्वान देते हुए भाजपा की सरकार आती है और अपने साढ़े तीन साल के कार्यकाल में 50 से अधिक सरकारी योजनाओं को आधार-युक्त कर देती है। मोदी की अगुआई वाली राजग सरकार ऐसा तब कर रही है जब अदालत बार-बार कहती है कि आधार को अनिवार्य नहीं बनाया जाए। लेकिन अदालती आपत्तियों के बाद भी मनरेगा, पेंशन, राशन, बैंक खाते, सेहत सुविधाओं से लेकर मोबाइल नंबर तक के लिए अघोषित रूप से आधार अनिवार्य कर दिया गया है। स्थाई खाता संख्या (पैन) को भी आधार से जोड़ने का फरमान जारी हो गया।
देश के हर नागरिक के हाथ की उंगलियों की छाप से लेकर आंख की पुतली तक का डेटा सरकार के पास हो। उसकी सारी सामाजिक, राजनीतिक और व्यावसायिक गतिविधयों को एक पहचान संख्या से जोड़ दिया जाए। तो आखिर इसमें क्या परेशानी हो सकती है? और सरकार बार-बार सुप्रीम कोर्ट से लेकर हर जगह कह रही है कि ये डेटा सुरक्षित रहेंगे। तो, 2009 से दो विपरीत विचारधाराओं की सरकार कहती है कि आधार अनिवार्य नहीं होगा और 2017 तक आते-आते यह जीवन से लेकर मरण तक की हर गतिविधि के लिए अनिवार्य बनाया जा रहा है। मतलब सरकार के कहे का भरोसा नहीं, अदालत के आदेश का उसके लिए कोई अर्थ नहीं। और, जहां तक डेटा की सुरक्षा की बात है तो सबसे पहले भरोसा बड़े ऊपरी तबके का टूटा था। क्रिकेट खिलाड़ी की पत्नी साक्षी सिंह धोनी तब बहुत बेचैन हो उठती हैं जब एक सेवा प्रदाता महेंद्र सिंह धोनी के आधार कार्ड का पूरा विवरण ट्वीट कर देता है। धोनी जैसे प्रभावशाली व्यक्ति का डेटा दुनिया के सामने हाजिर था। जो भारत सरकार सुप्रीम कोर्ट में यह दलील दे रही है कि भारतीय अभी निजता के पूर्ण अधिकार के लिए विकसित नहीं हुए हैं वह उन कंपनियों को भारतीयों के डेटा को सुरक्षित रखने के लिए परिपक्व मान रही है जो इस तरह की गलतियां करती हैं। राजग सरकार की डिजिटल इंडिया से लेकर नकदरहित भुगतान और आधार डेटा जैसी अहम परियोजनाओं को जो अमेरिकी कंपनी देख रही है उस पर आर्थिक धांधली के कई आरोप लग चुके हैं। तो, हम अंदाजा लगा सकते हैं कि हमारी सरकार हमारी निजता को किनकी मुठ्ठी में बंद कर रही है। आधार के जरिए बाजार को उपभोक्ताओं की निगरानी का औजार पकड़ा दिया गया है।
इन परियोजनाओं का सबसे बड़ा खतरा यही है कि इन्हें बड़ी निजी कंपनियों के हवाले कर दिया जाता है। इन दिनों बड़े उद्योगपतियों और सरकार के अगुआ की गलबहियां से हर आम आदमी भी यह खतरा महसूस करता है कि कहीं हमारे हित इनकी तिजोरियों में न बंद कर दिए जाएं। अब तक हम उस हालत में पहुंच गए हैं कि नागरिकों के मन में यह सवाल भी उठना बंद हो जाता है कि आखिर कोई कंपनी हमें मुफ्त में इंटरनेट और फोन करने की सुविधा क्यों दे रही है? क्या विशालकाय निजी कंपनी मुफ्त में कोई काम करती है? और इसका जवाब कंपनी का मुफ्त इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों को तब मिलता है जब उनका सारा डेटा इंटरनेट पर बाजार के लिए मुहैया करा दिया जाता है। विभिन्न कंपनियों को 12 करोड़ के लोगों के बारे में सभी अहम जानकारी हासिल हो जाना बाजार के लिए क्या मायने रखता है यहां इसके विस्तार में जानने की जरूरत नहीं है। एक कारोबारी बेखौफ होकर इन आंकड़ों को बाजार में मुहैया करा देता है। बाजार के पास पहुंचे इन आंकड़ों का इस्तेमाल बिल्डर से लेकर लोन एजंसी अपने उत्पाद बेचने के लिए करेंगी। चंडीगढ़ और झारखंड में भी आधार के आंकड़े सामने आने के मामले हो चुके हैं।
बाजार तो अपने फायदे के लिए इसका इस्तेमाल करेगा ही, लेकिन एक और बड़ा खतरा इसके राजनीतिक दुरुपयोग का है। राजनीतिक दल वोटरों का मजहब और जातिवार डेटा हासिल कर चुनावों के समय सांप्रदायिक पत्ते चल सकते हैं। किस क्षेत्र के कितने मुहल्लों में मुसलमान रहते हैं यह भी जानकारी आपके हाथ लग जाएगी। अभी तो सांप्रदायिक दंगों के समय मुहल्लों पर हमला होता है। लेकिन उसके बाद तो चुन-चुन कर घरों पर हमला हो सकता है। इसी तरह राजनीतिक दलों को यह भी मालूम हो सकता है कि कितने घरों में राजपूत, यादव, क्षत्रिय या फिर ब्राह्मण हैं। जब सरकार बीपीएल परिवारों के घरों को चिह्नित कर देती है, समाज में उनकी एक अलग सरकारी पहचान खड़ी कर सकती है और चुनावों के समय श्मशान बनाम कब्रिस्तान की बात कर सकती है तो फिर आधार के आंकड़ों का कैसा राजनीतिक दुरुपयोग हो सकता है, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। लोकतंत्र की अवधारणा ही निजता से शुरू होती है। लेकिन सरकारी महाधिवक्ता सुप्रीम कोर्ट में दलील देते हैं कि नागरिकों का उनके शरीर पर पूरा अधिकार नहीं है। सरकार के अनुसार, आंख की पुतली और उंगलियों के निशान लेना पहचान-पत्र के लिए फोटो लेना भर ही है। यहां सवाल यह उठता है कि अगर हमारे शरीर पर ही हमारा अधिकार नहीं है तो व्यक्ति की स्वतंत्रता और लोकतंत्र की धारणा कहां पर टिकेगी।
पचास से अधिक योजनाओं में आधार को लागू कर सरकार एक लोकतांत्रिक राज्य नहीं एक सर्विलांस राज्य की स्थापना कर रही है। नागरिकों की दैहिक निशानियों के जरिए उसके पूरे कार्यकलाप पर राज्य की निगरानी होगी। एक नागरिक क्या खाएगा-पीएगा, क्या इलाज कराएगा, कहां जाएगा, कहां निवेश करेगा, किससे और कितनी देर फोन पर बात करेगा, किस राजनीतिक पार्टी को चंदा देगा ये सारे आंकड़े सरकार के पास होंगे। जिन सरकारों पर चुनावी मौसम देख कर गुजरात और असम के बाढ़ पीड़ितों में फर्क करने के आरोप लगे हों वे सारे नागरिकों का डेटा अपनी मुठ्ठी में होने के बाद अपने फायदे के लिए नागरिकों पर किस स्तर का भेदभाव कर सकती हैं – सोचा जा सकता है।
आधार एक ऐसा औजार है जो सत्ता और जनता का लोकतांत्रिक समीकरण पलट सकता है। पिछले कुछ समय में सायास तरीके से जनता पर निगहबानी के तरीके मजबूत करने और सरकार से सवाल करने के तंत्र को कमजोर करने की साजिश चल रही है। आधार को हर तरफ लागू कर सूचना के अधिकार को कमजोर किया जा रहा है। आरटीआइ जैसे कानूनों से नागरिकों को सरकार के बारे में सूचना हासिल होती थी इसलिए उसके प्रावधानों को कमजोर किया जा रहा है। आधार को महज निजता के अधिकार के दायरे में नहीं देखा जा सकता है। इसके व्यावसायिक, राजनीतिक और सामाजिक दुरुपयोग के खतरों का दायरा भयावह है। यह जनता की शक्तियों का राज्य को हस्तांतरण है। इसके जरिए बाजारू से लेकर सरकारी दखलंदाजी हमारे रसोईघर से लेकर शयनकक्ष तक पहुंचेगी और लोकतंत्र उलटा लटकेगा। सवा अरब लोगों का सबसे बड़ा लोकतंत्र दुनिया का सबसे बड़ा डेटाबेस न बनकर रह जाए। अब देखते हैं कि अदालत आधार पर क्या फैसला देती है। तब तक इंतजार।