असम में विधानसभा चुनाव का डंका बज चुका है। एक सौ छब्बीस विधानसभा सीटों के लिए दो चरणों में मतदान होगा- चार अप्रैल और ग्यारह अप्रैल को। पहले चरण में पैंसठ और दूसरे चरण में इकसठ सीटों के लिए वोट डाले जाएंगे। दोनों चरणों का मतदान बिहू से पूर्व संपन्न हो जाएगा। ऐसा करने के लिए राज्य की कई पार्टियों ने चुनाव आयोग से आग्रह किया था। आयोग ने उनके अनुरोध पर ध्यान दिया। गौरतलब है कि असम में बिहू का उत्सव चौदह अप्रैल को है।

तारीखों की घोषणा के साथ ही राज्य में चुनावी सरगरमी तेज हो गई है। इसका कतई मतलब नहीं कि इससे पहले राजनीतिक पार्टियां खामोश बैठी थीं। राज्य की सत्ताधारी कांग्रेस और उसके सहयोगी संगठन, अखिल भारतीय संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चा (एआइयूडीफ), वाम दलों (माकपा, भाकपा और भाकपा-माले) सहित अन्य छोटे-बड़े दल चुनावी घोषणा के लगभग छह महीने पहले से ही चुनावी तैयारी में जुट गए थे। इस दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह, महासचिव राम माधव, संगठन सचिव रामलाल और प्रदेश भाजपा के केंद्रीय प्रभारी महेंद्र सिंह सहित केंद्रीय मंत्रियों का आना-जाना लगा रहा। दूसरी ओर अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के उपाध्यक्ष राहुल गांधी, महासचिव और प्रदेश कांग्रेस के प्रभारी सीपी जोशी, सचिव स्तरीय प्रदेश कांग्रेस प्रभारी अविनाश पांडेय सहित कई बड़े नेता रैलियों को संबोधित कर चुके हैं।

कांग्रेस की ओर से लगभग एक साल से राज्य के साढ़े अठारह हजार बूथों के लिए बूथ समितियों की बैठकों का सिलसिला चलता रहा है। इस संबंध में प्रदेश कांग्रेस के महासचिव राजू प्रसाद शर्मा का कहना है कि हम प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र में बूथ समितियों की लगातार बैठक करते रहे हैं। हमारी तैयारी का मकसद महज भीड़ जुटाना नहीं, बल्कि एक-एक वोटर को पार्टी से जोड़ना है। ऐसी बैठक को गांधी सभा नाम दिया गया है। असम दौरे पर आए राहुल गांधी ने कहा कि असम और केरल में हमारा संगठन बहुत मजबूत है। इन राज्यों में बूथ स्तर से लेकर प्रदेश स्तर तक पार्टी को मजबूत करने की कोशिश की जाती है।

चुनावी तैयारी के मामले में बैनर-पोस्टर के माध्यम से कांग्रेस अधिक आक्रामक दिखाई दे रही है, पर भाजपा के लिए संघ परिवार के अन्य संगठनों ने पूरी ताकत झोंक दी है। पहले तो संघ परिवार के लोग सेवा कार्यों से लोगों को प्रभावित कर उन्हें भाजपा की ओर आकर्षित करने की कोशिश करते थे, लेकिन पहली बार देखा जा रहा है कि संघ परिवार के लोग घर-घर जाकर हिंदुत्व के नाम पर वोट मांग रहे हैं। असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई कह चुके हैं कि गांव-गांव में संघ के लोग भाजपा के लिए समर्थन जुटाने की कोशिश कर रहे हैं। यह अलग बात है कि प्रदेश भाजपा की गतिविधियों से संघ नाराज है। प्रदेश भाजपा के वरिष्ठ नेता उसे नहीं भा रहे हैं। इनमें से अधिकतर नेताओं का अतीत में संघ से कोई रिश्ता नहीं रहा है।

पिछले विधानसभा चुनाव में दूसरी बड़ी ताकत रहे एआइयूडीएफ, वाम दल, बीपीएफ, यूपीपी सहित अन्य दलों की ओर से अपने-अपने स्तर पर चुनावी तैयारी की जा रही है। इस चुनाव की सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि तरुण गोगोई सरकार के लगातार तीन कार्यकाल पूरे होने के बावजूद भाजपा सहित अन्य विपक्षी पार्टियां गोगोई सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर पैदा करने में विफल हैं, जबकि गोगोई सरकार के तीसरे कार्यकाल में उतने कार्य नहीं हुए, जितने पहले और दूसरे कार्यकाल के दौरान हुए थे। ऐसी परिस्थिति से उत्साहित मुख्यमंत्री गोगोई का कहना है कि राज्य भर में कांग्रेस के समर्थन में हवा बह रही है। ऐसी हवा मेरे राजनीतिक जीवन में कभी नहीं बही। दूसरी ओर वे खुद को भाजपा नेताओं से बड़ा हिंदू, अगप नेताओं से बड़ा आंचलिकतावादी और एआइयूडीएफ से बड़ा मुसलिम हितैषी बता कर सबको अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश कर रहे हैं।

बीते लोकसभा चुनाव में भाजपा ने राज्य में बेहतर प्रदर्शन करते हुए चौदह लोकसभा सीटों पर कब्जा कर लिया था। उस चुनाव परिणाम से उत्साहित भाजपा आलाकमान और खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी असम को विशेष अहमियत देते रहे हैं। असम में लगातार केंद्रीय मंत्रियों का आना-जाना जारी रहा है। मोदी सरकार ने पहली बार असम में राष्ट्रीय स्तर पर डीजीपी-डीआइजी सम्मेलन आयोजित कराया। युवा महोत्सव का आयोजन असम में कराया गया। दक्षिण एशियाई खेलों का आयोजन गुवाहाटी और शिलांग में करा कर इस क्षेत्र को अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाने की कोशिश की गई।

भाजपा, असम गण परिषद और बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट के बीच चुनावी गठबंधन के बाद सत्ताधारी कांग्रेस को भी लगने लगा है कि उसके लिए दिसपुर की सूबेदारी उतनी आसान नहीं, जितनी पहले दिख रही थी। इसके कारण भी स्पष्ट हैं। चुनावी तैयारी के पहले दौर में राज्य में सत्ताधारी कांग्रेस बूथ स्तर से लेकर प्रदेश स्तर तक भाजपा को पछाड़ चुकी थी। अगर संघ परिवार की ओर से जमीनी स्तर पर की जा रही तैयारियों को नजरअंदाज कर दें तो भाजपा ने अपनी चुनावी मुहिम का वास्तविक आगाज मार्च महीने से किया, जबकि पिछले दो महीने से कांग्रेस प्रधानमंत्री मोदी के वादों, महंगाई, बेरोजगारी, सांप्रदायिकता और मोदी सरकार की कथित असम विरोधी गतिविधियों को लेकर पोस्टर की जंग चलाती रही है।

छोटी-छोटी बातों को लेकर मुख्यमंत्री गोगोई और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अंजन दत्त जिस तरह केंद्र सरकार को घेरते रहे हैं, उससे लग रहा है कि वे लगातार चौथी बार सत्ता में आने के लिए कोई कोर-कसर छोड़ना नहीं चाहते। जबकि भाजपा की विडंबना है कि वह राज्य में हुए घोटालों, आतंकी गतिविधियों, गैंडों की हत्या सहित लगातार पंद्रह सालों की कांग्रेस की सत्ता के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर पैदा करने में नाकाम रही है।

दूसरी ओर केंद्र की मोदी सरकार के बीस महीनों के कार्यों को लेकर असम प्रदेश कांग्रेस प्रचार समिति की ओर से ऐसा अभियान चलाया जा रहा है, मानो प्रधानमंत्री मोदी की छवि भले चुनाव के पहले नायक की रही हो, पर फिलहाल उनके कार्यों से असम की विकास यात्रा पूरी तरह प्रभावित हो रही है। कांग्रेस जनता को समझा रही है कि असम के पिछड़ेपन के लिए मोदी सरकार जिम्मेदार है, जबकि दिसपुर की सत्ता पर पंद्रह सालों से मुख्यमंत्री तरुण गोगोई काबिज हैं। साथ ही बीस महीने पहले लगातार दस वर्षों तक मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे, जो राज्यसभा में लगातार पांच बार से असम का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि बीते लोकसभा चुनाव में असम के मतदाताओं ने भाजपा को इसलिए वोट दिया कि उसने वादा किया था कि वह समझौते के तहत असम की जमीन बांग्लादेश के हवाले नहीं करेगी और कथित बांग्लादेशियों को राज्य से बाहर कर देगी, जो असमवासियों के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विकास में बाधक माने जाते हैं। पर इन दोनों मुद्दों पर मोदी सरकार ने वादाखिलाफी की। भूमि समझौते के तहत असम की जमीन बांग्लादेश को सौंपी गई। अवैध घुसपैठ को रोकने के लिए कोई कारगर कदम नहीं उठाया गया। मोदी सरकार ने बांग्लादेश से आए हिंदुओं को नागरिकता देने की घोषणा भी कर दी। ऐसा करते समय असम समझौते की शर्त को नजरअंदाज किया गया।

चुनाव प्रचार के दौरान इन मुद्दों को उछाल कर कांग्रेस भाजपा पर दबाव बनाने की पूरी कोशिश कर रही है। उसे उम्मीद है कि वह जनता की अदालत में मोदी को विफल साबित कर चुनावी वैतरणी पार कर लेगी। गौरतलब है कि असम में होने वाले विधानसभा चुनाव में बड़ी क्षेत्रीय पार्टियां कांग्रेस, भाजपा और वाम दलों के आगे कमजोर दिख रही हैं। पिछले पंद्रह सालों में ऐसा पहली बार होगा जब राज्य के विधानसभा चुनाव में दो राष्ट्रीय पार्टियों की सीधी टक्कर होगी, जबकि क्षेत्रीय पार्टियां छोटी भूमिका निभाएंगी।

छह सालों तक विदेशी घुसपैठियों के खिलाफ चले आंदोलन से उभरी असम गण परिषद की ताकत कम हुई है। आंदोलन के प्रमुख नेता और राज्य के दो बार मुख्य्मंत्री रहे प्रफुल्ल कुमार महंत को 2001 में मिली हार के बाद पार्टी कमजोर होती गई है और भाजपा से गठबंधन में बतौर साझेदार भी उसकी हैसियत कम हुई है। इस बार पार्टी चौबीस सीटों पर चुनाव लड़ रही है, जबकि भाजपा अट्ठासी सीटों पर चुनाव लड़ेगी। भाजपा की हालत में हुए इस सुधार का असर बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट (बीपीएफ) से हुए गठजोड़ में भी दिखता है। पिछले दो चुनावों में मतदान के बाद बीपीएफ का कांग्रेस से गठबंधन हुआ था। अब उसे अलग बोडोलैंड को लेकर भाजपा से उम्मीद दिखाई दे रही है। दूसरी तरफ नया क्षेत्रीय समूह यूनाइटेड पीपुल्स फ्रंट (यूपीएफ) बोडोलैंड पीपुल्स प्रोग्रेसिव फ्रंट से अलग होकर कांग्रेस में शामिल हो गया है। उधर कृषक मुक्ति संग्राम समिति (केएमएसएस) ने वाम दलों का समर्थन करने का फैसला किया है।

केएमएसएस भूमि संबंधी अधिकारों के लिए संघर्ष करता है और जन वितरण प्रणाली में होने वाली चोरी जैसे मुद्दे उठाता है। यह संगठन अण्णा हजारे के आंदोलन में शामिल होने के चलते सामने आया था, लेकिन बाद में इंडिया अगेंस्ट करप्शन के अभियान से अलग हो गया। कई क्षेत्रीय समूह अब अस्तित्व में नहीं हैं। भाजपा की चुनाव प्रबंधन समिति के संयोजक और पूर्व कांग्रेसी मंत्री हिमंत बिश्वशर्मा का कहना है कि भाजपा का मकसद सभी क्षेत्रीय पार्टियों को साझेदार के रूप में लेते हुए कांग्रेस और एआइयूडीएफ को रोकना है। असम गण परिषद को उन्होंने सत्ता की भूखी ऐसी पार्टी बताया, जिसका कभी भी क्षेत्रवाद से कोई मतलब नहीं रहा।