हमारे देश में यौन हिंसा की जड़ें इतनी गहरी हैं कि आंकड़ों से लेकर आम परिवेश तक यह दंश साफ नजर आता है। अफसोस कि शिक्षा और जीवनशैली में आए तमाम बदलावों के बावजूद स्त्रियों के प्रति मौजूद इस मानसिकता में कोईफर्क नहीं आया है। लेकिन सुखद बात है यह कि महिलाएं अब अपनी इस पीड़ा को लेकर मुखर हुई हैं। हाल में यौन हिंसा को लेकर जागरूकता लाने के उद्देश्य से ‘गरिमा यात्रा’ निकाली गई। देश के चौबीस राज्यों और दो सौ जिलों से गुजरते हुए दस हजार किलोमीटर पैदल चल कर राजधानी दिल्ली पहुंची इस यात्रा में ऐसी पच्चीस हजार महिलाएं शामिल हुईं जो यौन हिंसा की पीड़ा झेल चुकी हैं। गौरतलब है कि ऐसी ही एक पदयात्रा ‘महिला सुरक्षा यात्रा’ कुछ समय पहले दिल्ली महिला आयोग ने भी आयोजित की थी।

इसमें तेजाब हमले की शिकार महिलाओं की पीड़ा और जद्दोजहद सामने आई थी। तेरह दिन की महिला सुरक्षा यात्रा में शामिल महिलाओं ने रोजाना करीब तीस किलोमीटर का सफर तय करते हुए दिल्ली की सड़कों और गलियों तक अपनी पीड़ा पहुंचाई। यह वाकई गौर करने वाली बात है कि सोशल मीडिया अभियानों के इस दौर में ऐसी बर्बरता का दंश झेल चुकी महिलाएं वास्तविक धरातल पर अपनी आवाज बुलंद करती नजर आ रही हैं। तेजाब हमले हों या यौन हिंसा के मामले, इन जघन्य अपराधों की पीड़िताएं बिना किसी डर, हिचक या परदे के न केवल इन यात्राओं में शामिल हुर्इं बल्कि अपनी आपबीती भी सुनाई।
दरअसल, यौन शोषण के मामलों का सबसे दुखद पक्ष पीड़िता के प्रति सहयोगी और सम्मानजनक व्यवहार न रख कर उसे दोषी माने जाने की प्रवृत्ति का है। ऐसा ही सोच तेजाब हमले की शिकार महिलाओं को लेकर भी है। लेकिन गरिमा यात्रा और महिला सुरक्षा यात्रा में शामिल महिलाओं ने जिस मुखरता से आवाज उठाई और अपनी पीड़ा और पहचान को साझा किया, वह इस मानसिकता में बदलाव लाने वाला अहम कदम है। ऐसे मामलों को लेकर मुखर होना बताता है कि यह महिलाओं के लिए नहीं बल्कि उनके प्रति दुर्भाव की मानसिकता रखने वालों के लिए शर्म का विषय है। यही वजह है कि ऐसी घटनाओं की शिकार महिलाएं अब अपराधबोध नहीं पालतीं, बल्कि हौसले के साथ अपनी बात कह रही हैं।

महिला शोषण से जुड़े हर तरह के मामलों में यह सबसे प्रभावी बदलाव है। इसका असर अब सामाजिक-पारिवारिक परिवेश में भी देखने को मिल रहा है। लोगों ने कुछ हद तक अब स्त्री को दोष देने की बंधी-बंधाई लीक पर चलना छोड़ा है। ऐसी अफसोसनाक घटनाओं के बारे में कुछ कहने से पहले अब हर पहलू पर मानवीय सोच के साथ विचार किया जाने लगा है। असल में देखा जाए तो बदलाव की यह शुरुआत निर्भया मामले के बाद हुई है। समाज के इस सकारात्मक सहयोग और संबल ने निर्भया के माता-पिता का भी मनोबल बढ़ाया। लोग आक्रोशित हो सड़कों पर उतरे, निर्भया पर सवाल उठाने के लिए नहीं बल्कि आरोपियों को सजा दिलवाने के लिए। हाल के वर्षों में देखने में आया है कि ऐसी किसी भी घटना के बाद ज्यादातर मामलों में समाज का रुख सहयोगी और सकारात्मक रहा है। ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के बाद अब महिलाओं के पहनावे या घर से निकलने के समय पर नहीं बल्कि अपराधियों के दुस्साहस पर सवाल उठाए जाते हैं। इस बदलाव ने न्याय पाने की राह भी सुझाई है।

आंकड़े बताते हैं कि अब दुष्कर्म और छेड़छाड़ के मामलों में चुप बैठने के बजाय रिपोर्ट कर अपराधी को सबक सिखाने की राह चुनी जाती है। अब बलात्कार पीड़िताओं पर ही लांछन लगा देने की चली आ रही सोच को चुनौती दी जा रही है। महिलाएं भी सवाल उठा रही हैं कि उनके साथ हुए शोषण के लिए खुद वे ही जिम्मेदार क्यों ठहराई जा रही हैं? इन यात्राओं में महिलाओं का बिना किसी हिचक के अपनी गरिमा और अस्तित्व से जुड़े सवाल उठाना समाज के इस सहयोगी बर्ताव की ही बानगी है। सुखद यह भी है कि यह नई सोच उनके मन में भय की जगह अधिकार की बात ला रही है। मौजूदा समय में जब हमारी संवेदनाएं मरती जा रही हैं और हर उम्र की महिलाएं ऐसी भयावह ज्यादतियों का शिकार बन रही हैं, तब ऐसे में यह बदलाव लैंगिक भेद मिटाने और स्त्री अस्मिता का मान करने वाला परिवेश बनाने की नई उम्मीद जगाता है।

सोशल मीडिया से लेकर असल दुनिया तक, महिलाएं अब स्थापित खांचों से बाहर आ रही हैं। इस खुलेपन में सबसे अहम बात उनका यह मानना और दूसरों से मनवाना है कि बिना किसी गलती के हम शर्मिंदा क्यों हों! शर्म और सजा तो उन अपराधियों के हिस्से आनी चाहिए जो आधी आबादी का मानवीय हक छीनते हैं। शर्मिंदा उन्हें होना चाहिए जो महिलाओं की सुरक्षा और समानता के उस हक पर डाका डालते हैं, जो इस देश की नागरिक होने के नाते उनका अधिकार है।
हमारे देश में सबसे ज्यादा बदलाव की दरकार समाज में मौजूद परंपराओं, रूढ़ियों और भेदभाव भरी मानसिकता की जकड़न को लेकर है। बेटे और बेटी में किए जाने वाले भेद की मानसिकता के चलते आज भी दूर-दराज के गांवों में बेटियों की शिक्षा और स्वास्थ्य को महत्त्व नहीं दिया जाता। आज भी हमारे परिवारों में महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसा को व्यवस्थागत समर्थन मिलता है। हर तरह की मुश्किलों से लड़ कर आगे बढ़ने वाली महिलाओं को कार्यस्थल पर भी कई बार अभद्रतापूर्ण व्यवहार झेलना पड़ता है। ऑक्सफेम इंडिया की ओर से करवाए गए एक सर्वे के मुताबिक भारत में सत्रह फीसद महिलाएं कार्यस्थल पर यौन शोषण का शिकार होती हैं। यह चौंकाने वाला आंकड़ा संगठित और असंगठित दोनों ही क्षेत्रों का है। घर हो या बाहर, इस दुर्व्यवहार की अहम वजह यही है कि आत्मसम्मान और सुरक्षा का मानवीय हक महिलाओं की झोली में कभी आया ही नहीं। ऐसे में अपने साथ होने वाले बर्बर व्यवहार के प्रति स्त्रियों की यह मुखरता बुनियादी बदलाव लाने की आस बंधाती है।

बीते साल सोशल मीडिया पर चला ‘हैशटैग मी टू’ अभियान भी इसी बात को पुख्ता करता है जिसके तहत हर उम्र, हर वर्ग की महिलाओं ने अपने साथ हुए यौन शोषण की बात साझा की। संसार के हर हिस्से की महिलाओं को जोड़ने वाले मी टू अभियान में देश, धर्म, जाति और समुदाय से परे दुनियाभर की महिलाओं ने यौन शौषण को लेकर अपनी चुप्प तोड़ी थी। विश्व के कोने-कोने से न केवल महिलाओं ने इस अभियान में हिस्सा लिया बल्कि यौन उत्पीड़न को लेकर कई खुलासे भी किए थे। यह हैशटैग एक समय में पिच्यासी देशों में ट्रेंड कर रहा था, जिसमें घरेलू हिंसा से लेकर कार्यस्थल पर शोषण तक की घटनाएं तक शामिल थीं। खुल कर अपनी बात कहने की बानगी बने इस अभियान में यही बात सामने आई कि हमारे साथ हुई बेहूदगी के लिए हम ही दोषी कैसे हैं? जबकि कठघरे में तो वे सरफिरे होने चाहिए जिनकी मानसिकता ही विकृत है। अनगिनत विरोधाभासों से जूझते हुए महिलाएं हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं। सशक्त बनने के मोर्चे पर आधी आबादी ने साबित किया है कि वे स्वयंसिद्धा हैं। महिलाएं अब पूछने लगी हैं कि क्यों समाज में पीड़िता को कसूरवार बना दिया जाता है? ऐसे सवाल आधी आबादी को जबरन थोपी गई शर्मिंदगी के कुचक्र से निकाल कर सशक्त नागरिक बना रहे हैं।