हम मनुष्य, इस विशाल ब्रह्मांड रूपी रंगमंच पर स्वयं को कर्ता, ‘निर्णायक’ की उपाधि से विभूषित करते हैं। हमारी चेतना का दीपक जलता है और हम सोचते हैं कि यह प्रकाश हमारी अपनी इच्छाशक्ति का है, जिससे हम जीवन के मार्ग की हर पगडंडी को अपनी मर्जी से चुनते हैं, ठीक वैसे ही जैसे नर्तक अपनी हर मुद्रा का चयन करता है। पर क्या यह अहंकार नहीं? क्या यह ‘मैं करता हूं’ का भाव मात्र एक मोहक आवरण नहीं है, जिसके पीछे ‘हो रहा है’ का सनातन सत्य छिपा है?
अगर हम आंखें मूंदकर विचार करें तो पाएंगे कि हमारा हर चुनाव, एक जटिल समीकरण का अपरिहार्य हल है, न कि कोई स्वतंत्र आविष्कार। जब हम कोई संकल्प लेते हैं, तो वह संकल्प कहां से फूटता है? क्या वह अनायास हमारी आत्मा से प्रस्फुटित होता है, या वह पूर्वजन्मों के संस्कारों का, बाल्यकाल की स्मृतियों का, और इस क्षण मस्तिष्क में चल रहे त्रिगुणात्मक स्पंदनों (सत्त्व, रजस, तमस) का अनिवार्य परिणाम है? यह हमारी जन्मकुंडली की तरह है। एक ऐसा सूत्रपात, जो उसी क्षण हो गया था, जब प्रकृति और पुरुष का संयोग हुआ।
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हमारे विचार उसी धारा के बुलबुले हैं, जिसे वंशानुक्रम, शिक्षा और परिवेश की शक्तियां अपनी दिशा देती हैं। हम जिस ‘स्वतंत्रता’ का दावा करते हैं, वह उस नदी की धारा जैसी हो सकती है, जो पहाड़ की ढलानों, चट्टानों के विन्यास और वर्षा की मात्रा से पहले ही निश्चित हो चुकी है। वह नदी बहने के लिए स्वतंत्र है, पर क्या वह अपनी दिशा चुनने के लिए स्वतंत्र है? उसका वेग और उसका मार्ग पहले से ही काल के मानचित्र पर अंकित है। यह ज्ञान, हमारे ‘स्व’ के सिंहासन को हिला देता है और हमें आत्म-नियंत्रण के एक गहरे विरोधाभास में उलझा देता है।
अगर हमारा ‘निर्णय’ केवल कर्मफल की एक अटूट शृंखला का हिस्सा है, जहां आज का विचार कल के अनुभव का फल है, और कल का अनुभव परसों के विचार को जन्म देगा, तो ‘स्वाधीनता’ कहां टिकती है? एक बात तो यह भी है कि स्वाधीनता की खोज हमने अपने भीतर कितनी की है, उसे पहचाना कितना है और उसे बरता कितना है। हम स्वयं को उस रथ के सारथी समझते हैं, जिसका नियंत्रण दरअसल रथ के अश्वों (इंद्रियों) और रास्ते (नियति) के हाथों में है। हमारी ‘इच्छाशक्ति’ उस मोहग्रस्त यात्री की तरह है, जो यह मान बैठा है कि वह पहियों को घुमा रहा है, जबकि रथ स्वत: ही अपने पूर्व-निर्धारित गंतव्य की ओर खिंचा जा रहा है। हमारी नैतिक जिम्मेदारी का भव्य भवन इसी भ्रम पर खड़ा है।
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अगर किसी प्राणी ने घोर पाप किया, तो हमारी न्याय की तुला यह मानती है कि उसके पास धर्म का मार्ग चुनने का विकल्प था, लेकिन अगर उसके चित्त की गति, उसके पूर्व कर्मों की वासनाओं और उसके वर्तमान भौतिक तत्त्वों के मिश्रण से अपरिहार्य थी, तो हम उसे अपराधी कहकर कैसे दंडित करें? क्या वह केवल उस ब्रह्मांडीय नाटक का एक पात्र नहीं था, जिसने अपने विवश स्वभाव के कारण एक निश्चित भूमिका निभाई? यह चिंतन हमें दंड और पुरस्कार की सारी अवधारणाओं पर पुन: विचार करने पर बाध्य करता है।
अगर नियतिवाद ही अंतिम सत्य है, तो हमारी क्षमता क्या है? क्या संसार के सारे प्रयास, तपस्या और साधनाएं निरर्थक हैं, क्योंकि परिणाम तो पहले से ही तय है? इस निराशा में भी, दर्शन का एक गुप्त मार्ग खुलता है। यह मार्ग हमें नियति के सम्मुख पूर्ण आत्मसमर्पण की ओर ले जाता है, जहां ‘मैं’ के बोझ से मुक्ति मिलती है और ईश्वर की लीला या कर्म के विधान की सर्वोपरिता स्वीकार होती है। मगर चेतना का एक कोना अब भी विद्रोह करता है। जब हम गहरे ध्यान में उतरते हैं, तो हमें लगता है कि हमारे भीतर एक अव्यक्त साक्षी है, जो प्रकृति के खेल को तटस्थ भाव से देख रहा है। यही वह शुद्ध बोध है, जो हमें माया के जंजाल से बाहर खींचने की क्षमता रखता है।
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संभव है कि हमारी भौतिक क्रियाएं (कर्म) और विचार (मन) नियति के अधीन हों, पर उस क्षण जब हम जानते हैं कि हम नियति के अधीन हैं, वही बोध ही हमारी एकमात्र और सच्ची स्वतंत्रता है। यह बोध, कर्म की बेड़ियों को नहीं तोड़ता, बल्कि उन बेड़ियों के अस्तित्व को जानने की स्वतंत्रता देता है। इसलिए शायद कर्म (क्रिया) और विकल्प (चयन) का विरोधाभास नहीं है, बल्कि यह द्वैत है। हमारा शरीर और मन प्रकृति के नियमों से बंधा है, पर हमारी आत्मा (चेतना) उन बंधनों को जानने और स्वीकारने के लिए स्वतंत्र है।
यह ‘ज्ञान’ ही वह दुर्लभ प्रकाश है, जो हमें ‘मैं करता हूं’ के अहंकार से मुक्त करता है और ‘सब होता है’ के अनासक्त भाव की ओर ले जाता है। ‘मैं’ और ‘सब’ को पहचानने की शक्ति हमें अनासक्ति तक पहुंचाती है और उसके बाद फिर अनासक्ति ही हमें नियति के लिखे को जीते हुए भी उससे ऊपर उठने की शक्ति देती है। यह आखिर यही प्रश्न छोड़ जाता है कि क्या हम वह पात्र हैं, जो विवशता में अभिनय कर रहा है, या वह साक्षी, जो उस अभिनय को केवल देख रहा है और क्या यह देखना ही वास्तविक स्वाधीनता है, जिससे हमारे चित्त की विवशता समाप्त होती है और चेतना परम स्वाधीनता को प्राप्त करती है।
