कई बार सामाजिक-राजनीतिक परिघटनाओं पर दिन-रात सिर खुजाने वाले हम जैसे लोग जब किसी परिघटना की नस सही पकड़ लेते हैं तो थोड़ी खुशी होती है। तालिबान में तख्तापलट के दौरान मेरी राय थी कि यह परिघटना भारत से ज्यादा पाकिस्तान के लिए समस्या पैदा करेगी। अब यह साफ हो गया है कि तालिबान फिलहाल भारत के साथ ज्यादा दोस्ताना रहेंगे। जिस तालिबान को लगेगा कि वह भारतीय सेना को हरा सकते हैं उस दिन वे अपने विचार बदलेंगे मगर उसके पहले उन्हें खैबर पख्तूनख्वा को जीतना होगा। जिस दिन तालिबान जीत जाएँ उस दिन से भारत को तैयार रहना होगा कि अब वे आगे बढ़ सकते हैं।

इस भूराजनीतिक गतिविधि के बरक्स दिल्ली में एक बड़ी घटना घटी जिस पर देश के प्रबुद्ध वर्ग को हायतौबा मचाना चाहिए था। मगर आश्चर्यजनक है कि इस मुद्दे पर जैसा शोर मचना चाहिए था वैसा नहीं हुआ। जिस बात पर देश के बौद्धिक जगत में हंगामा मच जाना चाहिए था, उस पर मौन स्वीकार्यता की चादर डाली जा रही है।

दिल्ली में मौजूद तालिबानी विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी की प्रेस वार्ता में कोई महिला पत्रकार उपस्थित नहीं थी! यह कैसे हुआ इसके बारे में भी पूरी जानकारी सामने नहीं आयी है मगर दिल्ली में ऐसा होना बेहद चिन्ताजनक है। अब साफ समझ आता है कि ऐसी छोटी-छोटी चिन्ताओं को नजरअंदाज करके समाज उन बड़ी चिन्ताओं तक पहुँचता है जिसमें किसी समुदाय का निर्मम दमन भी नॉर्मल समझा जाने लगता है। इसका ताजा उदाहरण अमेरिका से आया है। एक बड़े अमेरिकी राज्य की गवर्नर पद की उम्मीदवार का वीडियो ऊपर हुआ है जिसमें वह छोटे बच्चों के संग फिजिकल रिलेशन बनाने को अपराध नहीं ‘यौन प्रवृत्ति’ बताती सुनी जा सकती हैं। पूरी दुनिया में छोटे बच्चों को टारगेट करने के एक मुहिम चल रही है। अभी कुछ दिन पहले एलन मस्क ने नेटफ्लिक्स की एक वेबसीरीज का हिस्सा शेयर करके इसे अनइंस्टाल करने की मुहिम चलायी थी। उस वेबसीरीज में भी स्कूली बच्चे एक डॉक्टर को जेंडर आइडेंटिफिकेशन पर ज्ञान देते दिख रहे हैं! यानी हमारे बच्चे इस लॉबी की नई प्रयोगशाला हैं। बच्चे हम पैदा करेंगे और उन ‘सत्य के प्रयोग’ ये मनोविकृत लॉबी करेगी।

आपको यह दूर की कौड़ी लगती होगी क्योंकि आदमी की याददाश्त कमजोर होती है। मगर ज्यादा पुरानी बात नहीं है जब दर्जनों ईसाई चर्चों में सैकड़ों छोटे बच्चों का यौन शोषण दशकों तक चलता रहा। बाद में इसका भंडाफोड़ करने वाले अखबार को पुरस्कार मिला और इस परिघटना पर बनी फिल्म को ऑस्कर पुरस्कार मिला। अफगानिस्तान की कुख्यात बच्चाबाजी भी पुरानी बात नहीं है और पाकिस्तान में जारी बच्चाबाजी पर डॉयचे वैले ने कुछ समय पहले ही डाक्यूमेंट्री बनायी है। अफगानिस्तान में महिलाओं के जिस दमन को नॉर्मल बनाया जा चुका है उसका भूराजनीतिक कारणों से दिल्ली तक पहुँचना चिन्ताजनक है। उससे भी ज्यादा चिन्ताजनक है कि भारतीय बुद्धिजीवी इस पर बौद्धिक प्रतिवाद जताने में भी कोताही बरत रहे हैं।

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अगर तालिबान को महिला पत्रकारों से समस्या है तो उन्हें अपनी प्रेस-वार्ता काबुल में जाकर करनी चाहिए। उन्हें जिन मर्द भारतीय पत्रकारों को बुलाना था उन्हें काबुल बुला सकते थे और उनसे बातचीत कर सकते थे। भारत सरकार भी यह कहकर अपनी पीठ नहीं बचा सकती कि इस पत्रकार वार्ता को अफगानिस्तान दूतावास ने आयोजित किया था। अगर यह भारत सरकार की जानकारी के बिना हुआ है तो यह और भी निन्दनीय है। कहना न होगा, तालिबान नेता के इस रवैये ने न केवल महिला पत्रकारों को बल्कि समस्त भारतीय महिलाओं को शर्मसार किया है। ऐसा न होता तो बेहतर होता।

तालिबान नेताओं को भी अपने नियम अपने देश में चलाने चाहिए। दूसरे देश में उस देश की संस्कृति का सम्मान करना सीखना चाहिए। तालिबान भी जानते होंगे कि एकतरफा सम्मान की उम्र ज्यादा लम्बी नहीं होती। आज इतना ही। शेष, फिर कभी।

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