लौटना और बार-बार जाकर फिर लौटना। यह क्रम हमेशा सहज नहीं होता। सब समाप्त होने के बाद फिर लौटने में थोड़ा सुकून तो होता है, लेकिन कई आशंकाएं भी मन में गहरे उतर आती हैं। लौटता हुआ इंसान कभी बेफिक्र नहीं रह पाता, क्योंकि रास्ते बदलते नहीं, उनसे जुड़ी भावनाएं भी साथ चलती हैं। अतीत की सुखद अनुभूति उसे अपनी ओर खींचती है, आशाओं से भरती है कि संभवत: इस बार वे सुखद वादे फलीभूत हो जाएंगे। मगर अतीत के कंटक, उनसे उपजे घाव और स्मृतियों में अटकी पीड़ा उसके हृदय को जकड़ लेती है। मन के अंदर दो ध्रुव खिंचाव पैदा करते हैं—एक उम्मीद का, दूसरा भय का।

पूरी तरह कदम खींचकर, मुड़कर दूसरी राह पर खुद को जबरदस्ती आगे बढ़ाने का प्रयास करने के बाद जब कोई अज्ञात भावना या ऊर्जा फिर से भीतर हलचल पैदा करती है, तो मन बहुत कुछ समझकर भी उलझ जाता है। प्रेम-पुष्प, जो जगह-जगह से बिंध चुका है, पर अभी भी आत्मा की डाली से पृथक नहीं हुआ है, वह पतझड़ से पहले शायद अंतिम उम्मीद के रूप में प्रकृति को निहारता है। मन ही मन प्रार्थना करता है कि शायद उसका अस्तित्व नए रूप में फिर से खिल उठे और हर तरफ महक फैलाए।

मगर लौटना केवल किसी व्यक्ति तक सीमित नहीं होता। कई बार यह आत्म-परीक्षण का अवसर होता है—अपने फैसलों को परखने का, अपनी भावनाओं को समझने का और यह तय करने का कि क्या छोड़ा हुआ वास्तव में छोड़ने योग्य था या नहीं। लौटते समय मन की झिझक, संदेह, भय, शर्म और पिछली गलतियों की छाया साथ चलती है। इन्हीं अनुभवों के आधार पर हम स्वयं से प्रश्न करते हैं कि क्या उस समय लिया निर्णय सही था? क्या हमने जल्दबाजी की? या क्या हमने अपने ही दिल को अनसुना कर दिया था?

यह प्रक्रिया हृदय और मस्तिष्क के संतुलन को समझने का अवसर देती है। हमारे भीतर की नादानी, असुरक्षा और छिपे भय सामने आते हैं, जिन्हें पहचानना भी आधा उपचार है। लौटना इसलिए भी आवश्यक हो जाता है कि हम अपने भीतर की आवाज को एक बार फिर सुन सकें, क्योंकि कभी-कभी हम खुद को ही गलत समझ लेते हैं। और यही सबसे बड़ी चूक होती है, क्योंकि ऐसे में कई बार हम अपने सही निर्णय को गलत और गलत को सही मानने के ऊहापोह की स्थिति में पहुंच जाते हैं। जब तक हम अपनी नजर में स्पष्ट न हों कि हम गलत हैं, तब तक नतीजे के तौर पर खुद को गलत मानना ठीक नहीं।

हां, यह सही है कि भावनाएं जब बार-बार लौटने के बाद किसी निर्णायक मोड़ पर पहुंचती हैं, तो उनमें पहले जैसी सहजता नहीं रहती। भीतर एक अतिरिक्त सावधानी जन्म लेती है। एक मौन उदासीनता, जो नाजुक आवरण में छिपी रहती है, ताकि उम्मीदें फिर कभी मृगतृष्णा की तरह भटकती न रह जाएं। और यह भी कि जिस व्यक्ति के पास लौटे हैं, उसके उत्साह, प्रयास और भावनाओं को अपनी आशंकाओं के कारण धूमिल न किया जाए।

इसकी वजह यह है कि वह भी समझ चुका होता है कि यह लौटना अंतिम प्रयास हो सकता है और शायद वह भी अपनी ओर से कुछ बदलने का संकल्प लिए बैठा होगा। लेकिन सच्चाई यह है कि इस लौटने और वापस जाने की पुनरावृत्ति में वह पुराना अधिकार भाव नहीं बच पाता। मन के किसी कोने में यह भय स्थायी रूप से बस जाता है कि कहीं फिर किसी मोड़ पर अपना समेटा हुआ सामान उठाकर हमेशा के लिए रुखसत न होना पड़ जाए।

और सामान भी क्या… बहुत कुछ तो पहले ही नष्ट हो चुका होता है। वे मासूम भावनाएं, एकाधिकार की चाह, अल्हड़ प्रेम और वह सादगी जो अब वैसी कभी नहीं रह सकती। कुछ खनकते कंगनों की ध्वनि… वक्त की सलवटें… आंखों के कोनों में छिपा सूनापन…! ये सब याद दिलाते हैं कि लौटना हमेशा आसान नहीं होता।

और जब शक्ति बदले हुए अस्तित्व के साथ फिर से किसी के पास जाती है, तब भी एक अनकही बेचैनी महसूस होती है। उसके बिना रहने की कोशिश, दूर होने पर खुद को संभालने की आशंका और लौटकर भी सामान्य न हो पाने का डर साथ चलता है। मगर अगली बार सच में बसंत आ गया, तो नई कोपलें फिर फूटेंगी… कोयल की कूक फिर गूंजेगी… इंद्रधनुष फिर हृदय पर फागुन बनकर उतरेगा। लौटने की यह यात्रा खुशियों की नई रंगोली बनकर जीवन-बगिया को एक बार फिर महका सकती है।

शायद यही वह संकेत हो, उस अज्ञात प्रेरणा का, जो बार-बार भीतर से कहती है कि अभी समाप्त नहीं हुआ, अभी कुछ शेष है। इसलिए अगर कभी इस तरह लौटना पड़े, तो इसे कमजोरी नहीं समझना चाहिए। यह स्वयं को दिया गया अवसर है, जिससे यह समझा जा सके कि ब्रह्मांड की ऊर्जा के संदेश क्या सच में आत्मा ने ग्रहण किए हैं, या यह केवल टूटे हृदय की पुकार है?

कहीं ऐसा तो नहीं कि हम भ्रमवश अपनी ही कमजोरी को संकेत समझ बैठे हों? भविष्य ही बताता है कि यह निर्णय सकारात्मक था या नकारात्मक, लेकिन आत्मविकास का एक नया अध्याय अवश्य रहेगा कि हमने कम से कम एक अंतिम बार मन की सुनकर लौटने का साहस किया। अपने भीतर झांकने का, अपनी भावनाओं को सत्यापित करने का और अपने हृदय की पुकार को उसका हक देने का। क्योंकि कभी-कभी आत्मा की पुनर्परीक्षा भी आवश्यक होती है… और लौटना उसी यात्रा का महत्त्वपूर्ण अध्याय बन जाता है।