भारत के सांस्कृतिक इतिहास को देखें तो, खास परिस्थितियों को छोड़ कर बिना श्रम किए भोजन हासिल करना विष के समान है। श्रम और भोजन का यह संतुलन जब भी, जिस कारण से गड़बड़ हुआ है, उसकी वजह से कई तरह की सामाजिक गड़बड़ियां पैदा हुई हैं। जब सत्ता गर्व से कहे कि वह अस्सी करोड़ जनता को मुफ्त खाना दे रही है तो जनता में भी इस श्रेणी से बाहर निकलने की छटपटाहट कम हो जाती है। जब विकास के आसमान छूते आंकड़े हों तो क्या वजह है कि जनता मुफ्त वाली श्रेणी से बाहर निकलना नहीं चाह रही है। आज भी चुनाव में रोजगार के वादे इसलिए किए जाते हैं, क्योंकि यह जनता की प्राथमिक जरूरत है। इस जरूरत को पूरा करने के लिए जितने राजनीतिक श्रम की जरूरत है, वह सत्ता करना नहीं चाहती है। इसलिए वह जनता के लिए बिना श्रम के पेट भरने का उपाय ले आई है। लोकतंत्र में सरकारी खजाना लोक के श्रम से ही बनता है। यह खजाना एक ऐसा क्षय-पात्र है जो लगातार खाली हो रहा है। सत्ता जब मुफ्त देने के पुण्य बता रही है तो सवाल करता बेबाक बोल कि फिर पाप क्या है?
पाप क्या है? ‘संसार में पाप कुछ भी नहीं है। वह केवल मनुष्य के दृष्टिकोण की विषमता का दूसरा नाम है।’
भगवतीचरण वर्मा के उपन्यास ‘चित्रलेखा’ का प्रमुख पात्र श्वेतांक जो महाप्रभु रत्नांबर का शिष्य है, पाप और पुण्य की अवधारणा की खोज में यही दृष्टांत पाता है। पिछले लंबे समय से भारतीय राजनीति में जो कुछ हो रहा है, उसे अब सही और गलत के खांचे में ढालना असंभव सा हो गया है। अब जो भी है, सही-गलत नहीं, या तो पक्ष है, या प्रतिपक्ष। सत्ता के खेमे का है, या सत्ता के विरोधी का है।
कथित सत्य के नाम पर आज हमारे पास हैं कुछ ग्रंथ, महापुराण, पुराण व नीति कथाएं। कथाएं अब भी हैं, लेकिन कथा के कथ्य को सुनने व समझने वाला कोई नहीं रह गया है। अब कथाएं मनुष्य की चेतना का उद्गार नहीं हैं, अपने स्वार्थ के हिसाब से संशोधित क्षेपक भर हैं। राज्य के हाथ में दानपात्र है, लेकिन आज के संदर्भ में उस पात्र का स्वामी राज्य नहीं लोक होना चाहिए। लोक के पात्र से ही लोक को दान दिया जा रहा है और लाभार्थी का ठप्पा पात्र के स्वामी पर है।
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इस स्तंभ में एक चीनी कहावत का उदाहरण दिया गया था-लोगों को मछली मत दो, मछली पकड़ने की कला सिखाओ। शायद चीनी कहावत होने के कारण भारतीय राजनीति में यह संदर्भहीन था। लोक के खेमे में मछली पकड़ने का ज्ञान रखने वाले कम हो रहे हैं, बनी-बनाई मछली खाने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। भारतीय सभ्यता संस्कृति में कुछ खास तबके को छोड़ कर श्रम के बिना भोजन को विष के समान समझा जाता है।
कथाओं के महाग्रंथ महाभारत से निकली एक कथा पर नजर पड़ी। महाराज युद्धिष्ठिर के पास एक अक्षयपात्र था, जिससे वे अपनी प्रजा को दान देते थे। अक्षयपात्र हर इच्छित वस्तु को पल भर में प्रस्तुत कर देता था। इस पात्र की बदौलत युद्धिष्ठिर शिवि, दधिची और हरिश्चंद्र को भी पीछे छोड़ देना चाहते थे। धर्मराज युधिष्ठिर के महल में रोजाना सोलह हजार आठ ब्राह्मणों को भोजन करवाने के पश्चात दान दिया जाता था।
संसार के सभी पात्रों के रचयिता श्रीकृष्ण से अक्षयपात्र का यह दुरुपयोग देखा नहीं गया। युधिष्ठिर के अंदर पैदा हुए अहंकार को कौन खत्म कर सकता था? युधिष्ठिर को धर्म के मार्ग पर वापस लाने के लिए कृष्ण उन्हेंपाताल लोक के स्वामी बलि के पास ले गए। बलि के पास पहुंच कर कृष्ण ने युधिष्ठिर की तरफ इशारा करते हुए पूछा-असुर राज बलि क्या आप इन्हें जानते हैं? बलि ने इनकार में सिर हिलाया। श्रीकृष्ण ने कहा-ये पांडवों के ज्येष्ठ महादानी युधिष्ठिर हैं। इनके द्वारा दिए गए दान से पृथ्वी का कोई व्यक्ति वंचित नहीं है। आज तो धरतीवासी आपको भी याद नहीं करते हैं।
बलि ने सिर झुका कर विनीत भाव से कहा, महाराज मैंने तो कोई दान नहीं किया। मैंने तो वामन देव को मात्र तीन पग भूमि दी थी। श्रीकृष्ण ने कहा-महाराज बलि, भारतवर्ष में प्रजा युधिष्ठिर के सिवा सभी दानवीरों को भूल गई है।
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बलि ने बिना किसी ईर्ष्या भाव के कहा- प्रभु यह तो कालचक्र है। वर्तमान के सामने अतीत धुंधला पड़ ही जाता है। वर्तमान सदैव वैभवशाली होता है। मुझे प्रसन्नता है कि महाराज युधिष्ठिर ने अपने दान बल से मेरी कथाएं बंद कर दी हैं। मैं धर्मराज का दर्शन कर कृतार्थ हुआ।
श्रीकृष्ण ने मुस्कुराते हुए कहा-इनके पास एक अक्षयपात्र है, जिससे ये प्रतिदिन सोलह हजार आठ ब्राह्मणों को भोजन कराते हैं तथा मुंहमांगा दान देते हैं, जिससे इनकी जय-जयकार होती है। अब राजा बलि ने चौंकते हुए कहा-प्रभु आप इसे दान कहते हैं? यदि यह दान है तो फिर पाप क्या है…? हे पांडव श्रेष्ठ आप ब्राह्मणों को भोजन देकर अकर्मण्य बना रहे हैं। तब तो आपकी प्रजा को अध्ययन, अध्यापन, यज्ञ, अग्निहोत्र आदि कार्य करने की आवश्यकता ही नहीं होगी। केवल अपने दान के दंभ को बल देने के लिए कर्मनिष्ठ ब्राह्मणों को आलसी बनाना पाप है। मैं इसकी अपेक्षा मर जाना उचित मानता हूं।
श्रीकृष्ण ने प्रश्न किया-क्या आपके राज्य में दान नहीं दिया जाता या प्रजा आपसे दान मांगने नहीं आती? बलि ने कहा-यदि मैं अपने राज्य के किसी याचक को तीनों लोकों का स्वामी बना दूं तो वह भी प्रतिदिन अकर्मण्य होकर मेरा दिया भोजन स्वीकारने नहीं आएगा। मेरे राज्य में ब्राह्मण कर्म योग के उपासक हैं। प्रजा कल्याण साधन किए बिना कोई दान स्वीकार नहीं करती। आपके प्रिय धर्मराज जी जो दान कर रहे हैं, उससे कर्म और पुरुषार्थ की हानि हो रही है। परिदृश्य में युधिष्ठिर का सिर झुका हुआ था।
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दिल्ली का नाम ‘इंद्रप्रस्थ’ रखने के समर्थकों वाली सत्ता क्या इंद्रप्रस्थ की इस कहानी से कोई सीख लेगी? क्या जनकल्याण के‘बिहार माडल’ के खिलाफ कोई आवाज उठेगी? जनकल्याणकारी योजनाओं में जन का कल्याण कितना रह गया है? चुनाव के समय में जनता को दान के रूप में खाते में रुपए पहुंचा दिए जाएंगे। कितने दिन चलेंगे दस हजार? जिस महिला के खाते में एक बार के लिए दस हजार रुपए आए, क्या उसके दिल में हूक नहीं उठेगी कि काश उसके गृह-राज्य में ही उसे, पति या संतान को रोजगार मिल जाता, और पैसे हर महीने तनख्वाह के रूप में बैंक के खाते में आते? अहम बात है कि दान की इस अवधारणा के साथ महिलाओं की राजनीतिक चेतना को सत्ता पक्ष के लिए वोट देने का औजार भर बना दिया गया है।
महाभारत से निकली कथा के अनुसार पांडवों के वनवासकाल के दौरानइस पात्र का इस्तेमाल द्रौपदी करती थी। उस पात्र से परिवार के कितने भी लोग, कितना भी भोजन कर लेते, लेकिन जब तक द्रौपदी उस पात्र से भोजन नहीं कर लेती थी, वह भरा ही रहता था। आज सत्ता ने बिहार की स्त्रियों के पात्र में दस हजार डाले हैं। यह आप भी जानते हैं कि इन स्त्रियों का पात्र अक्षयपात्र नहीं है। रोजगार की कमी और महंगाई हर पात्र को क्षय-पात्र बना चुकी है।
आज अगर द्रौपदी होती तो सूर्य भगवान से वरदान के रूप में अक्षयपात्र लेने से मना करती। द्रौपदी कहती, मुझे यह भोजन-पात्र नहीं चाहिए। मुझे वह संसाधन चाहिए जिससे हमारे परिवार के लोग खुद काम करके अपना भोजन जुटा सकें।
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आज न तो द्वापर युग है न कृष्ण व युधिष्ठिर। जनता के संदर्भ में एक ही अक्षयपात्र हो सकता है-रोजगार। आधुनिक संविधान भारतवर्ष की सारी भूमि व संपदा को जनता का घोषित कर चुका है।
संवैधानिक व लोकतांत्रिक संदर्भों में सत्ता, जनता को दान दे ही नहीं सकती है। वह जनता के पात्र से ही खाना निकाल कर जनता को दान कह कर देती है। दान में कल्याण करने की भावना न हो तो, वह ग्रहण करने वाले के लिए नुकसानदायक होता है। इतिहास गवाह है कि दान देने वालों में अहंकार आना भी स्वाभाविक है, चाहे वे धर्मराज युधिष्ठिर ही क्यों न हों।
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सवाल है कि अब वे कृष्ण कहां से आएंगे जो राज कर रही सत्ता को धर्म का पाठ पढ़ाने के लिए बलि के पास ले जाएं, और बलि चौंक कर उनसे सवाल करें, आप इसे दान कहते हैं! यदि यह दान है तो फिर पाप क्या है…?
