ऐसा लगता है कि वे दिन अब गुजर गए जब बरसात के मौसम में बारिश न होने पर किसान अपने खेत में खड़े होकर आसमान की ओर निहारा करते थे। फसल सूख जाने की चिंता उन्हें व्याकुल कर देती थी। अब तो मूसलाधार बारिश उन्हें इतना त्रस्त कर देती है कि वे आपदा से बचाने की गुहार लगाते नजर आते हैं। पिछले कुछ समय से लगातार बारिश और बादल फटने की घटनाओं ने किसानों से लेकर आम नागरिकों को चिंता में डाल दिया है। इस प्राकृतिक आपदा से भारी तबाही मची है।
ऐसे में कई इलाकों के जलमग्न होने से संपदा और खेत-खलिहान भी बर्बाद हो जाते हैं। घर, सड़कें और राजमार्ग बह जाते हैं। बाढ़ की घटनाओं में वृद्धि निस्संदेह चिंताजनक है। वैश्विक ताप बढ़ने के कारण हिमनद असमय पिघल रहे हैं। जलवायु परिवर्तन का नतीजा अब हम प्रलय मचाती बाढ़ के रूप में भी देख रहे हैं। उफनती नदियां लोगों का जमा-जत्था बहा कर ले जा रही हैं। पिछले वर्ष सामान्य से कम बारिश हुई थी। तब पूरे देश के आधे भाग में भरपूर बारिश हुई थी और आधा भाग सूखा रह गया था। इस बार जो बारिश हो रही है, वह मौसम विज्ञानियों के अनुमान से भी अधिक है।
मौसम विशेषज्ञों का अनुमान था कि इस वर्ष बारिश सामान्य से अधिक हो सकती है और मानसून समय पर आएगा, लेकिन तूफानी बारिश लेकर उमड़ते-घुमड़ते काले बादल समय से पहले ही चले आए। अब उनका निरंतर एवं सघनता से बरसना और उससे तबाही का कहर पिछले सभी रेकार्ड तोड़ रहा है। कई राज्यों में लोग बेहाल हैं। सड़कें क्षतिग्रस्त होने से आवागमन में बाधा आ रही है। लोगों का काम-धंधा चौपट है। सवाल है कि आखिर इस तबाही के लिए कौन जिम्मेदार है? लोग किससे पूछे कि यह तबाही कैसे आई और इसके नियंत्रण के क्या उपाय है? आमतौर पर कह दिया जाता है कि यह प्रकृति का प्रकोप है और आम आदमी इसे दुर्भाग्य मान लेता है। यह भी मान लिया जाता है कि ये स्थितियां मानव नियंत्रण से बाहर हैं। मगर तनिक गंभीरता से मनन करें, तो पाते हैं कि इस तबाही के पीछे भी कुछ प्रभावशाली लोगों का स्वार्थ है, जिसकी कीमत आज आम आदमी चुका रहा है।
आधुनिकता की दौड़ में हमने पर्यावरण को काफी नुकसान पहुंचाया है
इसमें दोराय नहीं कि आधुनिकता की दौड़ में हमने पर्यावरण को काफी नुकसान पहुंचाया है। जहां संभव नहीं था, वहां भी विस्फोटकों की मदद से पहाड़ों को खोखला कर दिया गया। वहां न केवल सुरंगे बनाई गईं, बल्कि पर्यटन के लिए रास्ते भी निकाले। लोभी लोगों ने पहाड़ों से लेकर हरित क्षेत्रों, कृषि भूमि और नदियों के आसपास से लेकर नालों तक अतिक्रमण कर बहुमंजिला इमारतें खड़ी कर लीं। अब बारिश के कारण अवरुद्ध जल की निकास बड़ी समस्या बन कर सामने आई है। पानी को रास्ता नहीं मिलने से कई इलाके जलमग्न हो रहे हैं। पर्यटन जैसे कमाऊ क्षेत्र के लिए यह एक बुरा संकेत है। अब हर रोज मौसम करवट बदल रहा है। बारिश का आलम यह है कि राजस्थान जैसा सूखा और रेतीला इलाका भी अतिवृष्टि के कारण बेहाल है। ऐसे में सवाल है कि आम आदमी की विपदा के लिए सरकार की ओर से मुआवजे की घोषणा से क्या समस्या का स्थायी समाधान हो पाएगा?
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अतिवृष्टि से उत्तर भारत तो बेहाल है ही, मुंबई से लेकर दक्षिण के तटीय इलाकों तक बारिश ने तबाही मचा दी है। जगह-जगह कई मकान और पुल बह गए हैं। आवागमन के लिए बनाई गई सुरंगें पत्थर गिरने के कारण अवरुद्ध हो रही हैं। उनमें पर्यटकों के साथ वाहन भी फंस रहे हैं। पंजाब में भी इस बार बारिश से तबाही मच गई है। जलंधर, पठानकोट, फाजिल्का, होशियारपुर, अजनाला और रइया में मूसलाधार बारिश से जगह-जगह तालाब बन गए हैं। जम्मू-कश्मीर में स्थिति गंभीर है। कठुआ में क्षतिग्रस्त पुल पर आवाजाही बंद हो गई है। हिमाचल के लाहौल से लेकर उत्तराखंड के बद्रीनाथ धाम तक असामान्य बर्फबारी हुई, जिससे धार्मिक पर्यटन से मिलने वाले राजस्व का नुकसान हुआ। लाखों लोगों की धार्मिक यात्राएं अवरुद्ध होती नजर आईं, चाहे वह अमरनाथ यात्रा हो या चारधाम। वर्ष भर जारी रहने वाली वैष्णो देवी यात्रा में भी मूसलाधार बारिश के कारण कई बार व्यवधान आया। हाल में इस मार्ग पर भूस्खलन के कारण कई श्रद्धालुओं की जान चली गई।
पंजाब में सीमा पर सैकड़ों गांवों और घरों में पानी घुस गया
इस बार नदियों के पानी को बांध संभाल नहीं पा रहे हैं। पंजाब के बांधों का जलस्तर खतरे के निशान की ओर है। इसलिए भाखड़ा, पोंग और रणजीत सागर बांध से हजारों क्यूसेक पानी सतलुज, ब्यास आदि नदियों में छोड़ा जा रहा है। पंजाब में सीमा पर सैकड़ों गांवों और घरों में पानी घुस गया है। हजारों एकड़ भूमि जलमग्न हो गई है, जिससे फसलों का काफी नुकसान हुआ है। सड़कें बह जाने से यातायात प्रभावित हुआ। देश की राजधानी दिल्ली भी जलभराव से बच नहीं सकी। यहां कई इलाकों में पानी का रेला देखा गया। मुंबई देश की आर्थिक राजधानी है, वहां भी घुटनों तक पानी नजर आया। ऐसे में केवल प्रकृति का विकराल रूप लेने की बात कह कर हम अपनी जिम्मेदारियों और जवाबदेही से बच नहीं सकते।
सरकार को व्यवस्था में खामियों की बात स्वीकार करनी चाहिए। क्या देश ने पर्यावरण बचाने और वैश्विक ताप को नियंत्रित करने के लक्ष्य पर गंभीरता से ध्यान केंद्रित किया है? क्वाड देशों के सम्मेलन में तो प्रण लिया गया था कि बढ़ते प्रदूषण और वैश्विक ताप के विरुद्ध सक्रिय अभियान चलाया जाएगा। वहीं, अमेरिका से लेकर पश्चिमी देश यह कह कर इस अभियान में अपना उचित आर्थिक योगदान देने से कदम पीछे खींच रहे हैं कि कार्बन उत्सर्जन और बढ़ते वैश्विक ताप के लिए वे दोषी नहीं, क्योंकि वे तो डिजिटल और रोबोट युग में चले गए हैं।
अब सवाल यह है कि पश्चिमी देशों के इस संकुचित दृष्टिकोण का खमियाजा भारत के लोग क्यों भुगते? क्या सभी को खुश करने की राजनीति को छोड़ कर इस अभियान को प्राथमिकता नहीं दी जा सकती थी? मगर ऐसा नहीं हुआ। इसका नतीजा यह है कि हिमनद पिघल रहे हैं, मौसम चक्र में बदलाव से हर तरफ बाढ़ आ रही है। गांव और कस्बे गुम हो रहे हैं। क्या ऐसा संभव नहीं है कि जैसे भारत अब हर क्षेत्र में अपने पैरों पर खड़ा होने की कोशिश कर रहा है, उसी तरह प्रदूषण और वैश्विक ताप से निपटने के लिए स्थानीय स्तर पर व्यापक प्रयास किए जाएं। भारत के इन प्रयासों को देखकर दूसरे देश भी यथायोग्य योगदान के लिए आगे आएंगे।