उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में हर वर्ष बरसात के दिनों में तबाही देखने को मिलती हैं। भूस्खलन, बादल फटना और हिमनदों के पिघलने का सिलसिला लगातार जारी है। यह शायद पहली बार है कि राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण इस बात का अध्ययन करेगा कि दोनों प्रदेशों में इस तरह की घटनाएं क्यों लगातार बढ़ रही हैं? यह इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि जलप्रलय की इन घटनाओं ने आधुनिक विकास के मॉडल पर फिर एक बार सवाल खड़े कर दिए हैं।
क्या विकास के लिए प्रकृति से छेड़छाड़ की जा रही है?
अचानक बाढ़ या भूस्खलन कुछ ही मिनटों में ऐसी तबाही मचाते हैं कि बड़े पैमाने पर ढांचागत संपत्तियों और जान-माल का नुकसान हो जाता है। उत्तराखंड के धराली में पिछले दिनों ऐसी ही त्रासदी देखने को मिली थी। किसी को समझ में नहीं आया कि कैसे इस खौफनाक मंजर से खुद को बचाया जाए। अब यह भी कहा जा रहा है कि धराली की घटना बादल फटने से नहीं, बल्कि नदी के स्वभाविक जल प्रवाह में बाधाएं खड़ी करने की वजह से हुई थी। जो भी हो, मगर एक बड़ा सवाल यह खड़ा हो गया है कि क्या विकास के लिए प्रकृति से छेड़छाड़ की जा रही है? एक बात स्पष्ट है कि नदियों, झीलों और सरोवरों के किनारे अतिक्रमण करना आपदाओं को न्योता देने के समान है।
वैज्ञानिकों के मुताबिक, इस तरह की प्राकृतिक आपदाओं की मूल वजह वनों की कटाई, नदी के मार्ग में अतिक्रमण तथा बंजर भूमि और पर्वतों का कटान है। जलवायु परिवर्तन के कारण किस तरह की आपदाएं आ सकती हैं, इसे हाल की घटनाओं से समझा जा सकता है। सर्वाेच्च न्यायालय ने वर्ष 1991 में निर्देश दिया था कि लोगों को खासकर नई पीढ़ी को पर्यावरण के प्रति जागरूक बनाने के लिए राज्य सरकारों को शिक्षा संस्थानों के पाठ्यक्रम में नया विषय जोड़ना चाहिए।
हालांकि, पाठ्यपुस्तकों में पर्यावरण का विषय जोड़ा गया, लेकिन इससे समाज में पर्यावरण के प्रति कितनी जागरूकता बढ़ी, यह कहना मुश्किल है। गौरतलब है कि शीर्ष अदालत ने पर्यावरण की रक्षा के लिए राज्य सरकारों को स्पष्ट निर्देश दिया था कि जन जागरण के जरिए लोगों में नई चेतना जगाई जाए। लेकिन जब इन निर्देशों से राज्य सरकारें ही नहीं जगीं, तो फिर जनता को जगाने की बात ही बेमानी है।
क्या होता है बादल फटना? क्यों हिमालय में बढ़ रही हैं Cloudburst और तबाही की घटनाएं?
जानकारों का मानना है कि बढ़ते शहरीकरण से पर्यावरण को ज्यादा खतरा है। जाहिर है, भारत सहित दुनिया के तमाम देशों में औद्योगीकरण बढ़ रहा है। नदियों के स्वाभाविक रास्ते को अवरुद्ध कर वहां ढांचागत निर्माण किए जा रहे हैं। गांव और जंगल उजड़ रहे हैं। लोग रोजगार एवं सुख-सुविधाओं की तलाश में गांव छोड़ कर शहर आ रहे हैं। लेकिन जो नई बस्तियां बसाई जा रही हैं, वहां न तो पर्यावरण के मानकों का पालन हो रहा है और न ही वहां के लोगों को यह बताया जा रहा है कि वे किस तरह से पर्यावरण की रक्षा करने में सहयोगी बन सकते हैं।
सारी व्यवस्था एक तरफ और पर्यावरण की हिफाजत का सवाल दूसरी तरफ। ऐसे में पर्यावरण की रक्षा कैसे हो, यह सवाल और गंभीर हो गया है। इतना जरूर हो रहा है कि पर्यावरण संरक्षण के नाम पर अरबों रुपए बहाए जा रहे हैं। इससे कुछ लोग अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति में लगे हुए हैं और पर्यावरण की स्थिति लगातार बिगड़ रही है। जो संस्थाएं या पर्यावरणवादी पर्यावरण संरक्षण की बात कर रहे हैं, उन्हें विकास विरोधी बता कर हताश किया जा रहा है।
देखा जाए तो विकसित देश पर्यावरण को सबसे अधिक नुकसान पहुंचा रहे हैं। उन्हें इस बात की चिंता नहीं है कि आने वाली पीढ़ियों के लिए धरती के संसाधनों का बेतहाशा दोहन बहुत बड़ा खतरा बन सकता है। इसलिए वे विकास के उस माडल के पैरोकार बने हुए हैं, जो पर्यावरण के साथ-साथ संस्कृति, धर्म और मानवता के लिए नुकसानदेह साबित हो रहा है। विकसित देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियां पूरे समाज को एक बाजार में तब्दील करती जा रही हैं।
Cloudburst Explained: क्यों फटते हैं बादल, क्या भारत में बढ़ रही हैं ऐसी घटनाएं?
इसका असर यह हो रहा है कि ज्यादातर लोग धरती की हिफाजत के बजाय, उसको उजाड़ने में लगे हैं। इंसान से लेकर संस्कृति, पर्व और चिकित्सा यानी सब कुछ एक बाजार में तबदील हो चुका है। समाज का हर छोटा-बड़ा तबका इस कथित विकास की दौड़ में शामिल हो चुका है, मगर किसी का पर्यावरण की रक्षा की तरफ ध्यान नहीं है। जो पर्यावरण की तरफ अपना ध्यान केंद्रित करते हैं, उन्हें विकास विरोधी या गरीब विरोधी बता कर हाशिये पर धकेलने की मुहिम चलाई जा रही है। ऐसे में सोचा जा सकता है कि आने वाला वक्त कितना चुनौतीपूर्ण होगा?
वर्तमान में पर्यावरणीय मापदंडों और विकास के मानकों को संतुलित करने की बहुत जरूरत है। बिना संतुलन बनाए और इस दिशा में जनजागृति फैलाए, न तो हम आने वाले तमाम खतरों से बच पाएंगे और न ही निरापद विकास कर पाएंगे। दिल्ली, हरियाणा और राजस्थान में अधिक धूम्रपान से ऐसे लोग भी श्वास और आंख की बीमारियों का शिकार हो रहे हैं, जो इस लत से दूर हैं।
धूम्रपान अनपढ़ या कम पढ़े-लिखे ही नहीं कर रहे, बल्कि पढ़े-लिखे लोग भी इस लत के आदी हैं। पर्यावरणीय जागरूकता का यह हाल है। जो लोग इस दिशा में कुछ सार्थक कार्य जैसे जागरूकता और शिक्षण कर रहे हैं, उन्हें प्रोत्साहन देने के बजाय हतोत्साहित किया जाता है। इसलिए यह समस्या दिनोंदिन गंभीर होती जा रही है।
सरकार वर्षों से पर्यावरण सुधार की दिशा में संयुक्त राष्ट्र के साथ मिल कर कई स्तरों पर कार्य कर रही है। अरबों रुपए अब तक इस मद में खर्च किए जा चुके हैं, लेकिन जन सहयोग न मिलने और पैसे का दुरुपयोग होने के कारण इस दिशा में ऐसा कुछ भी हासिल नहीं हो सका है, जिससे सुरक्षित जीवन को लेकर भरोसा कायम हो सके।
भारत सहित पूरी दुनिया में विकास के नाम पर विस्थापन, उजाड़ और पर्यावरण विध्वंस का दौर चल रहा है। जो इस दौर में शामिल हैं, वे ‘बुद्धिमान’ और ‘चतुर’ माने जा रहे हैं और जो इस विनाश लीला का विरोध कर आंदोलन के जरिए लोगों को जागरूक करना चाहते हैं, उन्हें विकास विरोधी घोषित कर उनकी पहल पर ही सवाल उठाया जा रहा है। मतलब एक तरफ बाजारवादी शक्तियां हैं, जिनके पास अकूत धन है।
वे पर्यावरण का विनाश करने में लगीं हैं। दूसरी ओर कुदरत की हिफाजत करने वाले लोग भी हैं, जो इस विनाश को रोकने की कोशिश में लगे हैं। देखना यह है कि विनाशकारी जीतता है या विनाश को रोकने वाला। यदि आपदाओं से सबक लेकर अतिक्रमण और वनों के कटान जैसी कवायदों को बंद कर दिया जाए, तो जलवायु परिवर्तन के प्रकोप से धीरे-धीरे निजात मिल सकती है।