विश्वविद्यालय शिक्षा का वह केंद्र है जहां असंख्य सपने पलते और सच होते हैं। स्कूल से निकलकर विद्यार्थी अपने सपनों की नई दुनिया साथ लिए विश्वविद्यालय में प्रवेश करते है। उनके साथ उनके परिवार और समाज के सपने भी जुड़े होते हैं। विश्वविद्यालय जितना प्रतिष्ठित हो, महाविद्यालय की रैंकिंग जितनी अच्छी हो, सपने उतने ही बड़े दिखाई देते हैं। चाहे एक शिक्षक के रूप में सोचा जाए या अभिभावक के रूप में, ऐसा लगता है कि विश्वविद्यालय केवल शिक्षा प्राप्त करने का स्थान नहीं होता है, बल्कि यह युवाओं के व्यक्तित्व निर्माण का भी केंद्र होता है।

इस व्यक्तित्व निर्माण की प्रकिया का एक पहलू चुनाव प्रक्रिया भी है। विश्वविद्यालय में छात्र संघ के चुनाव तथा महाविद्यालयों में छात्र संघों के चुनाव के माध्यम से विद्यार्थी राजनीति की व्यावहारिक जमीन का ककहरा सीखते हैं। इस सीखने की प्रक्रिया का एक अन्य पहलू शिक्षक संघों के चुनाव भी हैं, जिसमें विद्यार्थी आमतौर पर दर्शक और प्रभावित पक्ष के रूप में होते हैं। पूरी चुनाव प्रक्रिया लगभग एक महीने चलती है और इस एक महीने सभी कालेजों की शिक्षा-दीक्षा कमोबेश प्रभावित होती है।

शिक्षकों की राजनीति के अपने दांवपेच होते हैं और चाहे-अनचाहे विद्यार्थी देखकर सीखते हैं कि किन बातों को मुद्दा बनाया जा सकता है। इस प्रक्रिया में कालेज प्रशासन से अध्यापकों की लड़ाई कई बार राजनीतिक लड़ाई में बदल जाती है और असली मुद्दे पृष्ठभूमि में चले जाते हैं। ऐसा किसी एक पक्ष में नहीं होता है। सभी पक्ष किसी न किसी रूप में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए ऐसे वादे कर जाते हैं, जिन्हें खयाली पुलाव कहा जा सकता है। हालांकि सभी इसी समाज और समाज व्यवस्था का अंग हैं।

राजनीति में स्वार्थपूर्ति के लिए दोषारोपण, अतिश्योक्ति और चरित्र हनन एक सार्वजनिक तथ्य बन गए हैं। पर समस्या यह है कि राजनीति का ककहरा सीखने वाले विद्यार्थी इन शिक्षक संघों के चुनाव से सीधे-सीधे सीखते हैं। इस प्रकार शिक्षक संघ के चुनाव में फैलता जाल छात्र संघों को भी अपनी गिरफ्त में ले लेता है।

इसका सीधा असर विद्यार्थियों की उपस्थिति और पढ़ाई पर पड़ता है। जो शिक्षक महीने भर शिक्षक संघ के चुनाव में अपनी व्यस्तता की वजह से कक्षाओं से अनुपस्थित रहते हैं, वे विद्यार्थियों को चुनाव छोड़कर कक्षा में उपस्थित रहने की हिदायत कैसे दे सकते हैं। जैसे शिक्षकों की उनके चुनाव से उपस्थिति प्रभावित होती है, वैसे ही छात्र संघों के चुनाव में बच्चे कक्षाओं से बाहर प्रचार-प्रसार में लिप्त रहते हैं। यों चुनाव व्यवस्था शुरू की गई थी विद्यार्थियों में लोकतंत्र के संस्कार डालने के लिए, लेकिन पैसे और राजनीतिक प्रभाव ने छात्र संघों की चुनाव प्रक्रिया को काफी प्रभावित कर दिया है।

यह जगजाहिर हकीकत है कि कई बार विद्यार्थियों के चुनावी प्रदर्शन के कारण कालेज में प्रवेश करना भी मुश्किल हो जाता है और वे सभी विद्यार्थी एवं शिक्षक, जो इससे सीधे तौर पर न भी जुड़े हों, वे भी इससे प्रभावित होते हैं। चुनावी शोर-शराबे और गहमा-गहमी में कभी-कभी विद्यार्थी समूह आपस में भिड़ जाते हैं और पुलिस को हस्तक्षेप करना पड़ता है। कभी-कभी तो विद्यार्थी अपने मत से अलग मत रखने वाले शिक्षकों को निशाना बनाने से नहीं चूकते हैं। चुनाव आयोजित करना कालेज प्रशासन के लिए एक बड़ा मुद्दा रहता है।

इस प्रक्रिया में महाविद्यालयों और विश्वविद्यालय की शिक्षा-दीक्षा कभी शिक्षकों के चुनाव की वजह से तो कभी विद्यार्थियों के चुनाव की वजह से प्रभावित होती रहती है। हालांकि लिंगदोह समिति ने छात्र संघों के चुनाव के नियमन के लिए कई यथोचित सुझाव दिए थे और उनकी सिफारिशें सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्वीकृत होने के बाद सरकारी आदेशों द्वारा लागू भी की गई, लेकिन राजनीतिक यथार्थ के धरातल पर अभी भी बहुत पारदर्शिता की आवश्यकता है। खासतौर पर चुनावों के कारण एक से दो माह के शैक्षिक वातावरण पर पड़ने वाले प्रभाव को देखते हुए इसकी जरूरत ज्यादा महसूस होती है। एक वर्ष में एक से दो महीने का समय कम नहीं होता।

आज जब रोजगार की चुनौतियां दिनोंदिन बढ़ती जा रही हैं, केवल राजनीतिक नारेबाजी से युवाओं को रोजगार नहीं मिलने वाला। इनकी पढ़ाई शिक्षकों के लिए भी सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए और विद्यार्थियों को स्वयं भी इस विषय में थोड़ा संयम रखना चाहिए। उन्हें इस बात के लिए शिक्षित करने की जवाबदेही भी शिक्षकों की ही है। अगर शिक्षक संघों के चुनाव के मोहरे के तौर पर विद्यार्थियों का उपयोग होगा या शिक्षक अपने आचरण से छात्रों में संस्कार नहीं जगा सके तो सिर्फ गिरावट का रोना रोने से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है।

कुल मिलाकर छात्र संघों के चुनाव, जो छात्रों में राजनीतिक और लोकतांत्रिक संस्कार भरने का उद्देश्य लेकर शुरू हुए थे, उनके सकारात्मक पहलुओं पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। हमारे मौलिक अधिकार और कर्तव्यों में जिस प्रकार संतुलन की अपेक्षा की जाती है, इसी प्रकार विद्यार्थियों के हित-अहित के व्यापक संदर्भ में चुनावों के नियमन की भी आवश्यकता है। इस संबंध में विश्वविद्यालय प्रशासन, महाविद्यालय और शिक्षक संघ तीन ऐसे महत्त्वपूर्ण पक्ष हैं, जो एक दूसरे के पूरक हैं।

छात्र संघों के चुनाव में किस प्रकार ऐसे सुधार लाए जाएं कि छात्रों में लोकतांत्रिक संस्कार भी बने और उनकी पढ़ाई-लिखाई का भी नुकसान न हो, इस पर गहन विचार की आवश्यकता है। अन्यथा अगर पहली सीढ़ी पर ही हिंसा और धन की राजनीति कार्य करने लगी तो न केवल छात्र राजनीति, बल्कि देश की राजनीतिक व्यवस्था पर भी इसके दूरगामी प्रभाव होंगे।