भारतीय अर्थव्यवस्था अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की नाहक जिद से भरी शुल्क दरों से लगातार संघर्ष कर रही है। कभी ऐसा लगता है कि इस उठापटक के दौर में भारत एक मुकाम पर पहुंच जाएगा तो अगले पल ही फिर एक अंदेशा सामने खड़ा हो जाता है कि अभी भारतीय अर्थव्यवस्था इतनी सक्षम नहीं है। आखिर यह दौर और कितना लंबा चलेगा? यह प्रश्न अब बहुत व्यथित कर रहा है। राष्ट्रपति ट्रंप की ओर से लगातार बढ़ाए जा रहे दबाव के संबंध में भी भारत क्यों बहुत अधिक मुखर होकर इसका जवाब नहीं दे पा रहा है, यह भी एक ऐसा प्रश्न है जो लगातार खड़ा है। इस संदर्भ में यह बात भी कुछ हद तक मायने रखती है कि भारत को एक बेहतर कूटनीति के माध्यम से ही अमेरिका के राष्ट्रपति के अविवेकपूर्ण व्यवहार के सामने आगे बढ़ना होगा और अपने लिए एक बेहतर रास्ता बनाना होगा। हालांकि दोनों राष्ट्रों के बीच व्यापारिक लेनदेन में भारत लंबे अरसे से फायदे में है।
नियंत्रण का औजार
अमेरिका के साथ पारस्परिक मुनाफा ही राष्ट्रपति ट्रंप के अनुसार शुल्क की अत्यधिक दरों का एक मुख्य कारण है। पिछले दो-तीन वर्षों से भारत रूस से कच्चा तेल खरीद रहा है और ट्रंप अब उस खरीदारी को रोकने के लिए भारत पर पच्चीस फीसद की एक अतिरिक्त दर और जुर्माना भी लगा रहे हैं। कहने को ट्रंप रूस को नियंत्रण में करना चाहते हैं, पर इससे प्रत्यक्ष रूप से बहुत अधिक घाटा भारतीय अर्थव्यवस्था को हो रहा है। और तो और, ट्रंप पिछले कुछ समय से भारत सरकार पर मनोवैज्ञानिक दबाव भी कई सार्वजनिक मंचों से बना रहे हैं कि भारत, रूस से आने वाले समय में कच्चा तेल नहीं खरीदेगा। इस पर भी भारत की चुप्पी एक कूटनीतिक पक्ष है या किसी और दबाव के तहत, यह समझ से बाहर है। शायद वैश्वीकरण के दौर की यह एक ऐसी कड़वी सच्चाई है, जिसमें एक मुल्क अपने मुनाफे को लेकर प्रत्यक्ष तौर पर अपना बचाव नहीं कर सकता, क्योंकि उसके लिए सभी के साथ एक समूह में रहना आवश्यक है।
भारत सरकार ट्रंप की शुल्क नीति की वजह से कई तरह के कदम उठा रही है, लेकिन वे सभी कदम वर्तमान में सतही स्तर पर ही उतरते दिख रहे हैं और यह अभी काल के गर्त में है कि उनके दूरगामी परिणाम कैसे भारतीय अर्थव्यवस्था को एक सहारा दे पाएंगे। मसलन, वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी की दरों में दिवाली के पहले की गई कमी प्रत्यक्ष तौर पर संदेश देती है कि इससे सभी प्रकार की वस्तुओं के विक्रय मूल्य में कमी शुरू हो गई है, जिससे आखिर में घरेलू बाजार में महंगाई भी नियंत्रण में रहेगी। मगर इस तस्वीर का दूसरा पक्ष यह भी है कि जीएसटी की दरों में कटौती ने घरेलू बाजार में भारतीय कंपनियों के विभिन्न उत्पादों की मांग को बढ़ाने में योगदान दिया है, ताकि भारतीय कंपनियों, उद्योगों और व्यापार में एक सकारात्मक माहौल बना रहे। दिवाली की वजह से बीते 20-25 दिनों के दौरान इसी तरह का माहौल देखने को मिला।
घरेलू बाजार का सहारा
एक रपट के आंकड़ों के मुताबिक इस दिवाली पर भारतीय घरेलू बाजार में कुल छह ट्रिलियन रुपए के बराबर की खरीदारी हुई है, जो पिछली दिवाली की खरीदारी से करीब चालीस फीसद अधिक है। इस खरीदारी में विभिन्न प्रकार के उत्पादों का विक्रय करीब 5.40 ट्रिलियन रुपए के बराबर था और वहीं विभिन्न प्रकार की सेवाओं की खरीदारी का योगदान करीब 65,000 करोड़ था। इन आंकड़ों से इस बात की तो पुष्टि होती है कि सरकार ने जीएसटी की दरों में कमी करके राजस्व में कमी की, पर इसके माध्यम से देश के घरेलू बाजार में बहुत अधिक बढ़ोतरी देखी गई, जिसका लाभांश आने वाले समय में पूरे भारतीय समाज को मिलेगा। यकीनन वैश्विक स्तर पर अमेरिकी शुल्क बढ़ोतरी की वजह से निर्यात में होने वाले घाटे को घरेलू बाजार में अधिक मांग से पूरा करने की एक पहल भारत की एक कूटनीतिक सफलता के रूप में देखी जा सकती है।
तेल और राजनीति
हालांकि यह सब पर्याप्त नहीं है। भारत को रूस से कच्चा तेल खरीदने के संबंध में अमेरिका के सामने या तो मुखर होकर आना पड़ेगा या वास्तव में अमेरिका के साथ एक ऐसी सहमति बनानी होगी, जिससे अमेरिका को भी कुछ मुनाफा हो और भारत रूस से अपनी खरीदारी को बनाए रखे। भारत पहले खाड़ी देशों से बहुत बड़ी मात्रा में कच्चा तेल खरीदा करता था, लेकिन रूस और यूक्रेन युद्ध के चलते वर्ष 2022 में जब अमेरिका व अन्य देशों ने रूस पर प्रतिबंध लगाए, तो रूस ने उस समय कच्चे तेल के मूल्य में भारी गिरावट करके भारत को अपनी तरफ आकर्षित किया। उस समय भारत कोरोना की आर्थिक चोट से उबर रहा था और भारत के पास इससे बेहतर विकल्प नहीं था। इस संबंध में अगर भारत और रूस के वैश्विक लेने-देन को अगर देखा जाए तो वर्ष 2021-22 तक यह मात्र तेरह बिलियन अमेरिकन डालर के आसपास थे, लेकिन 2022-23 से रूस से कच्चा तेल खरीदने के बाद से भारत और रूस का आपसी लेन-देन अब पचास बिलियन डालर का हो गया।
भारत की पिछले दो-तीन वर्षों में रूस से कच्चे तेल की ताबड़तोड़ खरीदारी के चलते ही आज चीन के बाद भारत रूस का दूसरा सबसे बड़ा कच्चे तेल का आयातक मुल्क बन गया है। शायद इसी वजह से भारत अमेरिका की नजरों में चुभ रहा है। ऐसे में भारत को दोनों तरफ से घाटा होना स्वाभाविक है, क्योंकि अगर भारत रूस से कच्चे तेल का कम आयात करता है, तो वह अमेरिका के शुल्क से तो बच जाएगा, लेकिन अमेरिका से मिलने वाला कच्चा तेल रूस से मिलने वाले तेल के बजाय महंगा होगा। फिर भारत की कुछ निजी कंपनियां बड़ी तादाद में रूस से कच्चा तेल खरीद रही हैं। भारत अगर चाहे तो निजी कंपनियों के कच्चे तेल की खरीदारी पर रोक लगाने का एक कदम उठाकर अमेरिका और रूस के बीच एक सामंजस्य स्थापित करने की कूटनीति चल सकता है।
विकल्प की राह
भारत के सामने एक अन्य बाधा चीन है। चीन के साथ भारत की आत्मीयता कभी नहीं रही और इसी कारण वर्तमान वैश्विक स्थिति में जब चीन भारत के लिए एक बेहतर विकल्प हो सकता है, तब भी रिश्तों में बहुत ठंडापन है। वर्तमान समय में चीन के साथ व्यापारिक लेनदेन में भारत सौ बिलियन डालर से भी अधिक के घाटे में पहले से ही है। इसके अलावा, तकरीबन सभी तरह के कच्चे माल का चीन से आयात होना भी भारत के लिए एक मजबूरी है। इसीलिए इस संबंध में ये अभी लगभग असंभव प्रतीत होता है कि चीन और भारत नजदीक आकर ट्रंप की अव्यावहारिक शुल्क नीतियों का मिलकर मुकाबला कर सकेंगे।
