वर्ष भर में यही वे दिन हैं, जब हम घर का कोना-कोना साफ करते हैं और चाहते हैं कि दिवाली आने के साथ ही हमारा घर रोशनी से नहा उठे। कहीं अंधेरे का नामोनिशान न रहे। घर से लेकर हमारे कामकाज की जगह फूलों की सुगंध से सुवासित हो। हमारा घर सबसे सुंदर, सबसे ज्यादा साफ-सुथरा हो। आस-पड़ोस और घर, कहीं पर भी थोड़ी-सी भी गंदगी न रहे। इसके लिए सभी लोग अपने घर, गाड़ी, कार्यस्थल की साफ-सफाई में तन-मन से जुट जाते हैं। उसे धो-पोंछ कर चमकाते हैं। दीवारों की रंगाई-पुताई, घरों में नए गुलदान और गुलदस्ते, फूल मालाओं से सजावट इस सफाई अभियान का हिस्सा होते हैं। इसी दौरान पुराने बिना काम के सामान भी घर से विदा किए जाते हैं। उनकी जगह पर नए सामान घर में लाया जाता है, ताकि हमारा घर सुंदर और नया दिखे।

इसके पीछे भावना तो यही होती है कि दिवाली के मौके पर हमारी आस्था प्रकट रूप से दिखे और इसके पीछे के उद्देश्य पूरे हों। मगर इसके साथ ही इसे साफ-सफाई के दर्शन से जोड़ कर भी देखा जा सकता है। इस मौके पर हमारा मन कई तरह के बोझ अपने ऊपर से उतारता है तो नए के स्वागत के लिए खुद को तैयार भी करता है। हालांकि दिवाली का ध्येय सिर्फ इतना नहीं है कि हमने अपने घर को जगमग कर लिया और मिष्ठान खाकर अपनों को उपहार देकर बस इस त्योहार को मना लिया। सिर्फ बाहर भौतिक दुनिया में साफ-सफाई करना और दिया जलाना काफी नहीं है। हमारी आंतरिक चेतना जहां निवास करती है, उस मन रूपी घर में भी थोड़ी साफ-सफाई, थोड़ी नवीनता, थोड़ा उजास फैलाने के लिए एक दीया जलाना बेहद जरूरी है।

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दरअसल, हमारा मन भी एक मंदिर समान होता है। उसे भी साफ-सुथरा, निर्मल और सुवासित रखना बेहद जरूरी है। उसमें अच्छाई, सच्चाई, करुणा, दया, प्रेम, क्षमा, निर्मलता के रूप में अमूल्य वस्तुएं भी रखने के योग्य होती हैं। जो लोग ऐसी वस्तुएं अपने हृदय में रखते हैं, उनका लोग हृदय से आदर-सम्मान करते हैं। ऐसे हृदय के आसपास रहने की इच्छा किस भले इंसान की नहीं होगी? लेकिन इसके बावजूद कुछ लोग अपने स्वार्थपरकता के वशीभूत होकर अपने मन मंदिर में बुराई, लोभ, घृणा, काम-क्रोध, कलुषित विचारों को स्थान दे देते हैं और उसे विद्रूप और कुरूप बना देते हैं। इसलिए बाहरी सफाई के साथ-साथ आंतरिक सफाई भी बहुत जरूरी है, ताकि अंदर बाहर सब जगह स्वच्छता और निर्मलता बनी रहे।

अगर मन के कलुष की सफाई न हो, तो दुनिया भर के बाहरी सफाई का कोई बहुत ज्यादा अर्थ नहीं रह जाता है। बाहर चाहे जितनी भी रोशनी के लिए दीये जला लिए जाएं, भीतर घने अंधेरे का ही वास होगा। ऐसे में दिवाली का क्या ही औचित्य रह जाता है? अगर हमने कूड़ा-कर्कट, बेकार की वस्तुएं अपने भीतर जमा कर रखी हैं, तो भले ही ये लोगों को नहीं दिखाई दे, लेकिन जब भी हम अपने भीतर झांकेंगे तो हमें कूड़ा-कर्कट और गंदगी के ही दर्शन होंगे। झाड़ू, पानी, पेंट से बाहरी चीजें चमक सकती हैं, लेकिन अगर मन को चमकाना है तो भीतर की गंदगी, ईर्ष्या, क्रोध, कटुता, स्वार्थ, निर्दयता, लोभ जैसी गंदगी को साफ करना पड़ेगा।

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अन्यथा हमारे जीवन को यह नकारात्मकता से भर देंगे। इसलिए अपने भीतर की नकारात्मकता, बुराइयों को पहचानने और लोगों को पीड़ा पहुंचाना छोड़कर उनके मन पर मरहम लगाने का प्रयास करने की जरूरत है। लोगों से दुश्मनी रखना, ईर्ष्या करना, किसी का अहित चाहना, क्लेश करना, अपने काम के प्रति ईमानदार नहीं होना, किसी का काम बिगाड़ना- ये सब हमारे मन की गंदगी है। अगर ये सब हमारे भीतर भरी हुई हैं, तो चाहे हम बाहर कितना भी रोशनी की लड़ियां लगा लें, उजाला फैला लें, लेकिन यह मन के भीतर का कपट हमारे भीतर उजास नहीं भर सकेगा।

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अक्सर देखने में आता है कि जो व्यक्ति कठोर, निर्दयी, क्रोधी, लोभी स्वभाव वाला होता है, वह परेशान और अनेक चिताओं से घिरा रहता है। दरअसल, बुराई कहीं पर भी हो किसी को खुशी नहीं दे सकती। और जब यह खुद अपने भीतर है तो मनुष्य को भीतर से उल्लास कैसे दे सकती है। वहीं एक निष्कपट, निष्पाप और सरल-सहज, करुणा, दया, क्षमा से भरा हुआ व्यक्ति का चेहरा शांत और तेज से भरा हुआ होता है, क्योंकि उसके अंदर सिर्फ सकारात्मकता और अच्छाइयां भरी होती हैं। यह ओज और तेज उसके भीतर जल रही अच्छाइयों के दीपक की लौ होती है। अगर हम लोगों से प्रतिद्वंद्विता या ईर्ष्या पालने के बजाय प्रेम करना सीख लें, शिकायत करने के बजाय अभार जताना सीख लें, किसी को उसकी गलतियों के लिए हृदय से माफ करना सीख लें, तो हमारा तन-मन जीवन सब सुंदर बन जाता है।

असली दिवाली वही होगी कि जैसे हम घर को रोशन करते हैं, वैसे ही अपने मन के भीतर भी दया, प्रेम, करुणा, परोपकार, क्षमा आदि के दीप जलाएं और इनसे अपने अंतर्मन को उजास से भर दें। बाहरी सफाई से सिर्फ घर सुंदर बनता है, लेकिन अगर मन की सफाई हो जाए, तो पूरा जीवन सुंदर बन जाता है। दिवाली का असली ध्येय यही है कि अंधकार पर प्रकाश, बुराई पर अच्छाई, अहंकार पर विनम्रता की जीत हो। इसलिए एक दीया मन से भीतर भी जरूर जलना चाहिए, ताकि वहां भी उजास बना रहे।