आंध्र प्रदेश के श्रीकाकुलम जिले में वेंकटेश्वर स्वामी मंदिर में बीते दिनों भगदड़ में दस श्रद्धालुओं की मृत्यु हो गई और कई लोग घायल हो गए। जैसा कि अब तक होता आया है, सभी बड़े नेताओं और राजनीतिक दलों ने दुर्घटना पर शोक संवेदना जताते हुए इस घटना की जांच कराने की मांग की।

उधर, स्थानीय पुलिस और प्रशासन दुर्घटना की जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ते हुए दिखाई देते रहे। प्रशासन ने मंदिर प्रबंधन द्वारा दर्शन व्यवस्था की पूर्व सूचना न देने से सुरक्षा व्यवस्था न हो पाने की बात कही। मुख्य रूप से दर्शनार्थियों की अनुमान से अधिक भीड़ जुटने, मंदिर का प्रवेश-निकास द्वार एक ही होने और व्यवस्था के लिए लगे अवरोधक गिरने से भगदड़ मचने की बात कही गई। वहीं प्रवेश और निकास द्वार संकरा बताया गया। बहरहाल, यह पहला अवसर नहीं है जब किसी धार्मिक स्थल पर भगदड़ मची हो और श्रद्धालुओं की जान गई हो। ऐसी दुर्घटनाओं का सिलसिला बरसों से जारी है।

हाल के वर्षों में कई दुर्घटनाएं हुईं, जिनमें सैकड़ों श्रद्धालुओं की मौत हो गई। इसी वर्ष उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, गोवा, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक और मध्यप्रदेश के विभिन्न शहरों में हुए आयोजनों में ऐसी लगभग एक दर्जन दुर्घटनाएं हो चुकी हैं। अकेले आंध्रप्रदेश में ही धार्मिक स्थलों पर भगदड़ की इस वर्ष यह तीसरी दुर्घटना है। मगर इन दुर्घटनाओं से कोई सबक लिया गया हो, ऐसा दिखाई नहीं पड़ता।

आए दिन पर्व-त्योहारों पर श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती है। इसी के साथ कई छोटे-बड़े धार्मिक आयोजन यथा मेले, कथा-सत्संग और प्रवचन कहीं न कहीं होते रहते हैं, जिनमें बड़ी संख्या में श्रद्धालु उमड़ते हैं। धार्मिक आयोजनों से इतर कई सामाजिक, सांस्कृतिक और संगीत आयोजनों के साथ राजनीतिक सभाएं-रैलियां भी होती हैं, जिनमें खासी भीड़ जुटती है। इन अवसरों पर भीड़ नियंत्रण और प्रबंधन, स्थानीय प्रशासन एवं सरकारों के लिए बड़ी चुनौती होती है।

आयोजन सफलतापूर्वक संपन्न हो जाए तो ठीक, नहीं तो किसी भी प्रकार की दुर्घटना होने पर लीपापोती करने में स्थानीय प्रशासन की पूरी मशीनरी जुट जाती हैं। राजनीतिक पार्टियां दुर्घटना पर शोक व्यक्त कर और सरकारें जांच कमेटी या आयोग का गठन कर अथवा मुआवजे का मरहम लगा कर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेती हैं। बाद में समय के साथ जख्म भरते जाते हैं। दुर्घटना को लगभग भुला दिया जाता है, जब तक कि कोई नई दुर्घटना न हो जाए। इन दुर्घटनाओं से कोई सबक नहीं लेता।

प्राय: देखा जाता है कि समुचित सुरक्षा-व्यवस्था न होने अथवा कुप्रबंधन के कारण भगदड़ मचती है। कई बार आयोजनों से जुड़े प्रबंधन और प्रशासन की घोर लापरवाही या अनदेखी भी इसके लिए जिम्मेदार होती है। अधिकांश बड़े आयोजनों या राजनीतिक रैलियों के दौरान यह देखने में आता है कि आयोजकों का पूरा ध्यान अपनी शक्ति, सामर्थ्य अथवा लोकप्रियता के प्रदर्शन पर रहता है। व्यवस्था और जन सुरक्षा को हाशिये पर डाल दिया जाता है।

दुर्घटना से बचने के कोई प्रबंध नहीं किए जाते। ऐसे अवसरों पर किसी भी प्रकार की दुर्घटना से बचने के लिए नियम और कानून के तहत आयोजकों की जिम्मेदारी तय की जानी चाहिए। किसी भी आयोजन की अनुमति तभी दी जानी चाहिए, जब आयोजक सुरक्षा-व्यवस्था की संतोषजनक कार्ययोजना प्रस्तुत करें। आयोजकों के प्रबंधन कौशल का भी आकलन किया जाना चाहिए।

वैसे भारत में भीड़ नियंत्रण और प्रबंधन को लेकर ठोस नीति या कार्ययोजना का सदैव अभाव रहा है। यही कारण है कि अत्यधिक भीड़ जब-तब भगदड़ या अन्य प्रकार की दुर्घटनाओं की वजह बनती है। अनुमान से अधिक आई भीड़ को प्राय: दुर्घटना का कारण बताया जाता है, लेकिन वर्तमान तकनीकी दौर में संभावित भीड़ का अनुमान लगाना कोई बहुत मुश्किल नहीं रह गया है। सीसीटीवी कैमरों और ड्रोन की सहायता से भीड़ पर आसानी से नजर रखी जा सकती है।

आयोजन स्थल पर अत्यधिक भीड़ होने पर पर उपग्रहों से जन सघनता की जांच करने वाले ‘ट्रेकिंग साफ्टवेयर’ को जोड़ कर और निगरानी कर ऐसी दुर्घटनाओं को रोका जा सकता है। हर भीड़ अव्यवस्था या भगदड़ जैसी दुर्घटनाओं में बदल सकती है। लिहाजा यह मान कर ही किसी भी भीड़ वाले आयोजन को ध्यान में रखते हुए सुरक्षा-व्यवस्था तय की जानी चाहिए। किसी भी आयोजन स्थल पर अत्यधिक भीड़ बढ़ने की संभावना पर उसके सीधे प्रसारण का कई स्थानों पर प्रबंध कर भीड़ को एक ही जगह जमा होने से रोका जा सकता है। यह सबसे सुरक्षित तरीका है।

पर्व-त्योहारों पर आम तौर पर दर्शन-पूजा के लिए भीड़ उमड़ती है। इन अवसरों पर कथा-सत्संग और प्रवचनों के छोटे-बड़े आयोजन भी होते रहते हैं। इस तरह के अवसरों पर श्रद्धालुओं में पहले दर्शन और प्रसाद पाने की होड़ अथवा आगे बढ़ने या बैठने की आपाधापी सामान्य बात होती है। ऐसी स्थिति में दुर्घटना से बचाव के लिए सुरक्षा-व्यवस्था की पहले से कार्ययोजना तैयार की जाना चाहिए और आयोजन स्थल पर पर्याप्त अवरोधक लगाने के साथ पुलिस बल के अलावा मंदिर प्रबंधन या आयोजन से जुड़े कार्यकर्ताओं को भी सुरक्षा-व्यवस्था में तैनात किया जाना चाहिए।

फिसलन भरी जगह या संकरे मार्ग भी दुर्घटना की वजह बनते हैं। प्राय: ऐसा भी देखा जाता है कि आयोजन स्थलों पर विद्युत व्यवस्था के तार बेतरतीब तरीके से लगे होते हैं या लटके होते हैं। ऐसे में वहां करंट लगने या फैलने का खतरा बन जाता है। ऐसे में भगदड़ की स्थिति बन जाती है और श्रद्धालु अपनी जान गंवा देते हैं। तेज हवा या बारिश के समय ऐसी दुर्घटनाएं अधिक होती हैं।

सुरक्षा-व्यवस्था की समीक्षा करते समय ऐसी त्रासदी रोकने की तरफ भी विशेष ध्यान होना चाहिए। अत्यधिक भीड़ की स्थिति में आयोजन स्थलों पर प्रवेश व निर्गम द्वार की व्यवस्था अनिवार्य हो। वहां पेयजल, चिकित्सा व जनसुविधा परिसर की व्यवस्था भी अनिवार्य रूप से होनी चाहिए। इन स्थानों पर आग की स्थिति से निपटने के लिए दमकल सेवाओं के साथ एंबुलेंस की व्यवस्था भी महत्त्वपूर्ण होती है।

ऐसे में कोई दुर्घटना होने पर बड़ी जनहानि से बचा जा सकता है। कई बार छोटी-मोटी घटनाएं भी अफवाहों या भ्रामक सूचनाओं के फैलने से बड़ी दुर्घटना में बदल जाती हैं। कहीं आग लगने या करंट फैलने की अफवाहों के कारण भी बड़ी दुर्घटनाएं हुई हैं। अधिक भीड़ जुटने वाले अवसरों और इन स्थलों पर नियंत्रण के लिए सूचना तंत्र या नियंत्रण कक्ष की व्यवस्था अवश्य होनी चाहिए, ताकि समय रहते लोगों को सचेत किया जा सके।

अफवाहों पर नियंत्रण कर बड़ी दुर्घटनाओं रोका जा सकता है। ऐसा भी नहीं है कि किसी स्थल या आयोजन में जुटने वाली भीड़ की संख्या का पूर्वानुमान या आकलन सदैव सही साबित हो। भीड़ अनुमान से अधिक भी हो सकती है। मगर सबसे जरूरी है लोगों में अनुशासन, सावधानी और सचेतनता। ऐसा हो, तो भगदड़ पर काफी हद तक काबू पाया जा सकता है। मगर आखिर में यही सवाल है कि हम इन हादसों से कब सबक लेंगे?