मनुष्य मूल रूप से सामाजिक प्राणी है। वह अकेला रहकर नहीं, संबंधों में रहकर जीवन को सार्थक बनाता है। संवाद, अपनापन और सहयोग उसकी आत्मा की मूल आवश्यकताएं हैं। मगर समय के साथ इस सामाजिकता की परिभाषा बदल गई है। अब मनुष्य संबंधों की गहराई से अधिक संपर्कों की संख्या पर ध्यान देने लगा है। उसे यह भ्रम हो गया है कि जितने अधिक लोग उसके आसपास होंगे, उतना ही बड़ा उसका प्रभाव और अस्तित्व होगा। यहीं से आरंभ होती है उस भीड़ की यात्रा, जो आखिरकार उसे एक गहरे एकाकीपन की ओर ले जाती है।
हम अपने आसपास ही ऐसे तमाम उदाहरण देख सकते हैं, जिसमें किसी के सोशल मीडिया पर हजारों दोस्त होंगे, लेकिन जब वास्तव में जरूरत पड़ती है, तब पास और साथ खड़ा होने वाला एक भी नहीं होता। यह भीड़ में अकेलेपन का वह दंश है, जिसके दर्द का एहसास सच की जमीन पर उतरने के बाद होता है।
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पहले के समय में संबंध सहज और सच्चे होते थे। लोगों के बीच मिलने-जुलने में आत्मीयता होती थी, भावनाएं जीवंत रहती थीं। किसी का दुख सबका दुख होता था, किसी की खुशी में पूरा मोहल्ला शामिल होता था, लेकिन आधुनिक युग में यह परंपरा धीरे-धीरे क्षीण हो गई है। अब हर व्यक्ति ‘नेटवर्किंग’ या संजाल के नाम पर लोगों से जुड़ तो रहा है, पर आत्मीयता और स्नेह के सूत्र कहीं पीछे छूट गए हैं।
आज की पीढ़ी ‘कांटैक्ट लिस्ट’ यानी अपने फोन में ढेर सारे लोगों के नंबरों से भले भरी हो, पर जीवन भीतर से खाली है। लोग मिलते हैं, बातें करते हैं, मुस्कराते हैं, पर भीतर कोई जुड़ाव नहीं होता। रिश्ते कई बार किसी न किसी स्वार्थ के आधार पर खड़े दिखते हैं। यह स्वार्थपूर्ण संबंध अस्थायी होते हैं, जिनकी उम्र किसी अवसर से अधिक नहीं होती। यही कारण है कि व्यक्ति भीड़ में रहकर भी अपने भीतर एक गहरी निस्तब्धता महसूस करता है।
सामूहिक बोध के नाम पर भीड़ इकट्ठा कर उन्माद में झोंकने की राजनीति आजकल छिपी नहीं है। बल्कि इसे थोड़ा गौर से देखें तो व्यक्ति को भीड़ में तब्दील करने की एक तरह की सियासत चल रही है। दिलचस्प यह है कि यह सियासत करने वाला व्यक्ति निजी रूप से भीड़ को सिर्फ तैयार और निर्देशित करता है। यहां तक कि उसमें अपने परिवार और बच्चों को शामिल नहीं होने देता, लेकिन इससे इतर वह सामूहिकता के नाम पर लोगों को भीड़ बनाने के काम पर लगा होता है।
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जबकि भीड़ व्यक्ति को एक झूठा विश्वास देती है कि वह महत्त्वपूर्ण है और किसी दायरे का केंद्र है। पर जब जीवन कठिन मोड़ पर आता है, तो यही भीड़ सबसे पहले गायब हो जाती है। तालियां बजाने वाले बहुत मिलते हैं, पर गिरने पर हाथ थामने वाले शायद ही दो-चार होते हैं। भीड़ की यह क्षणिकता मनुष्य को भीतर तक हिला देती है, क्योंकि तब उसे एहसास होता है कि उसने जिन्हें अपना समझा, वे केवल उपस्थितियां थीं, अपनापन नहीं।
जीवन का सत्य यही है कि मनुष्य की शक्ति उसके संबंधों की गहराई में है, गणना में नहीं। गिने-चुने सच्चे लोग हजार औपचारिक परिचितों से कहीं अधिक मूल्यवान होते हैं। जब संसार से स्नेह की अपेक्षा टूटती है, तब यही कुछ लोग अपने मौन संबल और सहारे से जीवन को अर्थ देते हैं। इन्हीं रिश्तों की सच्चाई समय की कसौटी पर खरा उतरती है।
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कठिनाई यह है कि यह समझ अक्सर बहुत देर से आती है। जब ठोकरें खा ली जाती हैं, जब दिखावटी मित्रता की परतें उतर जाती हैं और सामने रह जाता है केवल सन्नाटा। तब एहसास होता है कि भीड़ जमा करने की लालसा में हमने अपने सच्चे लोगों को खो दिया। यह आत्मबोध पीड़ादायक भी है और शिक्षाप्रद भी।
दार्शनिक दृष्टि से देखें तो यह स्थिति मनुष्य के अहंकार और माया से जुड़ी है। अहंकार उसे अधिक पहचान पाने की आकांक्षा देता है और माया उसे भ्रम में रखती है कि प्रसिद्धि ही संबंधों का पर्याय है। पर सच इससे बिल्कुल उलट है। जो व्यक्ति स्वयं से नहीं जुड़ा, वह दूसरों से सच्चा जुड़ाव कभी नहीं बना सकता।
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जीवन में स्थायी शांति तभी संभव है जब व्यक्ति भीड़ से नहीं, स्वयं से संवाद करना सीख ले। जब वह यह समझ जाए कि दिखावे के रिश्तों की जगह सच्चे, सीमित और स्थायी संबंध अधिक मूल्यवान हैं। वह मनुष्य कभी अकेला नहीं होता, जिसके पास कुछ सच्चे लोग हों, चाहे दुनिया उसके आसपास हो या न हो। यही समझ उसे बाहरी कोलाहल से मुक्त करती है।
भीड़ किसी को एक भ्रम से लैस अस्थायी पहचान दे सकती है, पर सहारा नहीं। लोकप्रियता क्षणिक होती है, पर आत्मीयता स्थायी। इसलिए व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने जीवन में उन रिश्तों को संजोए, जो दिखावे से नहीं, सच्चाई से बने हों। आखिर वही रिश्ते उसके कठिन समय में ढाल बनकर खड़े होते हैं।
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अंत में यही कहा जा सकता है कि मनुष्य का मूल्य उसके आसपास की भीड़ से नहीं, उसकी आत्मीयता से आंका जाना चाहिए। भीड़ के बीच रहकर भी जो व्यक्ति अपने भीतर की शांति को बचाए रखता है, वही सच में जीना जानता है। जीवन का सार यही है—भीड़ से भरे संसार में भी अपने भीतर सच्चाई और संबंधों की ऊष्मा को जीवित रखना। यही एकाकीपन को आत्मसंतोष में बदल देता है, और यही जीवन का सच्चा दर्शन है।
