बांग्लादेश में हिंदुओं पर हिंसा बेरोक-टोक हो रही है। यह माना जाता है कि इस तरह की घटनाओं के पीछे कोई कारण होता है, मगर यह अकारण हो रहा है। इसके पीछे न तो व्यावसायिक, न ही राजनीतिक या किसी अन्य प्रकार की प्रतिद्वंद्विता है। यह कई दशकों से सुनियोजित तरीके से हो रहा है।
तभी तो 1951 में पूर्वी पाकिस्तान, जो अब बांग्लादेश है, वहां हिंदुओं की जनसंख्या बाइस फीसद से घटकर 2022 में छह फीसद से भी कम रह गई है। ढाका यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्र विभाग के प्राध्यापक अब्दुल बरकत ने अपनी पुस्तक ‘रिफार्मिंग एग्रीकल्चर लैंड एंड वाटर बाडीज इन बांग्लादेश’ में बताया है कि वर्ष 1991 से 2001 और 2001 से 2012 के बीच क्रमश: 767 और 774 हिंदू प्रत्येक दिन ‘गायब’ होते रहे हैं।
इसका तात्पर्य है कि इस दौरान पांच लाख से अधिक हिंदू मारे गए या उनका धर्मांतरण हुआ अथवा उन्हें देश की सीमा से बाहर कर दिया गया। पाकिस्तान में तो पहले ही गिने-चुने हिंदू रह गए हैं और अफगानिस्तान में उनका नामोनिशान नहीं बचा है। वर्ष 1909 में कर्नल यूएन मुखर्जी ने अपनी पुस्तक ‘ए डाइंग रेस’ में हिंदू को मृतप्राय नस्ल बनने के आसन्न खतरे की चेतावनी दी थी। तब उसका संदर्भ हिंदुओं और मुसलमानों की प्रजनन दर में अंतर के कारण दोनों के बीच जनसंख्या अनुपात में परिवर्तन था।
मुखर्जी के सामाजिक-आर्थिक विश्लेषण में कई पहलुओं को उजागर किया गया था। उन्होंने हिंदुओं के पढ़े-लिखे, धनाढ्य और कथित उच्च वर्गों में कम पढ़े-लिखे गरीब तथा कथित निम्न सामाजिक-आर्थिक वर्गों के प्रति असंवेदनशीलता और उदासीनता को भी इस गिरावट में एक कारण बताया है।
यह भारत के लिए कुछ हद तक अब भी प्रासंगिक है। मगर अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिंदुओं का मृतप्राय नस्ल बनने का कारण लक्षित सांप्रदायिक हिंसा है। नेहरू-लियाकत समझौता (1950) बहुत हद तक इसके लिए जिम्मेदार है।
इसने अल्पसंख्यकों की जिम्मेदारी उनके अपने-अपने देशों पर छोड़ दी। सांप्रदायिक जुनून के आधार पर बने पाकिस्तान में ‘साझी संस्कृति’ या ‘साझी राष्ट्रीयता’ की कल्पना करना स्वयं को धोखा देना था। वह जुनून वहां अमरबेल की तरह पसरता गया। तभी तो वर्ष 1950 में पाकिस्तान के तत्कालीन कानून मंत्री जोगेंद्रनाथ मंडल हिंदुओं पर अत्याचार से आहत होकर और अपने आपको असमर्थ पाकर मंत्रिमंडल से इस्तीफा देकर भारत आ गए थे।
वर्ष 1971 में बांग्लादेश के निर्माण के बाद उम्मीद जगी थी कि वहां के सामाजिक-राजनीतिक जीवन में हिंदुओं को समान अवसर मिलेगा, मगर ऐसा हुआ नहीं। निहित संपत्ति अधिनियम 1974 के तहत अराजकतापूर्ण तरीके से हिंदुओं की संपत्ति को ‘शत्रु संपत्ति’ घोषित कर दिया गया।
‘बांग्लादेश में हिंदू मर रहे इसलिए नरसंहार बता रहे, भारत में तो…’, ये क्या बोल गए मौलाना रशीदी
साठ फीसद से अधिक हिंदू भूमिहीन हो गए। भेदभाव का असर सभी क्षेत्रों पर होने लगा। ढाका विश्वविद्यालय में तो पचास हजार छात्रों में हिंदुओं की संख्या मात्र दो हजार रह गई है। बांग्लादेश में साझी संस्कृति और जीवन मूल्यों में सांप्रदायिकता से बिखराव तथा परस्पर कटुता पैदा करने का पहला सफल प्रयोग कर्जन ने 1905 में बंगाल विभाजन के जरिए किया। अपना घर संभालकर नहीं रख पाने के कारण यह संभव हो पाया था। इतिहास की इस त्रासद घटना के बावजूद हमने कोई सीख नहीं ली। भारत ने बांग्लादेश के निर्माण में अहम भूमिका तो निभा दी, लेकिन हम भूल गए कि राष्ट्र सिर्फ राजनीतिक मान्यताओं से नहीं बनता है।
संस्कृति उसकी बुनियाद होती है। बांग्लादेश की आधिकारिक भाषा बांग्ला है, जिसे 98 फीसद लोग बोलते हैं। यह बांग्ला भाषा संस्कृति और विरासत की जीवंत वाहक है। अफ्रीकी चिंतक न्गुगी वा थ्योंगो ने भाषा की इसी क्षमता को किसी समुदाय या राष्ट्र के ‘स्व’ के विकास का सबसे महत्त्वपूर्ण कारक माना है। बांग्ला ने अंग्रेजी और उर्दू दोनों के बांग्लादेश में प्रसार को रोक दिया।
वहां साझी संस्कृति का एक आयाम राष्ट्रगान ‘अमार सोनार बांग्ला’ है, जिसे रवींद्रनाथ ठाकुर ने वर्ष 1905 में लिखा था। वहां सरकारी कार्यक्रमों में रवींद्र संगीत का उपयोग होता है।
बांग्लादेश का सबसे पुराना जगन्नाथ विश्वविद्यालय है, जो 1858 में स्कूल के रूप में स्थापित हुआ था। कट्टरपंथियों को मालूम है कि इन सब पर चोट से बांग्लादेश की पहचान मिट जाएगी। इसलिए वे सांस्कृतिक विरासत पर प्रहार करने की बजाय हिंदुओं के अस्तित्व को निशाना बना रहे हैं। बांग्लादेश और पाकिस्तानी राज्यों का सांप्रदायिक आचरण नेहरू-लियाकत समझौते को पूरी तरह से अप्रासंगिक बना देता है।
डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अपना राजनीतिक बलिदान इसी समझौते के विरोध में दिया था। इतिहास ने उनके कदम को सत्य साबित किया है। इसलिए अंतरराष्ट्रीय या क्षेत्रीय स्तर पर बांग्लादेश की स्थिति को बदलने के लिए प्रत्यक्ष कार्रवाई ही तात्कालिक रास्ता है।
मगर इसका एक और आयाम भी है। बांग्लादेश में हिंदू मिशन की अहम भूमिका होती है। यह मिशन बंगाली अस्मिता को बढ़ाने वाला होना चाहिए था। इस सांस्कृतिक कूटनीति से ही इस्लामिक कट्टरपंथियों से सामाजिक वैधानिकता छीनी जा सकती थी। बंगाली रंगकर्मी, साहित्यकार, फिल्मकार, संगीतकार आदि की भूमिका का उपयोग अहम था।
इस पर कभी गंभीर मंथन या प्रयास हुआ ही नहीं। कट्टरपंथियों पर लगाम लगाना तो तात्कालिक आवश्यकता है, मगर बंगाली अस्मिता को समृद्ध करने की योजना को गैर-राजनीतिक एवं गैर सांप्रदायिक तरीके से लागू करना दीर्घकालिक समाधान है।
समय के साथ सोच में संशोधन ही संकल्पित लक्ष्य तक पहुंचता है। बांग्लादेश की राष्ट्रीयता वास्तव में भारत की उपराष्ट्रीयता है। मगर भारत की धर्मनिरपेक्षवादी राजनीति हमारी अपनी संस्कृति और दर्शन का खंडित रूप दुनिया के सामने प्रस्तुत करती है, जो हमारी भूमिका में नैतिक पक्ष को धूमिल कर देता है। अत: चुनौती घर को संवारने की और बाहर अपनी संस्कृति की ताकत दिखाने की है।
