दुनिया का चेहरा आज परत-दर-परत कृत्रिमता से ढका हुआ है। इंसान की मूल पहचान अब चेहरे पर नहीं, बल्कि उसके प्रदर्शन में देखी जाती है। कबीर ने कहा था- ‘सांच बत्तीसों बाजै नहीं, झूठे लागै तूर।’ झूठ का शोर गूंज रहा है और सच चुपचाप दम तोड़ता है। मानव समाज में आत्मीयता का स्थान प्रदर्शन ले चुका है। सोशल मीडिया हो या वास्तविक जीवन- हर ओर ‘मैं कौन हूं’ के बजाय ‘लोग मुझे क्या समझें’ की भावना मुखर है। इसी को देखकर एक शायर ने कहा था कि झूठ को सच का लिबास पहनाकर लोग बाजार में बेच रहे हैं।
आज व्यक्ति अपने सुख-दुख भी कैमरे की फ्लैश और सोशल मीडिया पर लिखी टिप्पणियों को पसंद करने वालों संख्या से प्रमाणित करवाना चाहता है। रिश्ते, भावनाएं और संवेदनाएं- सब इस आडंबरपूर्ण बवंडर में कहीं खो गए हैं। दिखावे की यह प्रवृत्ति हमें एक ऐसे मंच पर खड़ा कर रही है, जहां असली मूल्य खोते जा रहे हैं। वैसे भी कहा जाता है कि एक औंस व्यवहार, एक टन उपदेश से बड़ा है। मगर आज उपदेश देना सहज है और आचरण करना भारी।
लोग स्वयं को नीति-नियमों और नैतिकताओं का प्रबल समर्थक दिखाते हैं, जबकि जीवन के व्यवहार में मात्र स्वार्थ प्रमुख होता है। ‘दिखावे की दुनिया’ वही है, जहां लोग मुस्कुराते चेहरे के भीतर छिपे हुए द्वंद्व को छिपा लेते हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि ‘असत्येन न प्रीतियोग:’, अर्थात असत्य से कभी स्थायी मैत्री संभव नहीं। अगर व्यक्ति पूरी दुनिया को धोखा देकर स्वयं को सफल समझता है, तो यह सफलता मिथ्या है। यह दिखावा जीवन के उस असली स्वरूप को विकृत कर देता है, जहां सादगी और सहजता का मूल्य सर्वोच्च होना चाहिए।
अगर हम समाज का अवलोकन करें तो पाएंगे कि शिक्षा, विवाह, उत्सव, यहां तक कि शोक तक में प्रदर्शन का बोलबाला है। शादी हो तो सोने-चांदी का प्रदर्शन, पर्व हो तो महंगे वस्त्रों का प्रदर्शन और सोशल मीडिया हो तो ‘फालो’ और ‘लाइक’ करने वालों का प्रतिस्पर्धात्मक प्रदर्शन। यही कारण है कि इंसान भीतर से खोखला होता जा रहा है। किसी शायर ने कहा कि तस्वीरें मुस्कुराती हैं, घरों में सन्नाटा है, क्या खूब ये दिखावे का जमाना आया है। इस जमाने में सुख-दुख नहीं, बल्कि उनकी सजावट महत्त्वपूर्ण हो गई है। जैसे जीवन का मूल्य उसके ‘फिल्टर’ और ‘कैप्शन’ से तय होता है। असलियत के दर्द और संघर्ष अब पर्दे के पीछे छिपा दिए जाते हैं।
दिखावे की इस प्रवृत्ति का सबसे बड़ा दुष्प्रभाव यह है कि इंसान अपनी मूल पहचान से कटता जा रहा है। समाज ने इन मूल्यों को त्यागकर कृत्रिम सुंदरता और असत्य की चकाचौंध को स्वीकार कर लिया है। अब लोग चाहते हैं कि उन्हें उनकी अच्छाइयों से नहीं, उनके ठाठ-बाट से आंका जाए। हमारी दुनिया ‘स्वयं’ बनने से बचकर ‘कोई और’ बनने की ओर दौड़ रही है। यही कारण है कि प्रतिस्पर्धा और तुलना ने मनुष्यों में ईर्ष्या, अवसाद और असंतोष को बढ़ा दिया है।
अगर हम ईमानदारी से सोचें, तो दिखावे से न केवल व्यक्ति, बल्कि पूरा समाज क्षतिग्रस्त हो रहा है। रिश्ता भरोसे पर नहीं, दिखावे पर टिकता है। मित्रता सच्चाई पर नहीं, लाभ-हानि पर पनपती है। यही कारण है कि हमारी वास्तविक आत्मीयता धीरे-धीरे नष्ट हो रही है। कबीर ने कहा- ‘माया मरी न मन मरा, मर-मर गया शरीर। आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर।’ यहां माया ही दिखावे का दूसरा नाम है, जो व्यक्ति को निरंतर असंतोष और द्वंद्व में रखती है। आज का समाज भौतिकता की चकाचौंध में खोकर आत्मा के सत्य और शांति से दूर हो रहा है।
आवश्यकता है कि हम इस आडंबर की परतें उतारकर सादगी और सत्य की ओर लौटें। प्रेमचंद ने कहा था- ‘सादगी में ही सबसे बड़ी खूबसूरती है।’ अगर हम अपने जीवन को गंभीर दृष्टि से देखें, तो पाएंगे कि वास्तविक संतोष केवल वहीं है, जहां दिखावा नहीं, बल्कि सच दिल से प्रकट होता है। हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि लोग हमें क्या समझेंगे, बल्कि यह कि हमारे कर्म हमें क्या बना रहे हैं। वैसे भी चेहरे पर हजार पर्दा रख लीजिए, फिर भी दिल का सच दिख ही जाता है। अगर दुनिया सच को दबाकर केवल दिखावे पर टिकी रहे, तो यह सभ्यता बिखर जाएगी। इसलिए आत्मीयता, सत्य और सादगी से ही जीवन और समाज की असल सुंदरता बनी रह सकती है।
दिखावे की इस चमचमाती दुनिया में जब हम गहराई में उतरते हैं, तो सचमुच आत्मा कांप जाती है। यह संसार मानो एक रंगमंच बन चुका है, जहां हर कोई मुखौटा पहनकर अपने किरदार में व्यस्त है। चेहरे पर मुस्कुराहट और भीतर अंधकार- यही आज का सबसे बड़ा विरोधाभास है। लेकिन सवाल उठता है कि कब तक हम इस कृत्रिमता को ढोते रहेंगे? क्या जीवन इतना ही है कि लोग ताली बजा कर हमारी सराहना कर दें और हम भीतर से खोखले हो जाएं?
असल जीवन तो वही है, जहां सादगी की मांसलता और सत्य की सुगंध हो। जब इंसान अपनी आंखों से पर्दा हटाता है और दिल से बोलता है, तभी प्रेम जन्म लेता है, तभी आत्मीयता पनपती है, तभी जीवन सुंदर बनता है। बड़ों ने कहा है- ‘सत्य में ही अमरत्व है, असत्य में केवल क्षणिक चमक।’ सच उनके शब्दों की तरह अमर है, और झूठ की यह रोशनी पल दो पल में बुझ जाती है। एक शायर का यह दर्द इन पंक्तियों में गूंजता है- ‘हकीकत छिप गई है नकाबों के नीचे, हर इंसान अब किरदारों के नीचे।’ समाज तभी बदल सकता है, जब इंसान इस दिखावे की जंजीरों को तोड़कर अपने असली रूप को स्वीकार करे।