अपने भीतर रोगों से बचाव की क्षमता बढ़ाने की चाह कौन नहीं करता? जहां तक भारत का सवाल है, तो यहां देश के कोने-कोने में लोगों को असाध्य रोगों से बचाने के लिए क्षमता विकसित करने के ऐसे प्रयास किए गए कि वह स्वास्थ्य के एक ढांचे के रूप में वास्तविक हितकारी साबित होने के बजाय नेताओं के लिए प्रचार पाने के ही काम आए। फिर भी चिकित्सा के क्षेत्र में हमारा देश किसी से कम नहीं है, लेकिन यह भी तथ्य है कि देश के निर्धन लोगों के लिए बीमार हो जाने पर उनका जीना मुहाल हो जाता है।
सरकार ने केंद्रीय और राज्य स्तर पर बहुत-सी मुफ्त उपचार बीमा योजनाएं भी शुरू कर रखी हैं। वृद्धों को भी उनकी बीमारियों की स्थिति में संरक्षण दिया जा रहा है। वरिष्ठ नागरिक स्वास्थ्य बीमा योजना भी शुरू की जा चुकी है। इससे इतर, पंजाब सरकार ने भी ऐसी चिकित्सा बीमा योजना राज्य के हर परिवार के लिए घोषित कर रखी है। हालांकि देश में जहां वरिष्ठ नागरिकों के लिए योजना के तहत पांच लाख रुपए की राशि तय की गई है, वहीं पंजाब में इसे दस लाख रुपए तक रखा गया है।
जब इस तरह की योजनाएं घोषित होने के बाद लागू होती हैं, तो आम आदमी खुश हो जाता है। उसे लगता है कि निजी क्षेत्र में चलाए जाने वाले बड़े अस्पतालों के भारी-भरकम बिल से उसे छुटकारा मिल जाएगा। वह अपने आप को ऐसा भाग्यवान नागरिक मान सकता है, जिसे कभी कोई रोग लग जाए, तो उसके निदान और उपचार का दायित्व सरकार के ऊपर रहेगा। संबंधित स्वास्थ्य कार्ड दिखाते ही मुफ्त इलाज हो जाएगा। लेकिन जमीनी हकीकत कुछ अलग है।
अब भी सार्वजनिक क्षेत्र में चलने वाले सरकारी अस्पताल या पंजाब में चलाए गए मोहल्ला क्लिनिक बेहतर उपचार का वचन तो देते हैं, लेकिन बहुत बार ऐसे वचन पूरे होते नजर नहीं आते। दरअसल, निजी अस्पतालों का कहना है कि जब वे स्वास्थ्य कार्ड वाले मरीजों का उपचार करते हैं, तो सरकार की ओर से तुरंत भुगतान नहीं किया जाता। इसलिए कई बार निजी अस्पताल मरीजों को दाखिल करने से इनकार कर देते हैं।
कभी तपेदिक यानी टीबी से लोग बहुत डरते थे। इसे जानलेवा समझकर किसी आरोग्य आश्रम में रहने लगते थे। अब यह रोग नियंत्रित हो गया है। बिल्कुल यही हाल डेंगू बुखार का भी हो गया है। कोरोना ने दो साल तक मानव जाति को जिस प्रकार आर्थिक और सामाजिक संकट में डाला, उसे भी कोई भूल नहीं सकता। इस संदर्भ में देखें तो किसी भी नए मौलिक या उपयोगी काम के लिए सबसे बड़ा पुरस्कार नोबेल सम्मान को माना जाता है।
पिछले कुछ वर्षों से जो नोबेल सम्मान घोषित हो रहे हैं, उनमें इस समय मानव जाति के कल्याण को प्रोत्साहित करने वाला चिकित्सा का नोबेल पुरस्कार है। इस बार अमेरिका और जापान के वैज्ञानिकों के नाम ‘मेडिसिन’ के लिए इस सम्मान की घोषणा हुई। उनके नाम हैं मैरी ई ब्रांको, फ्रैड रैंच डेल और शिमोन साकागुची। इन विद्वान वैज्ञानिकों ने न केवल इंसान के ‘इम्यून सिस्टम’ यानी रोग प्रतिरक्षा तंत्र को बढ़ाने के मामले में शोध किया है, बल्कि मनुष्य के अंदर प्रतिरक्षा तंत्र से जूझने वाली शत्रु कोशिकाओं को भी बेअसर किया और बाहर से इंसान के प्रतिरक्षा तंत्र पर कोई हमला न कर दे, इसके लिए ‘मास्टर स्विच’ भी खोजा है।
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इन तीनों वैज्ञानिकों का मुख्य शोध या अध्ययन कैंसर और मधुमेह में रहा और वे इसमें नए शोध को सामने लाने का प्रयास भी कर रहे हैं। इस युगांतकारी विश्लेषण को आसान शब्दों में समझने के लिए हम कह सकते हैं कि खास तरह की कोशिका प्रतिरक्षा तंत्र को इंसानी शरीर को अपने अंदर तलाश करना होता है और अगर गलती से कोई कोशिका इस तंत्र की ताकत को समझ न पाने के कारण उस पर हमला कर दे, तो वे उसे रोक सकते हैं। यानी ये खोज बताती है कि हमारे शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र और उसकी प्रतिक्रिया कैसे नियंत्रित होती है। साथ ही, कहां यह प्रणाली गड़बड़ हो जाती है और अपने मूल प्रतिरक्षा तंत्र तक कैसे पहुंचा जा सकता है।
यानी यह इलाज का एक नया तरीका है। इसे एक क्रांतिकारी बदलाव भी कह सकते हैं। यह रोग प्रतिरक्षा प्रणाली हमारे शरीर में हजारों किस्म के जीवाणुओं को घुसने से रोकती है। ये जीवाणु मानव कोशिकाओं जैसे होते हैं और यह समझना मुश्किल हो जाता है कि शरीर में हजारों कोशिकाओं में से कौन शरीर का बचाव करेगा और कौन शरीर का दुश्मन बन जाएगा। यों यह प्रतिरक्षा तंत्र को बड़ी सुरक्षा है, जो बाहर से आने वाले रोगों, विषाणु या जीवाणु को रोकता है, मारता है। लेकिन गड़बड़ यह है कि कई बार ये ‘सुरक्षा सेना’ अपने ही शरीर के छिपे विषाणुओं को पहचान नहीं पाती।
अब पुरस्कार प्राप्त तीनों वैज्ञानिकों की भूमिका पर गौर किया जाए, तो सन् 1995 में शिमोन साकागुची ने शरीर में मौजूद ‘शांति रक्षक सैनिक’ यानी सुरक्षा कोशिकाओं की तलाश की। इन कोशिकाओं का ताल्लुक लड़ाई शुरू करना नहीं, बल्कि अन्य हमलावर कोशिकाओं को रोकना है।
यह भी देखना है कि ये कोशिकाएं रास्ता भटककर अपने ही शरीर की हानि न पहुंचा दें। यह एक स्थापित ज्ञान को चुनौती थी, क्योंकि प्राय: उपचार विशेषज्ञ यह समझते थे कि जो प्रतिरक्षा तंत्र हमारे शरीर में है, वह हमेशा लाभदायक होता है और उससे संक्रमण का कोई डर नहीं है, बल्कि यह बाहर से होने वाले संक्रमण से बचाता है। इसका अर्थ यह है कि इन तीनों वैज्ञानिकों ने और विशेषकर शिमोन साकागुची ने यह बताया कि हर शरीर में एक सहन करने वाली ताकत भी बन जाती है। यह केंद्रीय सहन करने वाली ताकत है।
यह खोज बहुत समय से हो रही थी। वर्ष 2001 में इसके लिए एक ‘मास्टर कवच’ खोजा गया, जिसने पाया कि प्रतिरक्षा प्रणाली अगर बेकाबू हो जाए तो अपने ही शरीर को नुकसान पहुंचाने लगती है। अगर यह अनियंत्रित रहे तो इंसानी शरीर में ‘आइपैक्स सिंड्रोम’ भी पैदा हो सकता है। इन तीनों वैज्ञानिकों का शोध बहुत मूल्यवान है, क्योंकि इसके जरिए बड़ी तेजी से बीमारियों की जड़ तक पहुंचा जा सकता है और इलाज के नए तरीके भी विकसित किए जा सकते हैं।
इस समय इन ‘टी सेल’ के दो सौ चिकित्सीय परीक्षण चल रहे हैं। इसके निष्कर्ष आने में अभी वक्त है, लेकिन ये परीक्षण निश्चित रूप से इस प्रतिरक्षा प्रणाली की उपादेयता के हक में होंगे। मगर कैंसर की कोशिकाएं जैसी कुछ असाध्य बीमारियां, जो आजकल आदमी को मौत का संदेश लगती हैं, उन्हें ‘रेगुलेटरी टी सेल’ पहचानने और खत्म करने में भूमिका निभा सकते हैं। एक और बड़ी चुनौती तब आती है, जब अंग प्रत्यारोपण करना पड़ता है। जैसे घुटनों को बदलना या गुर्दा और यकृत के दानकर्ताओं से दान लेकर रोगी व्यक्ति को लगाना।
चिंता की बात यह है कि प्रत्यारोपित गुर्दा या यकृत कई बार नए शरीर को स्वीकारने से इनकार कर देता है। अब अगला कदम इन चिकित्सा विशेषज्ञों का यह है कि अगर ऐसे अंगों का प्रत्यारोपण होता है, तो वह शरीर के साथ पूरी तरह सहज हो जाए। इस तरह, खून या अंगों के न मिलने को विज्ञान की यह प्रगति सहज और सुलभ बना सकती है।