सत्यभक्त कौन थे? यह प्रश्न सिर्फ एक व्यक्ति की पहचान से जुड़ा नहीं होकर भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन के चरित्र और प्रकृति को भी दिखाता है। भारत में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना का विचार सबसे पहले उनके मन में आया और कानपुर में 1925 में इसकी स्थापना हुई। उसी वर्ष उन्होंने चार पृष्ठों का दस्तावेज जारी किया, जिसे सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया। वे पार्टी की नींव रखने वाले थे। पर कम्युनिस्ट इतिहास में उनका नाम कहीं नहीं है, बल्कि वे निंदा के पात्र हैं। ऐसा क्यों हुआ?
सत्यभक्त समानता के समर्थक और संघर्ष के सारथी थे। उनका जन्म राजस्थान में हुआ, पर उनकी कर्मभूमि कानपुर थी। वे मजदूर आंदोलन से जुड़े थे। सबसे महत्त्वपूर्ण बात थी कि उनकी वाणी और व्यवहार में दोहरापन नहीं था। उन्होंने दलित महिला से विवाह कर सामाजिक प्रताड़ना झेली थी, पर अपना आत्मविश्वास टूटने नहीं दिया।
जिस वक्त वे कानपुर में कम्युनिस्ट पार्टी की नींव रख रहे थे, भारत में सोवियत समर्थकों की एक ‘फौज’ विकसित हो रही थी। उनमें सभी धनाढ्य परिवारों के प्राय: विदेशी संस्थाओं से शिक्षित लोग थे। सत्यभक्त का स्वदेशी मिजाज और अंदाज था। समानता की लड़ाई देशकाल और परिस्थिति के अनुसार लड़ी जाती है। पर सोवियत भक्तों को सत्यभक्त का मिजाज और अंदाज नापसंद था। उन्हें पार्टी से बेदखल कर दिया गया। वे अनाम हो गए। 1974 में समाजवादी हरदेव शर्मा ने, जो नेहरू मेमोरियल म्यूजियम और लाइब्रेरी (अब प्रधानमंत्री मेमोरियल म्यूजियम और लाइब्रेरी) के उपनिदेशक रहे, उन्हें गुमनामी से निकाला।
सत्यभक्त से सैद्धांतिक विवाद का कारण उनका भारतवाद था। भारत की परिस्थितियों में सत्यभक्त स्वतंत्र साम्यवादी आंदोलन के समर्थक थे। जबकि सोवियतवाद इसे अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन से जोड़कर देखता था। इसलिए सत्यभक्त ने पार्टी का नाम इंडियन कम्युनिस्ट पार्टी रखा था। इसे सोवियतवादियों ने सिरे से खारिज कर दिया। सत्यभक्त में मौलिकता थी। मौलिक व्यक्तित्व समझौतावादी नहीं होता है, न ही महत्त्वाकांक्षी। ये दोनों बातें उनके चरित्र में दिखाई पड़ीं।
अलग-थलग होने के बाद वे ‘सर्वहारा’ की जिंदगी जीते रहे और वैचारिक योगदान करते रहे। 1934 में उन्होंने ‘साम्यवाद का सिद्धांत’ लिखा। कम्युनिस्ट छिपकर उन्हें पढ़ते थे, पर नाम नहीं लेते थे। ‘साम्यवाद’ शब्द का उन्होंने ही पहली बार प्रयोग किया था। उनके साथ हुए अन्याय और अनर्थ को छिपाने के लिए साम्यवादी बुद्धिजीवी उन्हें ‘हिंदू कम्युनिस्ट’ कहते हैं।
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सत्यभक्त भारत में अध्यात्म के महत्त्व को समझते थे। इसलिए इसका उपयोग समानता के सिद्धांत के प्रसार में करना चाहते थे। पर सोवियतवादी भारत की मौलिकता से लड़ रहे थे। अंधभक्ति व्यक्ति या समुदाय को अनावश्यक समर्पण की प्रेरणा देती है और वह इसे अपने व्यक्ति की उपलब्धि मानने लगता है। अंधभक्ति ही भविष्य के विनाश या पतन का कारण बन जाती है। सत्यभक्त दरकिनार हो गए, पर विनाश का बीज साम्यवादी आंदोलन में पनपने लगा।
कम्युनिस्ट पार्टी के शीर्षस्थ नेताओं में एक भोगेंद्र झा का मौखिक साक्षात्कार तीनमूर्ति पुस्तकालय में है। इसमें उस अंधभक्ति के गर्भ में पल रहे विनाशकारी मन-मस्तिष्क का तथ्यात्मक खुलासा है। एक बार अंतरराष्ट्रीय राजनीति में सोवियत संघ और उसके राष्ट्रपति जोसेफ स्टालिन के कदम को उन्होंने गलत बताया, तो उनके साथियों का जवाब था, ‘स्टालिन और गलती! ऐसा नहीं हो सकता है।’
इसी सोवियतवाद का दूसरा उदाहरण है। पार्टी के दूसरे शीर्षस्थ नेता इंद्रदीप सिन्हा लंबे समय तक पार्टी के मुखपत्र ‘न्यू एज’ के संपादक थे। उनका मौखिक साक्षात्कार तीनमूर्ति पुस्तकालय में है। स्वतंत्रता के बाद क्रांति शहर केंद्रित है या ग्राम केंद्रित, पार्टी में विवाद का विषय बना। दोनों ही धरा के दो -दो नेता, राजेश्वर राव, एसए डांगे, ए वासुपुनैया और अजय घोष मास्को में स्टालिन से समाधान लेने गए। सिन्हा ने उस भेंट का जो विवरण दिया, उसमें स्टालिन भारत के कम्युनिस्टों से कहीं अधिक विवेकवादी नजर आए। वे सभी एक कमरे में प्रतीक्षा कर रहे थे। स्टालिन स्वयं आ गए।
सिन्हा ने कहा, उस ‘महामानव’ को अचानक साक्षात देखकर घबरा गए। फिर वार्ता शुरू हुई। स्टालिन ने उन्हें कहा, ‘भारत की परिस्थितियों को देख कर निर्णय लेना चाहिए।’ और 1942 में भारत के कम्युनिस्टों द्वारा द्वितीय विश्वयुद्ध में सोवियत संघ और ब्रिटेन का समर्थन का कारण पूछते हुए कहा कि पार्टी ने गलत किया। उन्हें भारत छोड़ो आंदोलन का साथ देना चाहिए। फिर प्रतिप्रश्न किया, ‘अगर वे सोवियत संघ का समर्थन नहीं करते, तो क्या हम युद्ध नहीं जीत पाते?’ पर यह सब औपचारिकता और दिखावटी विवेकवाद था। सोवियत नेताओं से असहमति का मतलब साम्यवादी नहीं रह जाना।
मानवेंद्र नाथ राय, जिन्होंने सत्यभक्त के लिए गड्ढा खोदा था, वे भी उसी गड्ढे में गिरे। औपनिवेशिक देशों में कम्युनिस्टों की भूमिका पर वे सोवियत नेता लेनिन से मतभेद रखते थे और दृष्टि की भिन्नता के कारण वे आंदोलन से बाहर ही नहीं हुए, अलग-थलग पड़ गए। लंबे समय तक स्वयं अर्जित दासता के भाव में जीने वाला व्यक्ति अपना अंत आते हुए भी दासता को नहीं छोड़ता है। आज के कम्युनिस्ट आंदोलन के वाहक निकले थे सर्वहारा की लड़ाई लड़ने और काल्पनिक सांप्रदायिकता से लड़ने लगे। साम्यवाद के सौ वर्षों का इतिहास स्वायत्तता का इतिहास नहीं होकर समझौता और समर्पण का इतिहास रहा है। अब सत्यभक्त उन्हें जरूर याद आएंगे।