शब्द अभिव्यक्ति का सहज माध्यम है। लेखन हो या जीवन, शब्दों से ही अभिव्यक्त होता है, जो कभी कहानी, कविता तो कभी निबंध और फिर किसी पुस्तक के रूप में सबके विचारार्थ सामने होता है। शब्दों की यात्रा ही जीवन को गतिशील बनाए रखती है। मौन को भी परिभाषित करने के लिए शब्दों की ही जरूरत पड़ती है, भले ही वह भाषा मौन की हो। सोचने-समझने से लेकर पुस्तकों के पाठ तक, शब्दों की ध्वनि ही जीवन को गुंजायमान रखती है और इनके अर्थ के साथ पठन-पाठन की एक संस्कृति हमारे साथ चलती रहती है।
दरअसल, अभिव्यक्ति के मुख्यत: दो ही माध्यम हैं। एक तो सोचे-समझे, विचार किए गए और उसके बाद अभिव्यक्त किए गए शब्द हैं, दूसरा भाव। शब्दों का संसार तो विस्तृत है ही, लेकिन शब्दों से परे भी एक विस्तृत दुनिया है। वह है मौन। मौन कभी वह पक्ष भी व्यक्त कर देता है, जिनके लिए उपयुक्त शब्द व्यक्त नहीं कर पाते। जाहिर है, इस मौन के साथ भी एक भाव नत्थी होता है, जिनमें कुछ शब्द गुंथे होते हैं।
मौन एक साधना है। इसके विविध रूप हैं। मौन कभी शब्दों का विराम है तो कभी भावों की गहन अभिव्यक्ति है। यह कभी रोष को अभिव्यक्त करता है, तो कभी अगाध प्रेम को। ऐसे मौके भी हम सबकी जिंदगी में आते रहते हैं, जब हमें लगता है कि मौन कई बार शब्दों की विवशता भी है। कभी-कभी शब्द या उचित शब्दों की खोज की हमारी सीमा अनुभूति को व्यक्त नहीं कर पाते। तब उसे मौन व्यक्त कर देता है। यानी शब्द भावों की गूंज हैं तो मौन भावों की मूक अभिव्यक्ति है। इसके पीछे बाकायदा शब्दों का एक व्यापक संसार छिपा होता है।
यह कहा भी गया है कि बोलना अगर चांदी के समान है, तो चुप रहना स्वर्ण है। बल्कि कभी ऐसा भी होता कि हम कुछ बोलना चाहते हैं, लेकिन किसी कारणवश बोल नहीं पाते हैं। फिर सोचते हैं कि न बोलना ही श्रेयकर है। ऐसे में मौन हमारा साथी और खुद को अभिव्यक्त करने का श्रेष्ठतम माध्यम साबित होता है। हां, यह जरूर है कि इस अभिव्यक्ति को समझने वाला कोई संवेदनशील व्यक्ति हो।
क्या सपने पूरे करने के लिए सिर्फ संघर्ष ही जरूरी है, या आसान रास्ते से भी सुकून मिल सकता है?
हम जिस समाज में रहते हैं, उसमें संवाद रहित अभिव्यक्ति एक गहरा प्रभाव छोड़ती है। यह कह सकते हैं कि चुप रहना भी एक विजय है। अपने शब्दों को कुछ समय तक विराम देना आत्म-संयम है। इस आत्मसंयम को आत्मसात करना हमारी जीत है। अगर हम इसे दर्ज कर पाते हैं, तो इससे तैयार किताब न केवल हमारी अभिव्यक्ति की स्वीकृति के रूप में हमारे सामने होती है, बल्कि आने वाले वक्त और पीढ़ियों के लिए व्यक्ति और समाज के अध्ययन का एक दस्तावेज भी होती है।
बाहरी मौन का संयम रखते हुए आंतरिक मौन साधना को पाना जीवन दर्शन है। बाहरी मौन जीवन का आनंद है, आंतरिक मौन आत्मा का आनंद है। शब्दों का मौन लौकिक रंग है, आंतरिक मौन अलौकिक है। आंतरिक मौन यानी सब इच्छाओं की समाप्ति। यह अत्यंत दुष्कर है, लेकिन असंभव नहीं। यह जीवन को पूर्ण कर देता है।
कुछ छोड़ें, कुछ माफ करें और रिश्तों को मजबूत बनाएं – सच्चा सुकून चाहिए तो टेंशन से बाहर निकलें
हर इंसान के भीतर एक आध्यात्मिक अनुभूति है। जैसे पानी में कंकड़ फेंकते हैं और पानी में एक लहर आती है, वैसे ही व्यक्ति के भीतर अध्यात्म की चेतना आती है, क्योंकि चेतन का स्वभाव ही आत्म तत्त्व की खोज है, जिसका क्षणिक आभास हम जब तब करते रहते हैं। मगर जब ये आत्म तत्त्व चिरस्थायी हो जाता है, तब असल आनंद प्राप्त हो जाता है। बाहरी क्रियाएं विचलित करती हैं, आंतरिक मौन लोक में रहकर अलौकिक सुख प्रदान करता है। स्वयं से स्वयं को ढूंढ़ना ही आंतरिक मौन है। यह सृष्टि का अहनद नाद है, जिसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है।
संसार में रहकर संसार से विरक्ति निश्चित रूप से सबसे कठिन कार्य है। आसक्तियां ही सांसारिक कार्यों को फलीभूत करवाती हैं। जीवन का द्वैत यही है कि यदि अध्यात्म को अपनाते हैं तो कर्तव्यों से विमुख हो जाते हैं और कर्तव्यों का निर्वाह, बिना आसक्तियों के होता ही नहीं। इसी झंझावात में जीवनयापन होता रहता है और एक दिन जीवन पूरा हो जाता है। वास्तविकता यही है कि हम दो दुनिया में जीते हैं। बाहरी दुनिया, जो कर्मशील दुनिया हैं, जहां हम अपना किरदार निभाने के लिए बाध्य हैं। वह हमें थोड़ी आसक्ति भी देती है। आसक्त होना लाजिमी भी है, क्योंकि वही हमें कर्मशील बनाता है।
खोखली मुस्कान और चमक-दमक का समाज, क्या हम भूल चुके हैं असली जीवन की सादगी?
दूसरी दुनिया है आत्मा का आनंद, जिसे हम स्वयं के भीतर अनुभव कर सकते हैं। ये हमारी अपनी खोज होती है, अपनी पूंजी। इसे कोई हमसे छीन नहीं सकता। बाहरी क्रियाकलापों का विराम ही आंतरिक मौन है। बाहर कितना ही शोर हो, अगर मन में शांति है तो हम विजयी हैं। अशोक जैसे योद्धा विजेता बनने के बाद भी आंतरिक कोलाहल से विचलित रहे। अगर शांति कहीं बाहरी सुख में होती तो सम्राट अशोक विजेता बनने के बाद विरक्त न होते। कितने ही योद्धा इस संसार में हुए, जो विश्व विजयी बनने के बाद भी आंतरिक शांति नहीं पा सके. क्योंकि शांति बाहरी विजय में है ही नहीं।
सांसारिक यात्रा के पड़ावों को पूरा करते हुए मंजिल आंतरिक मौन ही होना चाहिए, जहां कोई इच्छा न रहे। एक यात्रा, जहां आत्मा का आनंद हो, जो अलौकिक हो, रंगीन दुनिया से रंगहीन दुनिया की ओर। जहां रंगों का संसार समाप्त होकर भीतर का अलौकिक प्रकाश निकले, जिसके परावर्तन से आत्मा में परमात्मा की प्राप्ति हो। यही जीवनदर्शन है।