दिक्षु सी. कुकरेजा, वास्तुविद एवं पर्यावरणविद

आज नेशनल पॉल्यूशन कंट्रोल डे है। इसका उद्देश्य लोगों को यह समझाना है कि प्रदूषण सिर्फ हवा को गंदा नहीं करता, बल्कि हमारी जिंदगी, सेहत और आने वाली पीढ़ियों पर गहरा असर छोड़ता है।

आज प्रदूषण एक वैश्विक संकट बन चुका है। सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को दिल्ली और एनसीआर वायु प्रदूषण संकट पर स्वतः संज्ञान लेते हुए सुनवाई की। इस दौरान मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि हम चाहते हैं कि दीर्घकालिक योजनाएं भी सार्वजनिक हों, उन योजनाओं पर चर्चा और अंतिम रूप दिया जाना आवश्यक है।

एक शहरी योजनाकार के रूप में मैं प्रदूषण को सिर्फ एक “बाद में सुलझाने वाला” मुद्दा नहीं, बल्कि एक विकृत शहरी संरचना का लक्षण मानता हूँ। हमने अपने नीले-हरे नेटवर्क; नदी, जलाशय, वृक्ष-पंक्तियाँ, जो कभी हवा को साफ रखते थे, उन्हें कंक्रीट के नीचे गुम कर दिया है। हमारी गतिशीलता निजी वाहनों पर टिकी है, और हमारे ज़ोनिंग के उसूल आज भी कार्यस्थल को घर से अलग कर लंबे और प्रदूषणकारी सफ़र को बढ़ावा देते हैं।

शहर का “मेटाबॉलिज़्म”, उसकी जैविक लय बिल्कुल बिखर चुकी है। आज ज़रूरत है कि हम दिल्ली को एक जीवित, साँस लेती हुई इकाई के रूप में फिर से तैयार करें जो हवा, पानी और ऊर्जा को अपनाएं और हमें इसे वापस लौटाए।

धुंध के परे, एक शहर जो अपनी स्मृति खो रहा है!

दिल्ली की यह घुटन केवल मौसम की देन नहीं, बल्कि हमारी सामूहिक विस्मृति का नतीजा है। यह वही शहर है जिसने कभी बाग-बगीचों, बावड़ियों और जल-निकायों की समृद्ध परंपरा को जिया था। परंतु आज का विकास इस स्मृति से कट चुका है, विकास की दौड़ में हमने अपने पारिस्थितिक ज्ञान को भुला दिया।

किसी भी शहर की सेहत उसकी सांस्कृतिक स्मृति और भौगोलिक समझ पर टिकी होती है। लेकिन दिल्ली की नियोजन प्रक्रिया ने न तो नदियों की भाषा सुनी, न हवा की दिशा समझी। यमुना को पीठ दिखाकर बनाई गई इमारतें और अव्यवस्थित शहरी फैलाव इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं।

वायु प्रदूषण सिर्फ आँखों में जलन या मास्क की मजबूरी नहीं है, यह मानव गरिमा के विरुद्ध एक चुपचाप चल रही हिंसा है। यह उन बच्चों की सांसों पर हमला है जो अभी जीवन का अर्थ समझ भी नहीं पाए हैं।

स्थायी समाधान क्या हो सकते हैं?

  1. बाढ़ क्षेत्र को निर्माण-मुक्त रखकर उसे हरित पारिस्थितिक क्षेत्र में बदलना होगा जो जैवविविधता का संजीवनी क्षेत्र बन सके। नदी को केवल जल निकाय नहीं बल्कि शहरी परिदृश्य का नैतिक केंद्र भी समझा जाए।
  2. ऐसे शहरों का निर्माण करना होगा जहां आवास, कार्यक्षेत्र और मनोरंजन के साधन एक ही परिक्षेत्र में हों, जिससे लंबी दूरी के आवागमन की कम हो सके। मेट्रो और सार्वजनिक परिवहन केंद्रों के चारों ओर उच्च घनत्व, मिश्रित-उपयोग वाले क्षेत्र बनाना एक व्यवहारिक समाधान है, जो केवल स्मार्ट नहीं, सुलभ और न्यायपूर्ण भी साबित होगा।
  3. बस रैपिड ट्रांजिट, मेट्रो, और आख़िरी मील की कनेक्टिविटी पर निवेश बढ़ाना जरूरी है। इसके साथ-साथ पैदल यात्रियों और साइकिल चालकों की सुविधाओं को प्रमुखता देनी होगी। दिल्ली को गति नहीं, गरिमा के साथ चलने योग्य बनाना होगा।
  4. हमें ऐसी इमारतों को डिजाइन करना होगा जिसमें हवा फ़िल्टर हो सके, वर्षा जल का संग्रह हो सके और सौर ऊर्जा का उत्पादन भी एक ही परिसर में हो सके। भारत की पारंपरिक वास्तुकला जैसे जाली, आंगन इन सब में निहित है। अब ज़रूरत है इन्हें तकनीकी दृष्टि से पुनर्परिभाषित करने की।
  5. हर साल GRAP या कृत्रिम वर्षा जैसे उपायों की बजाय दीर्घकालिक रणनीतियों पर जोर देना होगा। पर्यावरणीय शमन (mitigation) के साथ-साथ पुनरुत्पादन (regeneration) को लक्ष्य बनाना होगा। और साथ ही शहरी नियोजन को एक इंजीनियरिंग अभ्यास नहीं बल्कि सांस्कृतिक परियोजना के रूप में देखना होगा।
  6. हमें दिल्ली को फिर से एक जीवंत, समावेशी और सांस लेने लायक शहर बनाना होगा, एक ऐसा शहर जो केवल जीडीपी नहीं, जीने की गरिमा को केंद्र में रखे। जब शहर साँस लेगा तभी हम भी सांस ले सकेंगे। और अगर ये नहीं हो पाया तो हमारी चुप्पी अगली पीढ़ियों की साँसें छीन लेगी।

(लेखक पर्यावरणविद हैं और सीपी कुकरेजा आर्कीटेक्ट्स के प्रबंध प्रमुख तथा भारत में अल्बानिया के मानद महावाणिज्यदूत हैं।)