अपने सख्त फैसलों के लिए चर्चित हो चुकी भाजपा सरकार अखिल भारतीय सोच बनाने की दिशा में लगातार काम कर रही है, ये “एक देश एक चुनाव” से साफ दिख रहा है। भाजपा के लोगों को मानना है कि एक देश एक चुनाव, चुनाव सुधार की दिशा में एक बड़ा क़दम है। जबकि बहुत लोगों को मानना है कि इससे संघीय ढांचे को नुकसान पहुंचेगा।
चुनाव सुधार और संघीय ढांचे के बीच जो चर्चा से बाहर है वह वही अखिल भारतीय सोच है जिसके पीछे भाजपा और आरएसएस का थिंक टैंक अरसे से काम कर रहा है।
इसको समझने से पहले ये जान लेना जरूरी है कि पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ की संभावनाएं तलाशने के लिए बनी उच्च स्तरीय समिति ने 191 दिनों की कवायद के बाद 18,626 पन्नों में जो सिफ़ारिशें दी थी उनमें 47 राजनीतिक दलों ने अपने विचार समिति के साथ साझा किए, जिनमें से 32 दल ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ के समर्थन में थे और 15 दलों ने इसे लोकतंत्र और संविधान के संघीय ढांचे के ख़िलाफ़ बताया था।
देश में कब पूरी तरह से लागू होगा वन नेशन वन इलेक्शन?
कई दलों ने आपत्ति जताई कि इससे छोटे दलों के लिए मुश्किलें पैदा होंगी, जो लोकतंत्र की बहुलता को नुकसान पहुंचा सकती है।
अब सवाल ये है कि पिछले पचहत्तर वर्षों में लोकतंत्र को मजबूत बनाने के साथ-साथ, एक राष्ट्र के रूप में सामूहिक चेतना विकसित करने की कोशिश कितनी सफल रही है। चाहे वह वामपंथ की विचारधारा रही हो, समाजवाद का प्रयोग रहा हो या फिर कांग्रेस का धर्मनिरपेक्षता पर आधारित मॉडल। इनसे असमानता की खाई गहरी ही हुई है।
1947 के बाद भारत में लोकतंत्र की स्थापना हुई, जिसने देश के लोगों को शाही, कंपनी और रियासती शासन से बाहर निकाला। लेकिन इसके साथ-साथ एक राष्ट्र के रूप में सोचने की जो अपेक्षा थी, वह धीरे-धीरे क्षीण होती चली गई। इसकी सबसे बड़ी वजह थी 1956 में भाषाई आधार पर राज्यों का पुनर्गठन, जिसने क्षेत्रीय अस्मिताओं को बल दिया।
दूसरा कारण था जाति आधारित राजनीति, इसके बाद विकास का असमान वितरण फिर धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत हमेशा से विविधताओं का देश रहा है। भाषाई, धार्मिक, जातीय, क्षेत्रीय और सांस्कृतिक विविधता हमारी ताकत भी रही है और कमजोरी भी। लेकिन समय के साथ ताकत और कमजोरी के पैमाने बदलते रहते हैं।
आज दिल्ली पर भारतीय जनता पार्टी की सत्ता के बाद से देश के इतिहास को लेकर गरमागरम बहसें आम हो गई हैं।
इस्लाम भारत में कब आया? बाबर ने इब्राहीम लोधी को हराया था या राणा सांगा ने उसे बुलाया था? मुगल साम्राज्य को किसने समाप्त किया- क्या मराठों ने उसे छिन्न-भिन्न कर दिया? अंग्रेजों से आज़ादी की लड़ाई किसने लड़ी और अंततः आज़ादी हमें किससे मिली?
कैसे बनेगी अखिल भारतीय सोच?
ऐसी तमाम बहसों के बीच, भारत आज भी एक अखिल भारतीय सोच के निर्माण के लिए संघर्ष कर रहा है- इस उम्मीद के साथ कि तमिल और हिंदी के बीच का विवाद समाप्त होगा, मराठी और बिहारी के बीच की खाई मिटेगी, पूर्वोत्तर भारत और शेष भारत के लोग एक समान सोच विकसित करेंगे और कश्मीर को यह अनुभव होगा कि दिल्ली में उसकी अपनी सरकार है। लेकिन सवाल यह है कि ऐसी अखिल भारतीय सोच आएगी कैसे?
चलिए हम भी जरा इतिहास से कुछ तथ्य लेते हैं। भारत में पहली बार “अखिल भारतीय सोच” की जो अवधारणा उभरी, वह मौर्य काल में दिखाई देती है, जब सम्राट अशोक ने एक साझा नैतिक आधार ‘धम्म’ के माध्यम से विशाल भू-भाग को जोड़ा। वह शायद भारत में “अखिल भारतीय सोच” का पहला प्रयोग था। जिसमें शासन, नैतिकता और सांस्कृतिक एकता का समावेश था।
इसके बाद मुगलकाल में अकबर की सुलह-ए-कुल नीति और राजस्व व्यवस्था, क्षेत्रीय विविधताओं को स्वीकार कर एक केंद्रीय शासन प्रणाली विकसित करने का प्रयास था। और मुगलों के पराभाव के बाद कंपनी काल में अंग्रेजों की एकीकृत प्रशासनिक व्यवस्था, रेलवे, डाक सेवा और भारत की पहली जनगणना जैसे कदमों ने “ब्रिटिश भारत” की अवधारणा को भौगोलिक रूप से तो जन्म दिया लेकिन तब भी भारत जमींदारों, राजा-नवाबों और आम जनता के वर्गों में विभाजित था।
ऐसे में आज़ादी की लड़ाई के दौरान देश के हर कोने और हर वर्ग से एक ही मांग और एक ही आकांक्षा उत्पन्न हुई। लेकिन समय के साथ ताकत और कमजोरी के मायने बदल जाते हैं।
अब जब लोकतंत्र में जन आकांक्षा ही सबसे बड़ी सोच है, तो फिर इसे अखिल भारतीय सोच में बदलना ही सबसे बड़ी जीत होगी।
क्षेत्रीय दलों के अस्तित्व के लिए खतरा?
ऐसे में “एक देश एक चुनाव” महत्वपूर्ण बिन्दु हो सकता है। लिहाजा छोटे और क्षेत्रीय दलों की आपत्तियों को नकारा जाना उचित नहीं है। इसलिए सवाल बनता है कि क्या एक देश एक चुनाव छोटे और क्षेत्रीय दलों के अस्तित्व के लिए खतरनाक है। 15 दलों की आपत्तियों को देखा जाए तो यह बहुत मुमकिन है कि इस व्यवस्था में चुनाव लड़ने की ताकत और मुद्दे बड़े दल ही सेट कर सकते हैं। जबकि इस व्यवस्था के बिना हुए चुनावों में भी बड़े दलों की स्वीकार्यता अखिल भारतीय रही है और छोटे दल, बड़े दलों के पिछलग्गू ही बने रहे हैं। चाहे वह कांग्रेस रही हो या भाजपा देश की राजनीति इन दलों के इर्द-गिर्द ही है।
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क्षेत्रीय दलों के इनके साथ गठबंधन में आने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। ऐसे में एक देश एक चुनाव की व्यवस्था से संसाधनों की बचत, सामाजिक तालमेल बनाए रखने और आर्थिक विकास में तेजी के साथ क्षेत्रीय दलों का दबदबा भी खत्म होगा और जब क्षेत्रीय दलों का दबदबा खत्म होगा तो क्षेत्रवाद और जातिवाद की राजनीति भी खत्म होगी। छोटे या क्षेत्रीय दलों के 5 -10 सांसद क्षेत्रीय समीकरण के लिए राष्ट्रीय हित के साथ समझौता करने की स्थिति में नहीं होंगे। राष्ट्रीय मुद्दों पर प्रचार और क्षेत्रीय मसलों पर प्रत्याशियों का युग्म एक बड़ी तस्वीर खींचेगा जो अखिल भारतीय सोच साबित होगी।
हमें इतिहास से सबक लेना होगा, अकबर की नीतियां भारत के साझा इतिहास की नींव रख रही थी तो अंग्रेजों की नीति भारत की एकीकृत प्रशासनिक व्यवस्था की। दोनों की ही ऐतिहासिक कोशिशों का परिणाम हमारे सामने है। ठीक वैसे ही भाजपा की एक देश एक चुनाव की व्यवस्था, भारत के लोकतांत्रिक ढांचे में एक अखिल भारतीय सोच फिट करने की पहल साबित होगी।
विविधता में एकता वाले इस देश में कोई भी नतीजे रातों रात नहीं आते हैं लेकिन उदाहरण है कि अशोक, अकबर और अंग्रेजों ने अपनी-अपनी नीतियों से भारत को एकीकृत किया है।
आज भारत को फिर एक ऐसी ही अखिल भारतीय सोच की ज़रूरत है। ताकि इतिहास की बहसें अतीत को समझने तक सीमित रहें और वर्तमान के साथ मिलकर भविष्य का निर्माण करें और हमारी विविधताओं को सम्मान देते हुए एक साझा भविष्य की ओर ले जाएं।