उत्तर भारत एक बार फिर जहरीली हवा की गिरफ्त में है। लोगों के लिए सांस लेना तक मुश्किल हो गया है। धूल और धुएं की परत जनस्वास्थ्य के लिए संकट बन चुकी है। दिल्ली-एनसीआर में वायु गुणवत्ता सूचकांक कब गंभीर श्रेणी में पहुंच जाए कुछ कहा नहीं जा सकता। हालांकि, इस गंभीर होती समस्या से पार पाने के लिए दिल्ली सरकार ने ‘ग्रैप’ के प्रावधानों को लागू करने समेत कई उपाय आजमाए, मगर वे कारगर साबित नहीं हो सके।
पर्यावरण के लिए काम करने वाली संस्था ग्रीनपीस की एक रपट के मुताबिक, देश की राजधानी दिल्ली दुनिया भर में तमाम देशों की राजधानियों में सबसे ज्यादा प्रदूषित शहर है। सवाल है कि पिछले कुछ वर्षों से लगातार इस संकट से जूझ रहे दिल्ली-एनसीआर को कोई स्थायी समाधान की रोशनी क्यों नहीं मिलती? कागज पर भले ही सरकार ने वायु गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए कई कदम उठाएं हैं, लेकिन इसके बावजूद प्रदूषण का स्तर लगातार बढ़ रहा है। इससे पता चलता है कि हमारे यहां व्यवस्था प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए कितनी कारगर है।
इस मामले में अगर हमारे पड़ोसी देश चीन की बात की जाए, तो वह भी कभी खतरनाक प्रदूषण से जूझ रहा था, मगर एक दशक के भीतर ही वह अपनी वायु गुणवत्ता में सुधार लाने में कामयाब रहा। सबसे अहम सवाल यह है कि तमाम मुश्किलों का सामना करने के बावजूद भारत दुनिया के दूसरे देशों से सबक क्यों नहीं ले रहा है। हालांकि प्रदूषण पर लगाम लगाने के लिए भारत ने कई उपाय किए हैं, लेकिन धीमी गति और जमीनी स्तर पर कमजोर प्रवर्तन की वजह से उनका प्रभाव सीमित ही रहा। वहीं, चीन ने प्रदूषण को राष्ट्रीय आपातकाल मानकर तेज गति से काम किया।
चीन की इस सफलता में निगरानी ने एक बड़ी भूमिका निभाई। वहां एक व्यापक वायु निगरानी तंत्र बनाया गया, जो शहर-दर-शहर और यहां तक कि कारखानों से होने वाले प्रदूषण पर नियमित नजर रखता था। इससे उन्हें उत्सर्जन के स्रोतों का एक सटीक डेटा मिला और उसी के मुताबिक कार्रवाई की गई।
इसी के साथ चीन ने अपनी परिवहन प्रणाली में भी बदलाव किया। बेजिंग जैसे शहरों में मेट्रो नेटवर्क का विस्तार किया गया, चौड़े पैदल यात्री क्षेत्र बनाए गए, निजी वाहन पर निर्भरता कम की गई और साथ ही सार्वजनिक परिवहन में निवेश किया गया। इसी के समांतर प्रदूषणकारी उद्योगों के प्रति भी चीन ने सख्ती दिखाई। ऐसे उद्योगों को स्वच्छ ईंधन और नवीकरणीय ऊर्जा की तरफ मोड़ कर कोयले पर निर्भरता को भी कम किया गया। गैस आधारित उपकरणों ने अनगिनत कोयला इकाइयों की जगह ली, जिस वजह से सल्फर उत्सर्जन में काफी कमी आई।
भारत की बात की जाए तो यहां अभी भी कोयले पर निर्भरता काफी ज्यादा है। जबकि चीन का उदाहरण दिखाता है कि मजबूत प्रवर्तन और एकीकृत सरकारी दृष्टिकोण से बड़ा बदलाव लाया जा सकता है। गौर करने वाली बात यह है कि प्रदूषण से आबादी के लिहाज से सबसे ज्यादा नुकसान भारत को ही होता है, लिहाजा तत्काल कुछ सार्थक और ठोस उपाय करने की जरूरत है।
देखा जाए तो आज के समय दुनिया में सबसे ज्यादा बीमारियां पर्यावरण प्रदूषण की वजह से ही हो रही हैं। मलेरिया, एड्स और तपेदिक से हर साल जितने लोगों की मौत होती है, उससे कहीं ज्यादा लोग प्रदूषण से होने वाली बीमारियों के कारण दम तोड़ देते हैं। बहरहाल, सवाल यही उठता है कि वायु प्रदूषण से हर साल होने वाली मौतों को रोकने के लिए सरकार की तरफ से क्या कदम उठाए जा रहे हैं? दशकों से यह बात सरकार और समाज सबको मालूम है, इसके बावजूद सामूहिक प्रयासों को गति नहीं मिल पा रही है। ऐसा लगता है कि लोग अपने त्रासदीपूर्ण भविष्य को लेकर जरा भी चिंतित नहीं हैं। जबकि देश में वायु प्रदूषण की समस्या इतनी जटिल होती जा रही है कि भविष्य अंधकारमय प्रतीत हो रहा है।
दरअसल, आज मनुष्य भोगवादी जीवनशैली का इतना आदी और स्वार्थी हो गया है कि अपने जीवन के मूल आधार वायु को दूषित करने पर आमादा है। इस मामले में नैतिकता, धर्म, कर्तव्य सब पीछे छूट रहा है। भौतिकतावादी जीवनशैली और विकास की अंधी दौड़ में आज मनुष्य ये भी भूल गया है कि वायु प्रदूषण धीरे-धीरे कितना खतरनाक रूप धारण कर रहा है। बढ़ते वाहनों और कारखानों से निकलता धुआं, वृक्षों की कटाई और मनुष्य द्वारा फैलाई जा रही गंदगी हवा-पानी को इस कदर प्रदूषित कर रही हैं कि इससे बीमारियां भी दोगुनी गति से फैल रही है।
मानवीय सोच और विचारधारा में इतना ज्यादा बदलाव आ गया है कि भविष्य की जैसे कोई चिंता ही नहीं है। इसमें कोई दोराय नहीं है कि अपने कृत्यों के कारण आज मनुष्य प्रकृति को रिक्त करता चला जा रहा है। इसके परिणामस्वरूप पर्यावरण असंतुलन से भूमंडलीय ताप, अम्लीय वर्षा, हिमनदों का पिघलना, समुद्र का जल-स्तर बढ़ना, मैदानी नदियों का सूखना, उपजाऊ भूमि का घटना और रेगिस्तानों का दायरा बढ़ना जैसी विकट परिस्थितियां उत्पन्न होने लगी हैं। ये सारा किया कराया मनुष्य का है, लेकिन अफसोस की बात है कि इसके घातक प्रभाव को झेलने के बावजूद हम अब भी नहीं चेत रहे हैं।
साल-दर-साल भारत में वायु प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। चाहे केंद्र सरकार हो या राज्य सरकारें, या फिर हमारा समाज, कोई भी प्रदूषण से लड़ने के लिए गंभीर नजर नहीं आता है। अब समय आ गया है कि प्रदूषण से पार पाने के लिए सरकारी स्तर पर दीर्घकालीन नीतियां बनाई जाएं और उन्हें धरातल पर प्रभावी तरीके से लागू किया जाए। साथ ही लोगों को अपने स्तर पर वे सभी जतन करने की जरूरत है, जो हवा को जहरीली होने से रोकें।
अब तक जो भी प्रयास हुए हैं, वे वायु प्रदूषण से निपटने में कारगर साबित नहीं हो पाए हैं। ऐसे में भारत की जिम्मेदारी बड़ी और ज्यादा चुनौतीपूर्ण हो जाती है। हमें विकसित और विकासशील दोनों ही प्रकार के देशों में किए जा रहे उपायों से सीख लेने की जरूरत है। वायु प्रदूषण पूरी दुनिया के लिए चिंता का विषय है और इसे आपसी सहमति एवं ईमानदार प्रयास के बिना हल नहीं किया जा सकता है।
इसके लिए तात्कालिक कार्रवाई के बजाय निरंतर प्रयासों की जरूरत है। स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों को अपनाना, वाहनों की संख्या को नियंत्रित करना और सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा देना जैसे उपाय दीर्घकालिक प्रभाव डाल सकते हैं। पराली जलाने की समस्या को हल करने के लिए किसानों को बेहतर तकनीक और प्रोत्साहन प्रदान करना आवश्यक है, ताकि वे अधिक पर्यावरण-अनुकूल विकल्पों को अपनाएं। इसके साथ ही निर्माण स्थलों पर प्रदूषण-नियंत्रण उपायों का सख्ती से पालन और औद्योगिक उत्सर्जन को नियंत्रित करने के लिए कड़े कानूनों की आवश्यकता है। एक व्यवस्थित निगरानी तंत्र से पूरे वर्ष वायु गुणवत्ता का मूल्यांकन करना जरूरी है, ताकि प्रदूषण के स्तर को समय रहते नियंत्रित किया जा सके। वास्तव में यह वक्त सिर्फ सोचने और चिंता करने का नहीं है, बल्कि जमीनी स्तर पर कुछ ठोस उपाय करने का है।
