हाल ही में नोएडा के एक ‘डे-केयर सेंटर’ यानी बच्चों की देखभाल करने वाले केंद्र में पंद्रह महीने की बच्ची को बेरहमी से यातना देने का वीडियो दिल दहला देने वाला था। संभाल-देखभाल का दायित्व लेने वाली जगह पर मासूम बच्ची को दी गई प्रताड़ना हर किसी को स्तब्ध करने वाली है। स्वाभाविक रूप से बच्ची की मां का कहना था कि वीडियो देखने के बाद उसे नींद नहीं आ रही। इस घटना ने एक बार फिर छोटे बच्चों की देखभाल करने वाले केंद्रों में बच्चों की सुरक्षा से जुड़े कई सवाल खड़े कर दिए हैं।
विडंबना यह है कि बिखरते परिवारों और सिमटती सामाजिकता का खमियाजा मासूम बच्चों के भी हिस्से आ रहा है। कामकाजी माताओं के बढ़ती संख्या और बच्चों के पालन-पोषण से जुड़ी नाकाफी सुविधाओं ने हालात और बिगाड़ दिए हैं। प्रश्न यह है कि नई पीढ़ी की परवरिश कैसे की जाए। बच्चों की देखभाल के लिए किसका सहारा लिया जाए? कामकाजी माताएं मातृत्व की जिम्मेदारी और करिअर में कैसे संतुलन साधें? अबोध बच्चों के साथ होने वाली ऐसी हर घटना के भयावह दृश्य समाचार चैनलों से लेकर सोशल मीडिया तक चर्चा का विषय बनते हैं, पर हल किसी के पास नहीं। जबकि नोएडा में बच्चे के साथ जो हुआ, वह कोई अकेली घटना नहीं है।
ऐसी घटनाएं हर बार हमें सामाजिक-पारिवारिक ताने-बाने के विघटन को लेकर भी चेताती हैं। यह भी पता चलता है कि बच्चे किस हद तक हमारी प्राथमिकताओं से किनारे हुए हैं। न केवल उनका बचपन हाशिये पर चला गया, बल्कि भावनात्मक जुड़ाव की जगह एक औपचारिक जिम्मेदारी ने ले ली है। सच यह है कि लगातार भागमभाग कर जिन बच्चों के भविष्य के लिए सुख-सुविधाएं जुटाई जा रही हैं, वे ही पीछे छूट रहे हैं। अभिभावक जीवन की आपाधापी में गुम हैं तो संभाल-देखभाल का दायित्व लेने वाले ‘डे-केयर केंद्र’ पूरी तरह व्यावसायिक हो चले हैं।
नतीजतन, नई पीढ़ी होश संभालने से पहले ही प्रताड़ना और हादसों का शिकार हो रही है। ये बच्चे इतनी छोटी उम्र के होते हैं कि अपने साथ होने वाले दुर्व्यवहार के बारे में बता भी नहीं पाते। कोई बड़ी घटना होने तक अभिभावकों को हर दिन मिलने वाली प्रताड़ना का पता भी नहीं चलता। चिंता की बात है कि ऐसा दुर्व्यवहार बच्चों के शारीरिक-मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य को गहरी चोट पहुंचाता है। बहुत से बच्चे बड़े होने पर भी मासूमियत के दौर में मिली ऐसी बर्बरता के दुष्प्रभावों से बाहर नहीं आ पाते। उनका मन-मस्तिष्क जीवनभर इस अनकही पीड़ा को झेलता है। यहां तक कि अभिभावकों के प्रति रोष भी जड़ें जमा लेता है।
ऐसे मामले यह सोचने को विवश करते हैं कि हमारा सामाजिक-पारिवारिक ढांचा बिखराव के किस स्तर तक आ पहुंचा है। एक ओर बच्चों के सिर पर बड़ों का साया नहीं है, तो दूसरी ओर बड़े-बुजुर्ग भी उपेक्षा झेल रहे हैं। एकल परिवारों की संस्कृति का सबसे ज्यादा शिकार मासूम बच्चे ही हुए हैं। असल में संयुक्त परिवारों से लेकर ‘डे-केयर’ संस्कृति तक बहुत कुछ बदला है। इसी बदलाव के परिणाम अब देखने को मिल रहे हैं। ऐसी घटनाएं कामकाजी अभिभावकों को भी चिंता में डालने वाली हैं।
मोटी फीस लेने के बावजूद कई केंद्र संभाल और स्नेह देने के बजाय बच्चों के लिए यातना घर बन जाते हैं। अकेले और असुरक्षित परिस्थितियों में पल-बढ़ रहे बच्चों को न तो स्नेह भरा व्यवहार मिलता है और न ही सही देखरेख। बावजूद इसके बीते कुछ वर्षों में महानगरों से लेकर छोटे शहरों तक में ‘डे-केयर’ संस्कृति का खूब विस्तार हुआ है। ऐसे ज्यादातर केंद्र किसी दिशा-निर्देश या कानूनी नियम के दायरे में ही नहीं आते।
ये काम भले ही एक व्यावसायिक गतिविधि के तौर पर करते हैं, पर बच्चों की सुरक्षा से जुड़े नियमों का पालन करना तो दूर, पूरी जानकारी तक नहीं रखते। यही वजह है कि इनके लिए नियम सख्त और उनका पालन अनिवार्य बनाया जाना चाहिए। माता-पिता को भी केंद्र में निगरानी व्यवस्था, स्वच्छता और वहां के कर्मचारियों के प्रशिक्षण को लेकर स्पष्ट जानकारी लेनी चाहिए।
बच्चों की देखभाल के लिए निर्धारित नियमों और सुरक्षा मानकों का पूरी तरह पालन करने वाले केंद्र चुनने से जुड़ी सजगता बहुत जरूरी है। भारत के परंपरागत परिवेश में पहले कामकाजी महिलाओं की संख्या कम थी और परिवार संयुक्त थे। बड़े-बुजुर्गों और परिवार के अन्य सदस्यों की सहायता से बच्चों की परवरिश आसानी से हो जाती थी। अब संयुक्त परिवार खत्म हो रहे हैं। आस-पड़ोस के सामाजिक माहौल में जुड़ाव का भाव नहीं है। ऐसे में बच्चे किसके भरोसे रहें? उनकी परवरिश कैसे की जाए?
इन हालात में कामकाजी महिलाओं के लिए सहयोगी परिवेश बनाना आवश्यक है। पिछले साल ‘भारत में महिला रोजगार की स्थिति’ नाम से आई कामकाजी महिलाओं की संख्या से जुड़ी एक रपट के मुताबिक, महिलाओं की कुल आबादी 69.2 करोड़ में से लगभग सैंतीस फीसद महिलाएं रोजगार में हैं। महिलाओं का योगदान अब हर क्षेत्र में अहमियत रखता है। संवेदनशील जिम्मेदारी हो या श्रमशील कार्य, भारतीय महिलाएं अपने कामकाजी दायित्वों को गंभीरता से निभा रही हैं।
गौरतलब है कि शिक्षा, बैंक, सूचना तकनीक और यहां तक कि सैन्य बलों में भी अपना अहम स्थान बना चुकी महिलाओं के लिए ये नौकरियां बड़े शहरों में ही हैं। इनमें अधिकतर कामकाजी स्त्रियां एकल परिवारों से जुड़ी हैं। पारिवारिक विघटन के चलते इन माताओं को बच्चों की परवरिश के मोर्चे पर कोई विशेष सहयोग नहीं मिल रहा। इस वजह से एकल परिवारों के कामकाजी अभिभावकों के लिए बच्चों की खातिर ‘डे-केयर’ केंद्र का ही विकल्प बचता है। ऐसे में बच्चों की देखभाल के लिए दफ्तर में या उसके आसपास ही ‘डे केयर’ केंद्र की सुविधा उपलब्ध करवाई जानी चाहिए।
कई निजी कंपनियां मातृत्व अवकाश के बाद काम पर लौटने वाली माताओं को ऐसी सुविधा उपलब्ध करवा रही हैं, पर कामकाजी महिलाओं की बढ़ती संख्या को देखते हुए ऐसी सुविधाओं को और विस्तार दिया जाना जरूरी है। यह न केवल बच्चों की सुरक्षा के लिए, बल्कि देश की तरक्की में महिलाओं की भागीदारी को सुनिश्चित करने के लिए भी आवश्यक है।