रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की हालिया भारत यात्रा ऐसे समय में हुई, जब वैश्विक भू-राजनीतिक परिदृश्य तेजी से बदल रहा है। पिछले कुछ समय से दुनिया में शक्ति-संतुलन बदल रहा है और विभिन्न देशों की विदेश नीतियों में नई प्राथमिकताएं आकार ले रही हैं। ऐसे में भारत और रूस के बीच शीर्ष-स्तरीय संवाद केवल औपचारिकता नहीं, बल्कि यह संकेत है कि दोनों देश वैश्विक अनिश्चितताओं के बीच भी अपनी सामरिक साझेदारी को नई ऊर्जा देना चाहते हैं। पुतिन की यह यात्रा इस बात की पुष्टि करती है कि भारत अपनी रणनीतिक स्वायत्तता को सुरक्षित रखते हुए बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था में संतुलित और सक्रिय भूमिका निभाने के लिए प्रतिबद्ध है।

इस यात्रा का महत्त्व इसलिए भी बढ़ गया है, क्योंकि विश्व स्तर पर यूक्रेन युद्ध, रूस और पश्चिम देशों के बीच तनाव, रूस-चीन नजदीकी और अमेरिका की नई व्यापार नीतियां मिलकर एक जटिल भू-राजनीतिक वातावरण बना रही हैं। भारत, जो आज वैश्विक दक्षिण की प्रमुख आवाज बनकर उभरा है, ऐसी स्थिति में अपनी विदेश नीति में परिपक्वता और संतुलन दोनों का परिचय दे रहा है। पुतिन की यात्रा का सार यही रहा कि भारत किसी दबाव में नहीं, बल्कि अपने हितों और मूल्यों के अनुरूप निर्णय लेता है।

भारत और रूस के संबंधों की नींव शीत युद्ध काल में पड़ी थी। वर्ष 1971 की भारत-सोवियत मैत्री संधि ने दोनों देशों के बीच ऐसे विश्वास का निर्माण किया, जिसे समय और सत्ता परिवर्तन भी कमजोर नहीं कर सके। रक्षा, अंतरिक्ष, ऊर्जा और विज्ञान-तकनीक के क्षेत्रों में सहयोग लगातार मजबूत होता गया। भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम को आकार देने में रूसी वैज्ञानिक सहयोग निर्णायक रहा।

रक्षा क्षेत्र में भी द्विपक्षीय संबंधों का विस्तार हुआ है। भारतीय सेना के लगभग 60-70 फीसद उपकरण किसी न किसी रूप में रूसी तकनीक पर आधारित हैं। एसयू-30 एमकेआइ लड़ाकू विमान, टी-90 टैंक, एस-400 मिसाइल प्रणाली और ब्रह्मोस जैसी संयुक्त परियोजनाएं इस विश्वास का प्रमाण हैं। यही ऐतिहासिक संबंध आज भी दोनों देशों को एक-दूसरे की सुरक्षा और रणनीतिक प्राथमिकताओं के प्रति संवेदनशील बनाए रखते हैं।

यूक्रेन युद्ध ने यूरोप ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व की भू-राजनीति को बदल दिया है। पश्चिमी प्रतिबंधों ने रूस को आर्थिक और रणनीतिक दोनों स्तरों पर नए सहयोगियों की तलाश के लिए प्रेरित किया। एशिया, विशेषकर भारत और चीन, रूस की आर्थिक स्थिरता के लिए महत्त्वपूर्ण साझेदार बनकर उभरे।

भारत ने यूक्रेन संकट पर शुरुआत से संतुलित रुख अपनाया और न तो युद्ध का समर्थन किया, न ही किसी पक्ष का कठोर विरोध, बल्कि संवाद और शांतिपूर्ण समाधान का आग्रह किया। यह नीति भारत की रणनीतिक स्वायत्तता और स्वतंत्र विदेश नीति का प्रत्यक्ष उदाहरण है। पश्चिमी दबाव के बावजूद भारत-रूस संवाद की निरंतरता इस बात का प्रमाण है कि भारत किसी भी वैश्विक शक्ति के प्रभाव में निर्णय नहीं लेता, बल्कि अपने दीर्घकालिक हितों को प्राथमिकता देता है।

यह भी उल्लेखनीय है कि भारत ने इस अवधि में रूस से व्यापक स्तर पर तेल खरीदा, जिसने भारतीय अर्थव्यवस्था को महंगाई और आपूर्ति संकट से बचाने में मदद की है।

हाल के वर्षों में रूस-चीन संबंधों में भी काफी प्रगाढ़ता आई है। यह निकटता पश्चिमी प्रतिबंधों और भू-राजनीतिक तनावों का स्वाभाविक परिणाम है, मगर इसके भारत पर कई प्रभाव हैं। चीन, भारत का प्रमुख रणनीतिक प्रतिद्वंद्वी है और रूस का महत्त्वपूर्ण आर्थिक साझेदार भी बन गया है। यह स्थिति पहली दृष्टि में भारत के लिए चुनौती बन सकती है, हालांकि इसके भीतर अवसर भी निहित है।

भारत के लिए रूस सिर्फ एक व्यापारिक साझेदार नहीं, बल्कि एक दीर्घकालिक रणनीतिक सहयोगी है। रूस के वैज्ञानिक, रक्षा और ऊर्जा क्षेत्र में भारत के साथ दशकों से बने भरोसे को केवल चीन की निकटता कम नहीं कर सकती। इस जटिल त्रिकोणीय परिदृश्य में भारत के पास पर्याप्त रणनीतिक अवसर हैं, जिनके माध्यम से वह रूस के साथ अपने संबंधों को चीन-रूस समीकरण से अलग दिशा में आगे बढ़ा सकता है।

इसी संतुलनकारी भूमिका ने भारत को वैश्विक स्तर पर एक स्वतंत्र शक्ति के रूप में स्थापित किया है।

अमेरिका की ओर से चीन पर शुल्क बढ़ाने के बाद वैश्विक आपूर्ति शृंखला का पुनर्गठन तेज हो गया है। कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत सहित एशिया के अन्य देशों में वैकल्पिक विनिर्माण क्षमता तलाश रही हैं। यह भारत के लिए एक बड़ा अवसर है, पर साथ ही चुनौतियां भी कम नहीं हैं, क्योंकि अमेरिका और रूस दोनों के साथ भारत संतुलित संबंध बनाए रखने की नीति पर चलता है।

हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत और अमेरिका की रणनीतिक साझेदारी मजबूत हो रही है, जबकि रूस इस क्षेत्र में चीन के साथ गहरी साझेदारी चाहता है। इस विरोधाभासी परिदृश्य में भारत की कूटनीति को अत्यंत सावधानी से आगे बढ़ना होगा। भारत ने अभी तक इस संतुलन को कुशलता से निभाया है और यही उसकी विदेश नीति की सबसे बड़ी उपलब्धि है।

रक्षा क्षेत्र की बात करें, तो भविष्य की दिशा संयुक्त उत्पादन और तकनीकी हस्तांतरण के मॉडल पर आधारित होगी। भारत आत्मनिर्भर रक्षा उत्पादन की ओर बढ़ रहा है और रूस इसके लिए एक विश्वसनीय साझेदार बन सकता है। ब्रह्मोस जैसी सफल परियोजनाएं दोनों देशों की क्षमता को स्पष्ट रूप से दर्शाती हैं।

व्यापार के क्षेत्र में ‘नार्थ-साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर’ भारत के लिए यूरोप और मध्य एशिया से जुड़ने का नया मार्ग खोल सकता है। इसके अलावा, यूरोप के साथ मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) पर चल रही बातचीत भविष्य में भारत के व्यापार को कई गुना बढ़ा सकती है।

वैश्विक व्यवस्था तेजी से बहुध्रुवीय स्वरूप ले रही है। अमेरिका, चीन, रूस और उभरती अर्थव्यवस्थाओं के बीच शक्ति का पुनर्संतुलन बन रहा है। भारत-रूस संबंध इस व्यापक वैश्विक भूमिका के महत्त्वपूर्ण घटक हैं।

आने वाले वर्षों में भारत और रूस ऊर्जा, रक्षा, उर्वरक, आर्कटिक सहयोग, साइबर सुरक्षा और अंतरिक्ष कार्यक्रमों में अपने सहयोग को नई दिशाओं में विस्तार दे सकते हैं। उत्तरी समुद्री मार्ग के माध्यम से एशिया और यूरोप के बीच तेज आपूर्ति शृंखला विकसित करने में भारत की भूमिका भविष्य में महत्त्वपूर्ण हो सकती है।

कृषि क्षेत्र की दृष्टि से भारत के लिए रूस उर्वरक का एक स्थिर और किफायती स्रोत बना हुआ है, जिसने वैश्विक मूल्य-वृद्धि के दौर में भारतीय किसानों को बड़ी राहत दी है। रूस की ऊर्जा परियोजनाओं में भारत की भागीदारी दोनों देशों के आर्थिक संबंधों में नई गहराई जोड़ सकती है।

साइबर सुरक्षा और नवोन्मेषी डिजिटल तकनीकों के क्षेत्र में रूस की विशेषज्ञता और भारत की तकनीकी क्षमता मिलकर महत्त्वपूर्ण वैश्विक खतरों से निपटने का मार्ग प्रशस्त कर सकती हैं। अंतरिक्ष कार्यक्रमों में भी संभावनाएं व्यापक हैं, विशेष रूप से गगनयान मिशन और भविष्य की मानव अंतरिक्ष उड़ान परियोजनाओं में रूस की भूमिका अहम है।

इन सभी आयामों के बीच भारत-रूस संबंधों की स्थिरता इस बात को रेखांकित करती है कि यह साझेदारी केवल कूटनीतिक विकल्प नहीं, बल्कि बहुध्रुवीय होती वैश्विक व्यवस्था में भारत की रणनीतिक आवश्यकता है। मौजूदा परिस्थितियां यही संकेत देती हैं कि दोनों देशों की साझेदारी आने वाले वर्षों में और अधिक मजबूत, बहुआयामी तथा भारत के दीर्घकालिक राष्ट्रीय हितों के अनुरूप विकसित होगी।