श्रद्धा की धुरी होती है और वह जीवन में तथा जीवन के बाद पूजनीया बनी रहती है। वह संज्ञा होते हुए भी भाववाचक होती है और एकवचन होकर भी बहुवचन बन जाती है। यानी मां एक वैशिष्ट्य है और किसी संतान की मां का क्षितिज उसी तक सीमित नहीं रहता है। वह सबकी मां होती है। इसलिए हाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मां को एक राजनीतिक रैली में मंच से गाली देना सिर्फ मोदी की पीड़ा नहीं, भारतीय परंपरा पर एक बड़ा प्रहार है। मां का स्वरूप कितना असीम होता है, यह हमारे सनातन बौद्धिक प्रवाह में उपलब्ध वेद, उपनिषद, रामचरितमानस आदि में देखा जा सकता है।

उसी असीम को हमने राष्ट्र और पृथ्वी दोनों को समर्पित किया है। भारत और पृथ्वी के साथ माता जुड़ते ही भूगोल भी जीवंत स्वरूप ले लेता है। मोदी संभवत: अन्य गालियों को भूल या पचा गए होंगे, पर यह पीड़ा उनके जीवन में बनी रहेगी। इसलिए इस घटना के और भी अभिप्राय हैं।

आपातकाल के समय को इसकी शुरुआत कहा जा सकता

संसदीय जनतंत्र की अवनति का एक बड़ा कारण सामाजिकता के बोध का लुप्त हो जाना है। ऐसा होने से यह राजनीतिक बाजार बन जाता है, जिसमें हर व्यक्ति अपने अस्तित्व के लिए नए-नए नुस्खों की निरंतर खोज में रहता है। इनमें मूल्यों की बलि चढ़ती है। भारतीय राजनीति कुछ दशकों से उसी राह से गुजर रही है। अगर कालक्रम निर्धारित करना हो, तो देश में आपातकाल के समय को इसकी शुरुआत कहा जा सकता है। तभी से बेरोकटोक इसमे ह्रास होता चला गया। एक समय था, जब विचारधारा के स्तर पर उत्तर और दक्षिण ध्रुवों के बीच भी उदाहरण देने लायक सामाजिकता थी।

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अटल बिहारी वाजपेयी जनसंघ के अग्रणी नेता थे, तो हीरेन मुखर्जी कम्युनिस्ट पार्टी के शिखर पर थे। वैचारिक राजनीतिक टकराव के महासागर में दोनों में मित्रता थी। मुखर्जी ने ही वाजपेयी को ‘राइट मैन इन रांग पार्टी’ (गलत पार्टी में सही आदमी) कहा था। तब वाजपेयी ने पूछा था कि ‘सही पार्टी में आने पर वे उन्हें कौन-सा पद देंगे?’

साठ और सत्तर के आरंभिक वर्षों के संसदीय इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे। दत्तोपंत ठेंगड़ी उत्तर प्रदेश से जनसंघ पार्टी से राज्यसभा में सदस्य बने। भूपेश गुप्ता कम्युनिस्ट पार्टी से बंगाल का राज्यसभा में प्रतिनिधित्व करते थे। पर दोनों में परस्पर समझ स्पष्ट दिखाई पड़ती थी। एक बार ठेंगड़ी जब बोलने के लिए खड़े हुए तो कांग्रेस के एक सदस्य ने चुटकी लेते हुए गुप्ता की ओर इशारा किया कि ‘आपको आपके मित्र का समर्थन मिल रहा है।’ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे संपूर्णानंद और जनसंघ के संगठन मंत्री नानाजी देशमुख के बीच मित्रता इतनी अधिक थी कि नानाजी के आग्रह पर संपूर्णानंद ने दीनदयाल उपाध्याय की ‘पोलिटिकल डायरी’ का प्राक्कथन लिखना स्वीकार कर लिया।

समाजवादी नेता एनजी गोरे ने नेहरू की आत्मकथा का मराठी में अनुवाद किया था। सामाजिकता की भावना राजनीतिक मर्यादा की लक्ष्मण रेखा बन जाती है। इसका जिस अनुपात में अंत होता है, मर्यादा का मर्दन भी उसी अनुपात में होता है। आज राजनीति में सामाजिकता का भाव रखने वाले संशय से देखे जाते हैं। इसे साहसपूर्ण तरीके से तोड़ कर वाजपेयी-मुखर्जी संस्कृति को जीवित करना ही मोदी की मां को दी गई गाली जैसी व्याधि की औषधि है।

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इसी का एक और अभिप्राय है, जो चिंता का नहीं, चिंतन का विषय अधिक है। चिंता व्यक्ति या समाज की ऊर्जा को बेवजह नष्ट करती है। वह नकारात्मक परिणामकारी होता है, पर विषय को चिंतनीय बना देने से नई इच्छाशक्ति और पहल की भावना का सृजन होता है। अमेरिकी राष्ट्र पर बोलते हुए जार्ज वाशिंगटन ने और द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान चर्चिल ने राष्ट्रीय नेतृत्व को चिंता के भंवर में फंसने नहीं दिया। दोनों का संदेश समय और परिस्थितियों पर चिंतन करने पर केंद्रित था। मोदी ने भी इस कुसंस्कृति पर चिंता नहीं की, आत्मचिंतन के लिए प्रेरित किया है।

समकालीन भारतीय राजनीति में कश्मीर से कन्याकुमारी तक गालीबाजों की एक फौज दिखाई पड़ती है। इस कुसंस्कृति के माध्यम से वे सार्वजनिक जीवन में स्थापित ही नहीं हुए, बल्कि प्रोत्साहित और पुरस्कृत भी होते गए। जिन लोगों का सामाजिक, शैक्षणिक या समाजोपयोगी किसी भी क्षेत्र में कोई भी मूल्य नहीं है, बल्कि वे नकारात्मकता के प्रतीक हैं, वे राजनीतिक वजूद और रसूख वाले नेता बन जाते हैं। ऐसा क्यों हो रहा है, यह सोचने का विषय है। आश्चर्य है कि वे समाज और राजनीतिक मूल्यों का चीरहरण करते हुए निंदनीय, पर प्रतिष्ठित, दोनों एक साथ बने रहते हैं।

निंदनीय और प्रतिष्ठित, दोनों एक साथ होना विरोधाभासी है, पर राजनीति में यह संगम की तरह है। यही कारण है कि दीनदयाल उपाध्याय ने ‘पोलिटिकल डायरी’ में मतदान किसे और किस आधार पर करें, इसका सापेक्ष विश्लेषण किया था। उन्हें दलीय व्यवस्था में इस बुराई की संभावना का अंदेशा था, लेकिन तब और अब में एक गुणात्मक ह्रास हुआ है। तब लड़ाई कम और विकल्प अधिक तथा श्रेष्ठ थे। अब राजनीति में निम्न मानवीय आचरण का उपयोग बढ़ गया है। यह जनतंत्र के लिए खतरे की घंटी है और राजनीति के प्रति अनास्था और उदासीनता के भाव को पैदा करने में खाद पानी की तरह है।

इसके लिए शत-प्रतिशत समाज दोषी है। उसने प्रतिकार की क्षमता और संकल्प शक्ति, दोनों को स्वत: समाप्त कर लिया है। कोई व्यक्ति बाजार में दस रुपए का सौदा खरीदते समय अर्थशास्त्र पढ़े बिना उसके नियमों का व्यावहारिक रूप प्रस्तुत करता है। मगर वही व्यक्ति राजनीतिक निर्णय करने में सहज और सरल नियमों को जानने, समझने में क्यों असमर्थ हो जाता है। प्रधानमंत्री मोदी की मां के प्रति अपमानजनक भाषा संभवत: गिरावट की अंतिम सीढ़ी साबित हो सकती है, ताकि शास्त्रार्थ की विरासत का दस्तक हमें सुनाई पड़े। विमर्श की समकालीन स्थिति पीढ़ी के लिए अभिशाप की तरह है।