कभी गांवों की गलियों और कस्बों की चौपालों में दिवाली का अर्थ सिर्फ दीपों की रोशनी नहीं होती थी। वह मिट्टी की सोंधी गंध, खिलखिलाते बच्चों की हंसी और कुम्हार के चाक पर घूमती मिट्टी से बने रंग-बिरंगे खिलौनों की जादुई दुनिया से भी जुड़ा था। मिट्टी की घंटियां, छोटे-छोटे हाथी, घोड़े, गुड़िया, घर, झूले, दीप और चूल्हा-चौका के बर्तन दिवाली के मौके पर बाजारों की शोभा बढ़ाते थे। आज यह सब दृश्य लगभग लुप्त होते जा रहे हैं।

अब दिवाली पर बाजार सजते तो हैं, लेकिन हर तरफ प्लास्टिक से तैयार सामान भरे रहते हैं। मिट्टी से तैयार दीये से लेकर खेल-खिलौने कहीं किसी कोने में छिपे होते हैं, जिन्हें लोग पूजा के लिए या अपनी इच्छा से थोड़ी मात्रा में खरीदते हैं, औपचारिकता पूरी करने की खातिर। मूर्तियां भी अब कई बार प्लास्टिक या अन्य वस्तुओं से तैयार की जाती हैं। सवाल उठता है कि आखिर कहां चले गए दिवाली के त्योहार के जीवन के तौर पर देखे जाने वाले माटी के खिलौने?

भारतीय समाज में मिट्टी की वस्तुएं या खेल-खिलौने बनाने वाले लोगों का कार्य केवल उपयोगी वस्तुएं बनाना नहीं था, बल्कि वे हमारी लोकसंस्कृति का संवाहक रहे हैं। त्योहारों से जुड़ी प्रत्येक वस्तु- दीये, खिलौने, प्रतिमाएं- कला का जीवंत उदाहरण थीं। समाजशास्त्रियों का मत है कि मिट्टी के खिलौने ‘लोकस्मृति’ के वाहक थे। वे बच्चों को अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जोड़ते थे। शहरीकरण और बाजारवादी संस्कृति ने इस संबंध को तोड़ दिया।

अब खिलौनों का निर्माण कारखानों में होता है, जहां भावनाओं की जगह ब्रांड और मुनाफे ने ले ली है। भारत में 2011 की जनगणना के अनुसार देश में लगभग सत्ताईस लाख कुम्हार परिवार थे, जिनमें से अधिकांश ग्रामीण इलाकों में रहते हैं। पर 2020 के बाद से मिट्टी के काम से जुड़े परिवारों की संख्या में लगातार गिरावट आई है। राष्ट्रीय हस्तशिल्प विकास निगम की एक रपट के अनुसार, सत्तर फीसद ऐसे पारंपरिक परिवार अब वैकल्पिक रोजगार की ओर जा चुके हैं। इसका एक प्रमुख कारण है सस्ते प्लास्टिक और चीन निर्मित खिलौनों का बाजार पर कब्जा।

दिवाली पर पहले जहां कुम्हार की कमाई का बड़ा स्रोत मिट्टी के दीये और खिलौने होते थे, अब उनकी जगह बिजली से चलने वाले दीये और पालिमर से बने सजावटी सामानों ने ले ली है। मनोविज्ञान बताता है कि बच्चे अपने खिलौनों के माध्यम से कल्पना, सृजन और सामाजिक व्यवहार सीखते हैं। मिट्टी के खिलौने बच्चों को स्पर्श का अनुभव और रचनात्मक जुड़ाव प्रदान करते थे। जब बच्चा मिट्टी के घोड़े को रंगता या अपनी गुड़िया से बात करता था, तो वह वस्तु उसके लिए जीवित प्रतीक बन जाती थी, जो उसे सामाजिक भूमिकाएं, भावनाएं और संबंधों का अभ्यास कराती थी। यह बच्चे के लिए एक तरह का सामाजिकता का प्रशिक्षण होता था, जो उनके भीतर संवेदनशीलता और संवेदना के तत्त्व भरता था।

आज के चमकदार प्लास्टिक खिलौने यह अनुभव नहीं दे पाते। वे मशीन-निर्मित हैं, जिनमें ‘मनुष्य का स्पर्श’ नहीं होता बाल विकास विशेषज्ञों का मानना है कि कृत्रिम खिलौनों की अधिकता से बच्चों में कल्पनाशक्ति और आत्मसंवाद की प्रवृत्ति घट रही है, जबकि मिट्टी के खिलौने सृजनशीलता को प्रोत्साहित करते थे। इसकी वजहें मनुष्य अथवा किसी भी जीव के साथ प्रकृति के संबंधों के बारे में समझ कर खोजी जा सकती हैं।

समाजशास्त्री यह भी मानते हैं कि खिलौनों का लोप केवल आर्थिक नहीं, संस्कृति के अवमूल्यन की कहानी भी है। पहले दिवाली केवल उपभोक्तावादी पर्व नहीं थी, वह लोकजीवन का उत्सव थी। कुम्हार, बढ़ई, दर्जी, लोहार का पेशा करने वाले तमाम लोग, सबके पास काम होता था। अब पूरा बाजार कार्पोरेट नियंत्रण में आ गया है। ‘मेड इन चाइना’ यानी चीन निर्मित खिलौने या प्लास्टिक के दीप हमारे उत्सवों को बाजार की वस्तु बना रहे हैं। इसके परिणामस्वरूप गांव की पारंपरिक कारीगरी धीरे-धीरे नष्ट हो रही है।

फिर भी, कुछ सकारात्मक प्रयास हो रहे हैं। खादी और ग्रामोद्योग आयोग ने 2021 में ‘कुम्हार सशक्तीकरण योजना’ शुरू की, जिसके अंतर्गत उन्नीस हजार से अधिक कुम्हार परिवारों को इलेक्ट्रिक चाक वितरित किए गए। कई राज्यों में ‘मिट्टी महोत्सव’ और ‘लोककला हाट’ आयोजित किए गए। एक तरह से मिट्टी पर हावी होते बाजार का सामना करने के मकसद से जो प्रयास किए गए, उसके नतीजे थोड़ी उम्मीद बंधाते हैं। शैक्षणिक संस्थान और कला विद्यालय अब ‘हस्तनिर्मित खिलौना कार्यशाला’ आयोजित कर बच्चों में मिट्टी से जुड़ने की संवेदना फिर से जगा सकते हैं।

मिट्टी के खिलौनों का एक और पहलू है पर्यावरणीय स्थायित्व। ये खिलौने पूरी तरह जैव-अपघटनीय होते हैं। जबकि प्लास्टिक खिलौने प्रदूषण और कचरा संकट बढ़ाते हैं। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी, मिट्टी की गंध और स्पर्श बच्चे के इंद्रिय अनुभव को समृद्ध करते हैं। यह प्राकृतिक जुड़ाव उसे पृथ्वी से संबंध का बोध कराता है, जो आधुनिक तकनीकी जीवन में खोता जा रहा है।

मिट्टी के खिलौने केवल सजावट नहीं थे, वे लोकसंस्कृति, पर्यावरण और बाल मनोविज्ञान, तीनों का संगम थे। इनका लोप केवल परंपरा का नहीं, हमारे समाज के संवेदनशील हिस्से के मिट जाने का संकेत है। अगर हम दिवाली को सिर्फ रोशनी का नहीं, बल्कि लोक जीवन की पुनर्स्मृति का पर्व मानें, तो मिट्टी के खिलौनों की वापसी संभव है। यह पुनरुत्थान तभी होगा, जब बाजार, सरकार और समाज मिलकर मिट्टी की कला को जीवित रखने का संकल्प लें। तभी अगली पीढ़ियां समझ पाएंगी कि मिट्टी के खिलौने सिर्फ खेल नहीं, संस्कृति की आत्मा हैं।