हाल ही में लखनऊ में जिस तरह के दृश्य सामने आए, वह उस व्यापक सामाजिक प्रवृत्ति का आईना है, जिसमें सार्वजनिक संपत्ति के प्रति हमारी जिम्मेदारी लगातार कमजोर पड़ती जा रही है। एक कार्यक्रम के दौरान सजावट के लिए लगाए गए पौधों को जिस सहजता से तथाकथित सभ्य लोगों ने उठा लिया, उसने एक असहज सवाल खड़ा किया है कि विकास की भाषा धाराप्रवाह बोलने वाले हम लोग, क्या अपने नागरिक होने का अर्थ भूलते जा रहे हैं! यह घटना इसलिए भी विचलित करती है क्योंकि इसमें वे लोग शामिल नहीं थे, जिनके लिए मजबूरी या अभाव का तर्क दिया जा सके।
गमले उठाने वाले वैसे लोग थे, जिन्हें समाज संपन्न, शिक्षित और ‘सभ्य’ मानता है। जब लाखों रुपए की गाड़ी रखने वाला व्यक्ति कुछ सौ रुपए का सरकारी गमला उठाकर ले जाता है, तो यह उस मानसिकता की अभिव्यक्ति होती है, जिसमें सार्वजनिक वस्तु को ‘मुफ्त का माल’ समझ लिया जाता है। यह आर्थिक नहीं, बल्कि मानसिक दरिद्रता का भी लक्षण है।
हम अक्सर यह मान लेते हैं कि शिक्षा, आय और आधुनिक जीवन-शैली अपने साथ अनुशासन और नैतिकता भी ले आती है, लेकिन ऐसी घटनाएं इस भ्रम को बार-बार तोड़ती हैं। सच यह है कि संपन्नता और संस्कार के बीच कोई स्वाभाविक रिश्ता नहीं है। कई बार सुविधा और ताकत का अहसास व्यक्ति को नियमों से ऊपर होने का भ्रम दे देता है। यही भ्रम सार्वजनिक जीवन को सबसे गहरी चोट पहुंचाता है, क्योंकि इससे नागरिक जिम्मेदारी आत्मसात होने के बजाय धीरे-धीरे क्षीण होती जाती है।
भारतीय संविधान नागरिकों को केवल अधिकार नहीं देता, बल्कि उनके कर्तव्य भी स्पष्ट करता है। सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा करना हर नागरिक का मौलिक दायित्व है, लेकिन व्यवहार में हमने अधिकारों को प्राथमिकता और कर्तव्यों को औपचारिकता बना लिया है। अधिकारों की बात आते ही हम मुखर हो जाते हैं, लेकिन कर्तव्यों की चर्चा होते ही चुप्पी साध लेते हैं। यही असंतुलन समाज के नैतिक ढांचे को भीतर से खोखला करता है।
कुछ समय पहले भी लखनऊ में ही आम महोत्सव के दौरान प्रदर्शनी में सजाकर रखे गए आमों को लोगों ने लूट लिया था। वह भी किसी अव्यवस्थित या अभावग्रस्त भीड़ का आचरण नहीं था, बल्कि उन्हीं नागरिकों का था, जिन्हें ऐसे आयोजनों का जागरूक दर्शक और उपभोक्ता माना जाता है। इससे पहले बड़े आयोजनों के दौरान गुरुग्राम और नोएडा जैसे शहरों में सार्वजनिक स्थलों से फूल-पौधों की चोरी की घटनाएं भी सामने आ चुकी हैं।
महंगी गाड़ियों में इन चीजों की चोरी की तस्वीरें और वीडियो सुर्खियों में आए थे। इसी तरह एक राजनीतिक रैली में लोग खाट लेकर भागते दिख रहे थे। समस्या किसी एक आयोजन या प्रशासनिक चूक की नहीं है, बल्कि यह एक ऐसी मानसिकता का परिणाम है, जो सार्वजनिक स्थान को ‘सरकारी’ और ‘बेपरवाह इस्तेमाल’ की वस्तु मान लेती है।
हम निजी बातचीत में भ्रष्टाचार, व्यवस्था की खामियों और प्रशासन की विफलताओं पर खुलकर चर्चा करते हैं, नेताओं और अधिकारियों को दोषी ठहराते हैं, लेकिन जब अपने आचरण की बारी आती है, तो हम वही करते हैं जो हमें सुविधाजनक लगता है। हम अक्सर उन देशों की प्रशंसा करते हैं, जहां सड़कें साफ हैं, कतारें अनुशासित हैं और सार्वजनिक व्यवस्था सुचारु है, लेकिन हम यह भूल जाते हैं कि यह सब किसी चमत्कार का परिणाम नहीं है।
यह नागरिकों के रोजमर्रा के छोटे-छोटे निर्णयों का फल है—कचरा जहां-तहां न फेंकने, नियम न तोड़ने और जो अपना नहीं है, उसे न छूने का निर्णय। सभ्यता इन्हीं निर्णयों से बनती है। वहां व्यवस्था केवल कानूनों से नहीं, बल्कि नागरिकों के आत्म-अनुशासन से चलती है। सार्वजनिक स्थल वहां सरकार की नहीं, नागरिकों की भी जिम्मेदारी होते हैं।
यह समझना जरूरी है कि सड़कें, उद्यान, स्मारक और सार्वजनिक स्थल किसी सरकार की निजी संपत्ति नहीं हैं। वे हमारे ही कर या टैक्स के पैसों से बने हमारे साझा स्थान हैं। उन्हें नुकसान पहुंचाना आखिर अपनी ही सामूहिक संपदा को क्षति पहुंचाना है। यह वैसा ही है जैसे कोई अपने ही घर की चीजें तोड़ दे और फिर अव्यवस्था का रोना रोए।
सभ्यता की पहचान ऊंची इमारतों, भव्य आयोजनों या चमकदार ढांचों से नहीं होती। उसकी पहचान नागरिकों के छोटे-छोटे व्यवहार से होती है। संस्कार किसी योजना या बजट से नहीं आते, वे रोजमर्रा के आचरण से बनते हैं। सवाल यह नहीं है कि प्रशासन ने कितनी सुरक्षा की या कितने गमले लगाए, सवाल यह है कि क्या हम ऐसे समाज में बदलते जा रहे हैं जहां सार्वजनिक नैतिकता केवल भाषणों और उपदेशों तक सीमित रह गई है!
किसी भी सभ्यता का पतन अचानक नहीं होता। वह धीरे-धीरे होता है। शब्दों से पहले व्यवहार में, नीतियों से पहले आदतों में। जब नियम केवल दूसरों के लिए रह जाते हैं और सुविधा नैतिकता से बड़ी हो जाती है, तब पतन की प्रक्रिया शुरू हो चुकी होती है—चाहे बाहर से सब कुछ कितना ही आधुनिक क्यों न दिखे।
ऐसी घटनाएं हमें यह सोचने पर मजबूर करती हैं कि विकास का अर्थ क्या केवल भव्य आयोजन, सजावट और चमकदार ढांचे हैं। अगर नागरिकों में जिम्मेदारी, संयम और साझा स्वामित्व का भाव नहीं होगा, तो यह विकास सतही और अल्पकालिक साबित होगा। नियमों का पालन डर से नहीं, बल्कि समझ और जिम्मेदारी से होना चाहिए, क्योंकि सभ्यता शोर से नहीं बचती, वह चुपचाप निभाए गए कर्तव्यों से बचती है। और इतिहास आखिर इन्हीं कर्तव्यों का हिसाब रखता है।
