इस हफ्ते राजनीति कई मोड़ों से गुजरी। बिहार के पूर्व पुलिस महानिदेशक गुप्तेश्वर पांडे साधु बनकर आध्यात्मिक जीवन में उतर आए, तो नीतीश कुमार की पार्टी जदयू में कलह गहराती दिखी। दिल्ली में आवारा कुत्तों का विवाद केंद्र तक पहुंच गया। जम्मू-कश्मीर की राज्यसभा सीटों पर कानूनी पेच फंसा है। वहीं उत्तर प्रदेश में जातीय समीकरण फिर से गरम हो गए हैं और भाजपा पर दबाव बढ़ रहा है।

साधु भाव

तमन्ना तो खादी पहनने की थी पर पहनना पड़ गया भगवा चोला। बिहार कैडर के 1986 बैच के आइपीएस अफसर व सूबे के पूर्व पुलिस महानिदेशक गुप्तेश्वर पांडे अब जगदगुरू गोविंदाचार्य महाराज कहलाते हैं। इन दिनों अयोध्या में सरयू तट पर चातुर्मास कर रहे हैं। पूरे सेवा काल में ऐशोआराम का जीवन जीने वाले और वातानुकूलित परिवेश के अभ्यस्त पांडे अब फर्श पर सोते हैं। 2020 में बिहार के पुलिस महानिदेशक थे। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के चहेते माने जाते थे। राजनीति उनका पुराना सपना थी तो 2014 में लोकसभा चुनाव लड़ने के फेर में आइपीएस से त्यागपत्र दे दिया था। यह बात अलग है कि टिकट नहीं मिला।

उनका कहना है कि वे बक्सर सीट से इच्छुक थे जबकि उन्हें दिया जा रहा था बेतिया से। जाहिर है कि तब वे भाजपा के उम्मीदवार बनना चाह रहे होंगे। केंद्र की राजग सरकार ने उन पर दरियादिली दिखाई और दस महीने बाद उनका त्यागपत्र अस्वीकार कर उन्हें वापस पुलिस सेवा में ले लिया। दूसरी बार इस्तीफा 2020 में तब दिया जब सूबे के पुलिस महानिदेशक थे। इस बार नीतीश कुमार की पार्टी में भी शामिल हो गए। सोचा था कि विधानसभा चुनाव जीतकर मंत्री बनेंगे। इस बार भी गच्चा खा गए। टिकट नहीं मिला। ऊपर से जगहंसाई अलग हुई। फिर तो दीन दुनिया से मोहभंग होना ही था। तभी तो साधु बन लोगों को भक्ति की राह दिखा रहे हैं।

रंग फीका

जनता दल (एकी) में अब नीतीश कुमार का रंग फीका पड़ने लगा है। पहले किसी मंत्री की कोई बयान देने की हिम्मत नहीं होती थी। नीतीश की गैर मौजूदगी में भी। सरकार महागठबंधन की रही हो या राजग की। राजद और भाजपा के मंत्री भी उनकी मौजूदगी में मुंह बंद रखते थे। अब मंत्रिमंडल की बैठकों तक में मंत्री आपस में तू-तड़ाक कर रहे हैं। नीतीश के चहेते मंत्री अशोक चौधरी की उपमुख्यमंत्री विजय सिन्हा से कतई नहीं बनती।

चौधरी जद (एकी) का दलित चेहरा हैं। वे कांग्रेस छोड़कर नीतीश के साथ आए थे। जबकि सिन्हा भाजपा के हैं। चर्चा है कि झगड़ा केंद्रीय मंत्री और नीतीश के सहयोगी ललन सिंह और विजय सिन्हा का है। चौधरी इन दिनों ललन सिंह के प्रति वफादारी दिखा रहे हैं। वे अपने दामाद को विधान सभा टिकट दिलाना चाहते हैं। टिकट बंटवारे के वक्त राजग के घटक दलों की यह कलह और विकराल रूप ले सकती है।

कुत्तों का मामला बनाम तीन इंजन

कुत्तों के मुद्दे को लेकर पशुप्रेमी और इनकी मुखालफत करने वालों की रार लगातार बढ़ रही है। तकनीकी प्रावधान इसे सीधे तौर पर स्थानीय निकाय की गड़बड़ी करार दे रहे हैं, वहीं विशेषज्ञ सरकारी नीतियों पर सवाल खड़े कर रहे हैं। तर्क दिया जा रहा है कि कुत्तों के लिए एक ही प्रावधान है कि इन्हें जहां से उठाया जाए, वहीं बंध्याकरण करके छोड़ दिया जाए। पहले भी कई ऐसे अध्ययन सामने आए हैं, जिसमें विशेषज्ञों ने दावा किया है कि इस वजह से ही कुत्तों के काटने की घटनाएं बढ़ रही हैं। दिल्ली में अब तीन इंजन वाली सरकार काम कर रही है। इस बार यह मामला सीधे केंद्र सरकार तक पहुंचा है। जहां खुद केंद्रीय मंत्री ने माना है कि नियम पुराने हो गए हैं और इन्हें संशोधन करने की जरूरत है।

दांव-पेच

जम्मू-कश्मीर की राज्यसभा सीटों का मामला लंबे समय से उलझा है। राज्य में संसद के उच्च सदन के लिए चार सीटें तय हैं। ये सीटें अरसे से खाली हैं। जो राज्यसभा सदस्य राज्य की जगह संघ शासित क्षेत्र बनाए जाने से पहले निर्वाचित हो गए थे, उनका कार्यकाल कब का खत्म हो गया। अगले महीने होने वाले उपराष्ट्रपति चुनाव में जम्मू-कश्मीर के लोकसभा सदस्य ही भाग ले पाएंगे। राज्यसभा सदस्य कोई है ही नहीं तो सूबे की भागीदारी संभव ही नहीं। राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के पिछले चुनाव में भी यही स्थिति थी। केंद्र ने जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव तो जरूर करा दिया पर राज्यसभा की चार सीटों के चुनाव की प्रक्रिया अभी तय नहीं हो पाई है।

भाजपा यहां पंजाब और दिल्ली वाली व्यवस्था नहीं चाहती। उस व्यवस्था में हर राज्यसभा सीट के चुनाव की अलग अधिसूचना जारी होती है। मतलब यह कि जिसकी सूबे में सरकार होती है, राज्यसभा की सभी सीटें वही पार्टी जीत जाती है। उस व्यवस्था को लागू करने से भाजपा को घाटा होगा। तब चारों सीटें नेशनल कांफ्रेंस के खाते में चली जाएंगी। जबकि सारी सीटों के चुनाव की अधिसूचना एक साथ जारी होने पर भाजपा को भी एक जरूर मिलेगी। फिलहाल मामला अदालत में है। जहां कानून मंत्रालय ने चुनाव आयोग के रुख से असहमति जताई है। इसमें सोचने की कोई बात हो ही नहीं सकती कि केंद्र सरकार व्यवस्था वही करेगी जो भाजपा के लिए लाभदायक होगी।

जातियों का ‘कुटुंब’

उत्तर प्रदेश में भाजपा जातीय समूहों के दबाव की राजनीति का सामना कर रही है। पिछले दिनों शुरुआत राजपूत विधायकों से हुई। लखनऊ के पांच सितारा होटल में भाजपा के राजपूत विधायक पहुंचे। बैठक जनसत्ता दल के प्रतापगढ़ के विधायक राजा भैया ने बुलाई थी। उनकी पार्टी के विधान परिषद सदस्य भी इसमें शामिल हुए। सपा के तीन बागी राजपूत विधायक भी पहुंचे। बैठक को ‘कुटुंब’ नाम दिया गया पर असली रणनीति राजपूत समाज के लिए अधिकतम हिस्सेदारी का दबाव बनाना ही था। संकेत गया कि योगी आदित्य नाथ की अघोषित शह के बिना यह संभव नहीं था।

मकसद आलाकमान को चेताना रहा होगा कि योगी के साथ छेड़छाड़ की गई तो बगावत होगी। इससे दूसरी जातियों के नेताओं की भी बेचैनी बढ़ी। कुर्मी विधायकों ने उपमुख्यमंत्री केशव मौर्य के लिए लाबिंग की तो ज्यादा चिंतित पार्टी के ब्राह्मण विधायक दिखे। इस समय उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा 52 विधायक ब्राह्मण हैं। उनकी जनसंख्या भी दूसरी जातियों से ज्यादा है। पर दुविधा यह है कि उपमुख्यमंत्री ब्रजेश पाठक को सारे ब्राह्मण विधायक नेता मानने को राजी नहीं।