धरती पर जितने भी जीव-जंतु हैं, उनमें सबसे बड़ा हिस्सा कीटों का है। लगभग एक करोड़ से अधिक अनुमानित प्रजातियों में से केवल एक छोटा हिस्सा ही वैज्ञानिक रूप से पहचाना जा सका है। कीट मनुष्य के सहायक हैं और ये हमारे खेतों, जंगलों, नदियों तथा घरों तक में पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखते हैं।

मधुमक्खियां और तितलियां परागण कर फसलों को फलने-फूलने में मदद करती हैं। चींटियां मिट्टी को हवादार और उर्वर बनाती हैं। कई कीट अपशिष्ट को विघटित कर स्वच्छता बनाए रखते हैं, जबकि अनगिनत कीट अन्य जीवों के भोजन स्रोत के रूप में कार्य करते हैं। धरती पर जीवन की विविधता का सबसे बड़ा हिस्सा कीटों से ही बनता है। ये छोटे-छोटे जीव न केवल पारिस्थितिकी संतुलन की आधारशिला हैं, बल्कि मानव जीवन की खाद्य सुरक्षा और पर्यावरणीय स्थिरता में भी विशेष योगदान देते हैं। अब यही आधारभूत स्तंभ ढहने लगे हैं।

हाल के अध्ययनों से स्पष्ट हो चुका है कि दुनिया भर में कीटों की संख्या घट रही है। केवल महाद्वीप ही नहीं, बल्कि वे द्वीप भी अब इस संकट की गिरफ्त में आ चुके हैं, जहां प्रकृति अपेक्षाकृत संतुलित मानी जाती थी। फिजी द्वीपसमूह की चींटी प्रजातियों का जीनोम अध्ययन दर्शाता है कि इनकी लगभग 79 प्रतिशत स्थानीय प्रजातियां गायब हो चुकी हैं। इसी तरह, अमेरिका में तितलियों की आबादी दो दशकों में 22 प्रतिशत कम हुई है और यूरोप के संरक्षित क्षेत्रों में भी उड़ने वाले कीटों की संख्या तीन दशकों में 75 प्रतिशत घट गई है। इन आंकड़ों को देखकर यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि हम एक ‘कीट प्रलय’ की ओर बढ़ रहे हैं — और परागक संकट में हैं।

यह संकट केवल पारिस्थितिकी के लिए ही नहीं, बल्कि मानव सभ्यता के लिए भी खतरा है। शोधकर्ताओं का कहना है कि कीटों की आबादी में पिछले डेढ़ सौ वर्षों में भारी गिरावट दर्ज की गई है और अब यह संकट दूरस्थ द्वीपों तक फैल चुका है। जापान के ओकिनावा विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संस्थान के कीट विज्ञानी इवन इकोनोमो ने फिजी द्वीपसमूह की चींटी प्रजातियों के जीनोम विश्लेषण के आधार पर बताया कि वहां की चींटियों की लगभग 69 प्रतिशत आबादी लुप्त हो चुकी है।

वर्ष 2000 से 2020 के बीच अमेरिका में तितलियों की आबादी लगभग 22 प्रतिशत कम हुई। 554 प्रजातियों में से लगभग एक-तिहाई में बड़ी गिरावट दर्ज की गई है, जिनमें कुछ प्रजातियों में 50 प्रतिशत से अधिक की कमी आई। जर्मनी के संरक्षण क्षेत्र में उड़ने वाले कीटों की संख्या पिछले 30 वर्षों में लगभग 75 प्रतिशत तक घट गई है। इसके अलावा, अमेरिका में 45 वर्षों में कीटों के कुछ वर्गों (बीटल्स आदि) में करीब 83 प्रतिशत की गिरावट आई है।

बीते दो दशकों में लगभग 72 प्रतिशत कीटों की संख्या कम हुई है। विशेषज्ञों का मानना है कि दुनिया भर में कीट प्रजातियों की संख्या लाखों में घट चुकी है और बचे हुए कीटों में भी हर वर्ष करीब 1 से 2.5 प्रतिशत तक की कमी दर्ज की जा रही है। यह आंकड़ा केवल वैज्ञानिक चेतावनी नहीं, बल्कि पूरी खाद्य-श्रृंखला और पारिस्थितिकी तंत्र पर मंडराते खतरे का संकेत है।

कीटों के बिना फसल परागण की प्रक्रिया बाधित होगी, मिट्टी में पोषक तत्त्वों का पुनर्चक्रण प्रभावित होगा और पक्षियों से लेकर अनेक जीवों के लिए भोजन स्रोत कम पड़ जाएंगे। इस संकट के पीछे कई कारक जिम्मेदार हैं — सबसे बड़ा कारण है आवास का खत्म होना। खेतों और जंगलों का अंधाधुंध दोहन, शहरीकरण का फैलाव और प्राकृतिक घासभूमियों का संकुचन कीटों के जीवन क्षेत्र को नष्ट कर रहे हैं।

इसके अलावा, आधुनिक कृषि में रासायनिक कीटनाशकों का व्यापक उपयोग गैर-लक्षित कीटों को भी खत्म कर रहा है। जलवायु परिवर्तन ने भी भूमिका निभाई है — तापमान और वर्षा की बदलती स्थिति कीटों के प्रजनन और जीवन-चक्र को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करती है। आक्रामक प्रजातियों का प्रसार भी स्थानीय कीटों पर दबाव बनाता है। उदाहरण के लिए, किसी द्वीप पर बाहरी चींटी या अन्य कीट पहुंचने पर स्वदेशी प्रजातियों के लिए जीवित रहना कठिन हो जाता है।

फिजी द्वीपों का अध्ययन इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है कि वहां के कीट अपेक्षाकृत छोटे भौगोलिक क्षेत्र और सीमित संसाधनों पर निर्भर हैं। जब किसी आबादी में आनुवांशिक विविधता घटती है, तो उनकी अनुकूलन और रोग-प्रतिरोधक क्षमता भी घट जाती है।

भारत जैसे देश में भी इसका असर दिखाई देने लगा है। परागक मधुमक्खियों की संख्या में गिरावट के कारण कृषि उत्पादन प्रभावित हो रहा है। कई अध्ययनों से पता चला है कि परागक कीटों की कमी से फसलों की उपज में 10 से 20 प्रतिशत तक नुकसान संभव है। ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में कीटनाशकों का अत्यधिक इस्तेमाल, वनों की कटाई और जलवायु परिवर्तन ने इस संकट को और बढ़ा दिया है।

यह स्थिति केवल जैव विविधता का नुकसान नहीं है, बल्कि सीधे तौर पर आर्थिक और सामाजिक संकट है। कीटों की सेवाओं को अनमोल माना गया है, क्योंकि वे कृषि, वानिकी और पारिस्थितिकी को निरंतर गति देते हैं। यदि यह तंत्र कमजोर होता है, तो खाद्य सुरक्षा और मानव स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव पड़ेगा।

इस संकट से निपटने के लिए वैज्ञानिकों और नीति निर्माताओं ने कुछ स्पष्ट दिशा-निर्देश सुझाए हैं — प्राकृतिक आवासों की रक्षा, वनों और घासभूमियों को बचाना, और कृषि में एकीकृत कीट प्रबंधन व जैविक तरीकों का अधिकाधिक उपयोग। ताजा आंकड़े बताते हैं कि चाहे फिजी जैसे छोटे द्वीप हों या अमेरिका और जर्मनी जैसे विकसित राष्ट्र — हर जगह कीटों की संख्या घट रही है।

सामाजिक स्तर पर भी नागरिकों की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। घरों और बगीचों में स्थानीय प्रजातियों के फूलों के पौधे लगाना, रासायनिक छिड़काव कम करना और पर्यावरण-अनुकूल आचरण अपनाना छोटे-छोटे कदम हैं, लेकिन इनके व्यापक परिणाम हो सकते हैं। विद्यालयों और समुदायों में बच्चों को कीटों का महत्त्व सिखाना भी आवश्यक है। यह समझना होगा कि कीट केवल छोटे जीव नहीं, बल्कि पृथ्वी की पारिस्थितिकी के अहम स्तंभ हैं। उन्हें लुप्त होने से बचाने के लिए विज्ञान, नीति और समाज — तीनों को मिलकर काम करना होगा। यही हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है और यही भविष्य की पीढ़ियों के प्रति हमारा कर्तव्य भी है।