भारत की राजनीति को लेकर संचार माध्यम प्रतिदिन जो परोसते हैं, वह यही दर्शाता है कि हम अपनी प्राचीन संस्कृति के अत्यंत महत्त्वपूर्ण अंश भूल गए हैं: सुसंस्कृत सामाजिक व्यवहार और मर्यादापूर्ण वैचारिक अभिव्यक्ति! हमारे तरुण और युवा उन लोगों की तरफ देखते हैं, जिनका कृत्य और व्यवहार उनके समक्ष लगातार आता रहता है। इसमें सबसे पहले आते हैं चयनित प्रतिनिधि, विशेषकर संसद में जो कुछ होता है, या नहीं होता है। सवाल है कि क्या हमारे देश में संसद को सुचारु रूप से चलाने की क्षमता प्राप्त करना शेष है?
अगर ऐसा है, तो इस चिंताजनक स्थिति के लिए जिम्मेदार कौन है। यह प्रश्न देश भर के शिक्षकों के समक्ष भी एक चुनौती बनकर पिछले कुछ दशकों में उभरा है कि क्या हम ऐसे व्यक्तित्व निर्माण में असफल रहे हैं, जो भारतीय लोकतंत्र को उसके मूलभूत सिद्धांतों और अवधारणाओं के अनुसार चला सकें? भारतीय ज्ञान परंपरा पर हर कोई गर्व करता है और यह कहने में किसी को हिचक नहीं होगी कि भारत ही गणतंत्र को लागू करने में अग्रणी था! मगर वर्तमान स्थिति को देखकर कोई भी संवेदनशील व्यक्ति निराश ही होगा।
किशोरों और युवाओं के संवेदनशील मस्तिष्क पर पड़ता है गलत असर
प्रारंभ से ‘महाजनो येन गत: सा पन्था:’ का सूत्र बच्चों को सिखाने वाली व्यवस्था इस समय असमंजस का शिकार होकर अपना रास्ता तलाश रही है। संसद के दोनों सदनों की कार्यवाही का प्रसारण इस असमंजस और अकुलाहट को और बढ़ा देता है। यदि संसद में कामकाज के बजाय हंगामा या अमर्यादित व्यवहार होता है, तो ऐसे दृश्यों को सारा देश बार-बार देखता है। विचारणीय बात यह है कि किशोरों और युवाओं के संवेदनशील मस्तिष्क पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा?
अगर कोई किशोर या युवा ऐसा ही व्यवहार अपने शिक्षक के साथ करता है और उस पर कार्रवाई की जाती है, तो क्या यह नैसर्गिक न्याय होगा? जनप्रतिनिधियों के पास तो सभी संसाधन और सुविधाएं उपलब्ध होती हैं, मगर ऐसे किसी किशोर या युवा के सामने तो भविष्य का धुंधलका लगातार गहराता जाता है। उनका व्यग्र और व्यथित होना समाज तथा नीति निर्धारकों की समझ में आना चाहिए।
वर्ष 1960 के आसपास लोकतंत्र की प्रारंभिक समझ के लिए तैयार होते युवाओं के सामने उस समय स्वतंत्रता संग्राम के अनेक वरिष्ठ नायक देश में मौजूद थे। उनके त्याग, तपस्या और सेवा इतिहास की गाथाएं बनने के योग्य थीं और ये बनीं भी। आज के युवाओं के समक्ष आदर्श और नैतिकतापूर्ण आचरण वाले वे ‘महाजन’ कितने हैं और किस स्थिति में हैं, उस पर कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है।
जो हैं, वे समय और व्यवस्था की लगातार बढ़ती चमक-दमक से आच्छादित नई पीढ़ी के आचार-विचार और व्यवहार में छिप जाते हैं, या पीछे धकेल दिए जाते हैं। न्यायालय द्वारा अपराधी घोषित नेता भी अपनी राजनीतिक पार्टी से जुड़े रहते हैं और देश की सियासत की दिशा बदलने में अपनी ऊर्जा लगाते रहने का दिखावा करते रहते हैं। ऐसे नेताओं पर अक्सर कोई रोक-टोक लगाने का कार्य व्यवस्था नहीं कर पाती है। कई बार आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोग राजनीतिक दलों के दशकों तक तारणहार बने रहते हैं।
राहुल गांधी का SIR पर वार, बिहार में दशकों बाद चुनावी एजेंडा सेट कर रही है कांग्रेस। Opinion
कुछ डाक्टर असुविधाजनक अस्पतालों और अध्यापक ग्रामीण स्कूलों में दो-तीन दिन ड्यूटी पर जाकर जिला स्तर के अधिकारियों से साठगांठ कर हफ्ते भर की पूरी उपस्थिति दर्ज करा लेते हैं। स्कूलों में तो ‘एवजी अध्यापक’ के चलन की खबरें कई दशकों से आती रही है। निस्संदेह भारत ने अपने युवाओं की प्रखरता और मेधा से वैश्विक पटल पर बड़ा नाम कमाया है, जबकि उसके संभवत: 30-35 फीसद स्कूल ही अपेक्षित स्तर पर चल रहे हैं, बाकी राम-भरोसे हैं। राज्य सरकारें अन्य प्राथमिकताओं में व्यस्त हैं! सरकारी स्कूलों में लगभग दस लाख स्वीकृत पद खाली हैं। व्यवस्था में इस बात को लेकर कोई चिंता दिखाई नहीं देती है। नीति-निर्माताओं और उनका क्रियान्वयन करने वालों के लिए तो चमकीले निजी स्कूल उपलब्ध हैं।
शिक्षा की चुनौतियां राष्ट्र के समक्ष उभरने वाली चुनौतियों से अलग नहीं हो सकती हैं। यह प्रजातंत्र की किस अवधारणा को पोषित करता है कि एक सार्वभौमिक राष्ट्र भारत के लिए किस देश से क्या खरीदा जाए, यह अमेरिका तय करे? यानी वैश्विक स्तर पर जमींदारी, जिसे उपनिवेशवाद के आकाओं ने ईश्वर-प्रदत्त ‘उत्तरदायित्व’ मान लिया था और जिससे खुद को सुसज्जित कर उन्होंने ‘असभ्यों के उद्धार’ का उत्तरदायित्व उठा लिया था, वह ‘अधिकार’ अभी भी उनकी सोच से बाहर नहीं हो पाया है। ‘अन्य पर श्रेष्ठता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार’ की अदम्य अभिलाषा को कुछ लोग छोड़ने को तैयार नहीं हैं।
अमेरिका और पश्चिमी देश अपने बनाए हथियारों को यूक्रेन को बेचते या देते रहें, उस देश के लड़ते रहने में अपनी स्वार्थ पूर्ति करते रहें और भारत पर आरोप लगाएं कि उसके द्वारा रूस से तेल खरीद की वजह से युद्ध को बढ़ावा मिल रहा है! ऐसे में राष्ट्रीय एकता का सशक्त होना और विश्व के समक्ष उसका जाहिर होना, देश के सम्मान के लिए आवश्यक है।
भारतीय संस्कृति और संस्कारों पर देश गर्व करता है, पुन: ‘विश्व गुरु’ बनने के सपने देखता है, लेकिन आज भी अनेक स्थानों पर कुछ लोग दलित दूल्हे का विवाह के अवसर पर घोड़ी पर बैठना सहन नहीं कर पाते हैं। सोच चाहे अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की हो या गांव के इस (पूर्व) जमींदार की, दोनों में कोई अंतर नहीं है। यह वैचारिकता अब राजनीतिक परिवारों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी स्वरूप ले रही है। यदि थोड़ी देर के लिए पक्ष-विपक्ष की राजनीति से ऊपर उठकर देखा जाए तो स्पष्ट हो जाएगा कि यह समय किसी भी भारतीय से केवल एक ही अपेक्षा करता है कि वह भारत सरकार की अमेरिका के समक्ष न झुकने की नीति का दृढ़तापूर्वक समर्थन करे, चाहे वह सरकार से कितना ही असंतुष्ट क्यों न हो।
पाकिस्तान के विरुद्ध जब सैन्य कार्रवाई हुई, सारे देश ने एकसाथ उस पर संतोष प्रकट किया, सेना के साहस और तैयारी की भूरि-भूरि प्रशंसा की गई। मगर, इस राष्ट्रीय अभिव्यक्ति में भी कुछ लोग अपनी हरकतों से बाज नहीं आए, वे ऐसे प्रश्न उठाते रहे, जो सरकार ही नहीं, बल्कि सेना पर भी अविश्वास पैदा कर दें। शायद वे भूल गए कि उन्होंने इस व्यवहार से अपने प्रति जन समाज में अनावश्यक दूरियां बना लीं! देश में अनुभवी, विचारशील और संयमित नेतृत्व की आवश्यकता हर स्तर पर होती है, राजनीति में इसकी हर दल को सख्त जरूरत होती है।
इस परिप्रेक्ष्य में जब भारत में राजनीतिक अपरिपक्वता की स्थिति पर नजर डाली जाए, तो अनगिनत लोगों को अत्यंत निराशा होगी। इन सब मसलों का समाधान तो शिक्षा संस्थानों और संवैधानिक संस्थाओं से ही निकलेगा। जब हमारे भीतर संस्कार, सद्भाव, सदाचार, राष्ट्र प्रेम और कर्त्तव्य परायणता की नींव ही कमजोर होगी, तो जाहिर है कि हमारा व्यक्तित्व भी वैसा ही आकार लेगा। इसलिए शिक्षा व्यवस्था में समय के साथ जरूरत के हिसाब से सुधार कर उसके मूल्यों को समझने और समझाने की आवश्यकता है।
