दीपावली के बाद देशव्यापी वायु प्रदूषण ने लोगों की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। दूसरी ओर सुखद यह है कि भारत अब वन विस्तार में नई उपलब्धि के साथ नौवें स्थान पर आ गया है। पिछले वर्ष यह दसवें पायदान पर था। संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन (एएफओ) के एक सर्वे ने भारत में वन क्षेत्र में वृद्धि की जानकारी दी है। वैश्विक पर्यावरण संरक्षण के लिहाज से भारत के लिए यह उपलब्धि मील का पत्थर है, क्योंकि देश औद्योगिक, नवीकरणीय ऊर्जा और ढांचागत विकास में निरंतर प्रगति कर रहा है।
ऐसे में नौवें स्थान पर आना सतत् वन प्रबंधन और पारिस्थितिकी संरक्षण में संतुलन को दर्शाता है। एएफओ का सर्वे यह बताता है कि दुनिया का कुल वन क्षेत्र 414 करोड़ हेक्टेयर है। वनों का दायरा पृथ्वी की बत्तीस फीसद भूमि को अच्छादित करता है। इसका आधे से ज्यादा चौवन फीसद भू-भाग केवल पांच देशों, रूस, ब्राजील, कनाडा, अमेरिका और चीन में है। इस तरह भारत अब आस्ट्रेलिया कांगो और इंडोनेशिया के बाद दुनिया के शीर्ष नौ वन-समृद्ध देशों में शामिल हो गया है।
पेड़ों की अस्मिता पर ही मनुष्य व अन्य प्राणियों का जीवन टिका है। पेड़ एक ऐसी प्राकृतिक संपदा है, जिसका यदि विनाश होता है, तो मनुष्य का सुखद जीवन संभव नहीं रह जाएगा। जब से मानव सभ्यता के विकास का क्रम शुरू हुआ है, तब से लेकर अब तक वृक्षों की संख्या में छियालीस फीसद की कमी आई है। पेड़ों की गिनती के अब तक के सबसे समग्र वैश्विक अभियान में दुनिया भर के वैज्ञानिक समूहों ने यह निष्कर्ष निकाला है।
इस अध्ययन का आकलन है कि विश्व में तीन लाख करोड़ वृक्ष हैं। यानी मोटे तौर पर प्रति व्यक्ति 422 पेड़ हैं। हालांकि यह आंकड़ा पूर्व में आकलित अनुमानों से साढ़े सात गुना ज्यादा बताया गया है। दरअसल, पहले के वैश्विक आकलनों ने बताया था कि दुनिया भर में महज 400 अरब पेड़ हैं। प्रति व्यक्ति पेड़ों की संख्या इकसठ है। यह आकलन व्यक्ति आधारित था, इसलिए इसकी प्रामाणिकता पर संदेह था। दुनिया में अभी भी ऐसे दुर्गम स्थानों पर जंगलों का विस्तार है,जहां सर्वेक्षण में लगे मानव-समूहों का पहुंचना और सर्वेक्षण करना आसान नहीं है। क्योंकि इन जंगलों में एक तो अभी भी रास्ते नहीं हैं, दूसरे,खतरनाक वन्य-जीवों की मौजदूगी है।
पेड़ों की गिनती उपग्रह द्वारा ली गई छवियों से की गई है। इस गणना को तकनीक की भाषा में ‘सेटेलाइट इमेजरी‘ कहते हैं। इस तकनीक से पूरा सर्वेक्षण वन-प्रांतरों में लिया गया है। इसमें जमीनी स्तर पर कोई आंकड़े नहीं जुटाए गए हैं। इस अध्ययन की विस्तृत रपट प्रतिष्ठित पत्रिका ‘नेचर’ में छपी है।
इसके मुताबिक पेड़ों की उच्च सघनता रूस, स्कैंडीनेशिया और उत्तरी अमेरिका के उप आर्कटिक क्षेत्रों में पाई गई है। इन घने वनों में दुनिया के चौबीस फीसद पेड़ हैं। पृथ्वी पर विद्यमान करीब 1.4 लाख करोड़ पेड़ उष्ण कटिबंधीय वनों में हैं। इन वनों का चिंताजनक पहलू यह भी है कि वनों या पेड़ों की घटती दर भी इन्हीं जंगलों में सबसे ज्यादा है। इस अध्ययन की प्रामाणिकता इसलिए असंदिग्ध है, क्योंकि इसे बेहद गंभीरता से किया गया है। इसके लिए पंद्रह देशों के वैज्ञानिक समूह बने। इन समूहों ने उपग्रह चित्रों से वन क्षेत्र का आकलन प्रति वर्ग किलोमीटर में मौजूद पेड़ों की संख्या का मानचित्रीकरण में सुपर कंप्यूटर तकनीक का इस्तेमाल किया।
वनों की कटाई की वजह से खतरे में बाघ, पर्यावरण को बचाना बड़ी चुनौती
इस गिनती में दुनिया के सभी सघन वनों की संख्या चार लाख से भी अधिक है। दुनिया के ज्यादातर वन क्षेत्रों में हुए अध्ययनों को भी तुलना के लिए जगह दी गई। उपग्रह चित्रों के इस्तेमाल से पेड़ों के आकलन के साथ स्थानीय जलवायु, भौगोलिक स्थिति, पेड़-पौधे, मिट्टी की दशा पर मानव के प्रभाव को भी आधार बनाया गया। इससे जो निष्कर्ष निकले, उनसे तय हुआ कि मानवीय हलचल और उसके जंगलों में हस्तक्षेप से पेड़ों की संख्या में गिरावट की दर से सीधा संबंध है।
जिन वन-क्षेत्रों में मनुष्यों की आबादी बढ़ी है, उन क्षेत्रों में पेड़ों का घनत्व तेजी से घटा है। वनों की कटाई, भूमि के उपयोग में बदलाव और मानवीय गतिविधियों के कारण हर वर्ष दुनिया में पंद्रह अरब पेड़ कम हो रहे हैं। जिस तरह से भारत समेत पूरी दुनिया में औद्योगीकरण तथा शहरीकरण बढ़ रहा है और बड़े बांध एवं चार व छह पंक्तियों के राजमार्गों की संरचनाएं बनाई जा रही हैं, उससे भी जंगल खत्म हो रहे हैं।
ऐसे समय जब दुनिया भर के पर्यावरणविद् और वैज्ञानिक जलवायु संकट के दिनोंदिन और गहराते जाने की चेतावनी दे रहे हैं, पर्यावरण संरक्षण में सबसे ज्यादा मददगार वनों का सिमटना या पेड़ों का घटना वैश्विक होती दुनिया के लिए चिंता का विषय है। विकास के नाम पर जंगलों के सफाए में तेजी आर्थिक उदारवाद के बाद आई है। पिछले पंद्रह वर्षों में ब्राजील में सत्रह हजार, म्यामां में आठ, इंडोनेशिया में बारह, मैक्सिको में सात, कोलांबिया में 6.5, जैरे में चार और भारत में चार हजार प्रति वर्ग किलोमीटर के हिसाब से वन खत्म हो रहे हैं।
हवाई अड्डे के निर्माण में काटे गए पेड़ों की हुई भरपाई, सवा लाख से अधिक लगाए गए पौधे
यानी एक साल में 170 लाख हेक्टेयर की गति से वन लुप्त हो रहे हैं। यदि यही रफ्तार रही, तो जंगलों के चार से आठ फीसद क्षेत्र, 2030 तक लुप्त हो जाएंगे। वर्ष 2040 तक सत्रह से पैंतीस फीसद सघन वन मिट जाएंगे। इस समय तक इतनी विकराल स्थिति उत्पन्न हो जाएगी कि दुर्लभ पेड़ों की प्रजातियां प्रति दिन नष्ट होने लग जाएंगी।
वृक्षों का संरक्षण इसलिए जरूरी है, क्योंकि वृक्ष जीव-जगत के लिए जीवन-तत्त्वों का सृजन करते हैं। वायु एवं जल-प्रदूषण और भू-क्षरण न हो, यह पेड़ों की अधिकता से ही संभव है। वर्षा चक्र की नियमित निरंतरता पेड़ों पर ही निर्भर है। पेड़ मनुष्य जीवन के लिए कितने उपयोगी हैं, इसका वैज्ञानिक आकलन भारतीय अनुसंधान परिषद ने किया है। इस आकलन के अनुसार, उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में पर्यावरण के लिहाज से एक हेक्टेयर वन क्षेत्र से 1.41 लाख रुपए का लाभ होता है।
इसके साथ ही पचास वर्ष में कुछ खास प्रजाति के वृक्ष करीब पंद्रह लाख की लागत का प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष लाभ देते हैं। भारतीय जनजीवन का प्रकृति से गहरा आत्मीय संबंध है, लेकिन आधुनिक विकास और पैसा कमाने की होड़ ने संरक्षण के इन उपायों को लगभग ठुकरा दिया है।
पेड़ों के महत्त्व का तुलनात्मक आकलन अब शीतलता पहुंचाने वाले विद्युत उपकरणों से भी किया जा रहा है। एक स्वस्थ वृक्ष जो ठंडक देता है, वह दस कमरों में लगे वातानुकूलित यंत्रों के लगातार बीस घंटे चलने के बराबर होती है।
घरों के आसपास पेड़ लगे हों, तो वातानुकूलन की जरूरत तीस फीसद घट जाती है। इससे बीस से तीस फीसद तक बिजली की बचत होती है। एक एकड़ क्षेत्र में लगे वन चार टन आक्सीजन उत्पन्न करते हैं जो अठारह व्यक्तियों की वार्षिक जरूरत के बराबर होती है। फिर भी हम प्रकृति से निरंतर दूरी बनाते जा रहे हैं। तय है, वैश्विक रपट में पेड़ों के नष्ट होते जाने की जो भयावहता सामने आई है, उसकी प्रतिच्छाया में भारत में वन-आच्छादित क्षेत्र में वृद्धि देश की जनता के लिए सुखद अनुभूति का संकेत है।
