हम ऐसे समय में जी रहे हैं जहां हर पल या कहें कि सेकंड की कीमत तय है। मोबाइल ऐप से लेकर कार्यस्थल की बैठक तक, हर जगह ‘उत्पादकता’ का शोर है। इस क्रम में लोग इस हद तक व्यस्त हो चुके हैं कि कई बार लगता है कि वे खुद को भूल गए हैं। वहीं चतुर्दिक छा रही इस तरह की व्यस्तता के माहौल में अगर कोई व्यक्ति थोड़ी देर के लिए खिड़की से बाहर बादलों को निहारने लगे, तो वहां मौजूद दूसरे लोग कहेंगे कि ध्यान दो, वक्त मत गंवाओ! सवाल है कि इस तरह ध्यान देने की सीमा क्या है।
अगर कोई व्यक्ति खयालों की दुनिया में विचरण करता है, तो क्या ऐसा करना उसका चुनाव नहीं होना चाहिए? आखिर यह सब कैसे धीरे-धीरे उससे छिनता जा रहा है? सवाल यह भी है कि क्या सचमुच खयालों में खो जाना वक्त की बर्बादी है या यह हमारे भीतर कुछ बेहद जरूरी बनाता और संजोता है।
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सच यह है कि खयालों में खोना सिर्फ मन की चंचलता नहीं है। यह आत्मा के सांस लेने जैसा है। यह हमें शोरगुल से निकालकर भीतर के शांत कोने में ले जाता है। ऐसे ही क्षणों में हम अपनी थकी हुई चेतना को विश्राम देते हैं और अतीत, वर्तमान एवं भविष्य के धागों को बुनते हैं। कभी कोई पुरानी याद लौट आती है, कभी कोई नया विचार सिर उठाता है, तो कभी कोई अधूरा सपना आकार लेने लगता है। और दुनिया जानती है कि खयालों की इस तरह की दुनिया कई बार जमीन पर हकीकत बनने से पहले की एक जरूरी प्रक्रिया होती है।
इतिहास इसका साक्षी है। न्यूटन अगर बाग में बैठे गिरते सेब को देखकर विचारों में न डूबते, तो गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत शायद और देर से आता। आइंस्टीन भी सापेक्षता का सिद्धांत गढ़ने से पहले कई स्तर पर कल्पनात्मक प्रयोगों से गुजरे होंगे। रवींद्रनाथ ठाकुर नदी की धारा में देखते-देखते कविता बुनने लगे, जो आगे चलकर ‘गीतांजलि’ में दर्ज होकर अमर हुई। इस तरह के न जाने कितने उदाहरण हमारे आसपास बिखरे मिल जाएंगे। यह सब बताता है कि निष्क्रिय दिखने वाला ‘खयालों में डूबना’ दरअसल सक्रिय सृजन की जमीन है।
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खयालों में खोने को सही ठहराने के क्रम में इसके बचाव की दलीलें असल में सिर्फ खयाल नहीं हैं। बल्कि आधुनिक विज्ञान और मनोविज्ञान भी इसे पुष्ट करते हैं। तंत्रिका विज्ञान के अनुसार, जब हम सपनों में खोते हैं, तो मस्तिष्क में एक नेटवर्क सक्रिय होता है, जो रचनात्मक सोच, समस्या के समाधान और आत्म-चिंतन के लिए जिम्मेदार है। मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि दिन में थोड़ी देर ध्यान को बिखरने देना लंबे समय में एकाग्रता और भावनात्मक संतुलन को मजबूत करता है।
विडंबना यह है कि आज का समाज लगातार ‘करते रहने’ को महत्त्व देता है, ‘सिर्फ होने’ की अहमियत नहीं समझता। ऐसे में खयालों में खोना एक तरह का प्रतिरोध है—इस समय-बोध के खिलाफ। जब हम रुककर खिड़की से बारिश देखते हैं, तो हम उस अदृश्य जाल से थोड़ी देर के लिए बाहर निकल आते हैं, जो हमें हर पल उत्पादक बनाए रखने की कोशिश करता है।
कला, साहित्य और संगीत की शुरुआत भी इसी से होती है। किसी चित्रकार के लिए यह कोई रंग की छाया हो सकती है, लेखक के लिए कोई धुंधला दृश्य या संगीतकार के लिए कोई अधूरी धुन। इन्हें आकार देने के लिए पहले इन बिखरे टुकड़ों में खोना पड़ता है, जैसे कोई बच्चा रेत में हाथ डालकर सीपियां खोजता है।
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खयालों में खोना संवेदनशीलता की खेती भी करता है। यही हमें दूसरों के दुख को महसूस करने, किसी चेहरे में छिपी थकान को पहचानने और अनकही कहानियों को शब्द देने का हुनर देता है। यही संवेदनशीलता रचनात्मकता और सहानुभूति दोनों को जन्म देती है।
जीवन के कठिन दौर में भी इसी तरह के खयाल हमें थाम लेते हैं। किसी अस्पताल के इंतजार कक्ष में बैठे हम खिड़की से बाहर खेलते बच्चों को देखकर कुछ देर के लिए बीमारी का डर भूल जाते हैं। या फिर सफर में ट्रेन की खिड़की से गुजरते खेतों को देखकर अपने बचपन का गांव लौट आता है। ऐसे क्षण हमें स्थिर और मानवीय बनाए रखते हैं।
समाज अक्सर खयालों में खोने वालों को आलसी या अवास्तविक कह देता है, लेकिन सच्चाई यह है कि इस तरह के लोगों के बिना न नए विचार आते हैं, न कला, न विज्ञान और न ही बदलाव की राह खुलती है। सोच में डूबना भी उतना ही जरूरी काम है, जितना किसी तय किए गए अपने काम को पूरा करना है।
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हालांकि यह भी सही है कि हर वक्त सपनों में खो जाना हमें ठोस जमीन से काट सकता है। मगर संतुलन बनाकर खयालों के लिए समय निकालना उतना ही जरूरी है, जितना सोना, खाना या सांस लेना। यह संतुलन ही तय करता है कि हम मशीन नहीं, इंसान बने रहें।
कई बार यह कहना जरूरी हो जाता है कि आखिरकार खयालों में खोना वक्त की बर्बादी नहीं है, बल्कि यह हमारे भीतर की दुनिया का निर्माण है। यही भीतर की दुनिया हमें संघर्षों में थामती है और कल के लिए उम्मीद देती है।
जब हम अपने भीतर से संवाद करते हैं, तब हम बाहर की दुनिया को भी एक नई दृष्टि दे सकते हैं। इसलिए अगली बार जब हम चलते-चलते किसी स्मृति, चेहरे या धुन में खो जाएं, तो किसी के दूसरी ओर ध्यान दिलाने पर उसमें उलझने और घड़ी देखने के बजाय उस क्षण को जी लेना चाहिए। हो सकता है, वही पल हमारे जीवन की सबसे मूल्यवान पूंजी बन जाए।
