भारत में शिक्षकों की भूमिका और उनकी जिम्मेदारियों को लेकर लंबे समय से बहस चलती रही है, विशेष रूप से तब, जब उन्हें गैर-शैक्षणिक कार्यों में लगाया जाता है। देश के विभिन्न राज्यों में शुरू की गई मतदाता सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआइआर) की प्रक्रिया में भी शिक्षकों को बूथ स्तरीय अधिकारी के तौर पर शामिल किया गया है। इसलिए यह बहस नए सिरे से राष्ट्रीय विमर्श का विषय बन गई है।
ऐसी खबरें आईं कि काम के दबाव से कई बूथ स्तरीय अधिकारियों की मौत हो गई। जिनमें हृदयाघात, तनाव और आत्महत्या जैसे कारण बताए गए। ये घटनाएं केवल व्यक्तिगत त्रासदियां नहीं, बल्कि एक गहरी संरचनात्मक समस्या का संकेत हैं, जो बताती है कि देश में शिक्षा के संवाहक कहे जाने वाले शिक्षकों को प्रशासनिक प्रणाली के सामान्य कर्मियों की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है।
शिक्षा की गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है
इससे न केवल शिक्षा की गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, बल्कि शिक्षकों का सम्मान, मानसिक स्वास्थ्य और कार्य संतुलन भी प्रभावित होता है। कुछ समय पहले पश्चिम बंगाल में रंगमाटी पंचायत की एक आंगनबाड़ी कार्यकर्ता की मौत पुनरीक्षण प्रक्रिया के दौरान हो गई। गुजरात में एक शिक्षक ने पत्र लिखकर कहा कि वे लगातार थकान और मानसिक दबाव से जूझ रहे हैं, इस कारण पुनरीक्षण कार्य को आगे जारी नहीं रख सकते। इस तरह मध्य प्रदेश में एक शिक्षक को प्रतिदिन कम से कम सौ मतदाताओं का सर्वेक्षण करने का लक्ष्य दिया गया था और लापरवाही के आरोप में निलंबन के अगले दिन उनका निधन हो गया।
इन घटनाओं से यह सवाल अधिक मुखर होकर सामने आता है कि क्या शिक्षकों की प्राथमिक भूमिका प्रशासनिक कार्यों के बोझ तले दब गई है! यह पहली बार नहीं है जब चुनावी या अन्य गैर-शैक्षणिक कार्यों में लगे शिक्षकों को जीवन की कीमत चुकानी पड़ी हो। वर्ष 2024 के लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश और बिहार में कई मतदान कर्मचारियों की लू से मौत हो गई थी, जिनमें शिक्षक भी शामिल थे।
ये घटनाएं संकेत देती हैं कि समस्या आकस्मिक या व्यक्तिगत स्तर की नहीं, बल्कि संरचनात्मक और प्रबंधन की गंभीर कमी से उपजी है। शिक्षक समाज के निर्माणकर्ता माने जाते हैं। उनसे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा एवं बच्चों का व्यक्तित्व निर्माण और राष्ट्र के भविष्य का उत्तरदायित्व जुड़ा होता है। मगर वास्तविकता यह है कि शिक्षकों का एक बड़ा हिस्सा अपने मूल कार्य, यानी शिक्षण में अपेक्षित समय और ऊर्जा नहीं लगा पाता है। उन्हें चुनावी सेवाओं, जनगणना, पल्स पोलियो अभियान, आधार सत्यापन, मध्याह्न भोजन कार्यक्रम की निगरानी और छात्रवृत्ति एवं सरकारी योजनाओं से जुड़े प्रशासनिक कार्यों में निरंतर लगाया जाता रहा है।
राष्ट्रीय शैक्षिक योजना एवं प्रशासन विश्वविद्यालय की एक अध्ययन रपट के अनुसार, देश के सरकारी स्कूलों के शिक्षक अपने कुल कार्य समय काकरीब उन्नीस फीसद ही वास्तविक शिक्षण कार्य में लगा पाते हैं। उनका शेष समय गैर-शैक्षणिक कार्यों और विद्यालय संबंधी प्रशासनिक गतिविधियों में व्यतीत होता है। इस तथ्य से स्पष्ट है कि शिक्षा की गुणवत्ता को प्रभावित करने वाली सबसे गंभीर समस्याओं में से एक शिक्षक का अपने मूल कार्य से लगातार विचलन है।
राजस्थान के उदयपुर जिले में किए गए एक अध्ययन से पता चला कि सरकारी स्कूलों में प्रतिदिन कक्षा शिक्षण का समय केवल ढाई से तीन घंटे तक सीमित रह गया है, जबकि शेष समय अन्य कार्यों में खर्च होता है। यह स्थिति अभिभावकों को निजी शिक्षण संस्थानों की ओर धकेल रही है, क्योंकि वहां शिक्षक को पूरी तरह शिक्षण कार्य के लिए समर्पित माना जाता है। परिणामस्वरूप सरकारी शिक्षा प्रणाली की विश्वसनीयता लगातार कमजोर होती जा रही है।
शिक्षा का अधिकार अधिनियम- 2009 स्पष्ट रूप से निर्धारित करता है कि शिक्षकों को केवल जनगणना, चुनाव में मतदान और मतगणना प्रक्रियाओं तथा आपदाओं से संबंधित राहत कार्य के अतिरिक्त किसी अन्य गैर-शैक्षणिक कार्य में नहीं लगाया जाएगा। सर्वोच्च न्यायालय भी इसी दिशा में निर्देश जारी कर चुका है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में गैर-शैक्षणिक कार्यों को शिक्षकों के सामने सबसे बड़ी समस्या बताया गया है और यह नीति स्पष्ट रूप से कहती है कि शिक्षकों को उनके मूल कार्य से असंबंधित प्रशासनिक कार्यों में नहीं लगाया जाएगा। इसके बावजूद धरातल पर स्थिति भिन्न है।
अन्य देशों में कैसे हैं हालात?
अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो यह समस्या कुछ अन्य देशों में भी मौजूद है। पाकिस्तान में भी शिक्षकों को चुनावी एवं अन्य सरकारी अभियानों में लगाया जाता है, जिसके कारण शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित होती है।
फिलीपींस ने वर्ष 2016 में एक कानून बनाकर चुनावी कार्य को शिक्षकों के लिए अनिवार्य से स्वैच्छिक कर दिया और उनके लिए विशेष लाभ, जैसे मृत्यु एवं स्वास्थ्य बीमा, अतिरिक्त अवकाश तथा बेहतर मानदेय की व्यवस्था बनाई। वहीं ब्रिटेन और अमेरिका जैसे देशों में चुनाव आयोग के लिए स्वतंत्र कर्मचारी और स्वयंसेवक नियुक्त होते हैं। वहां शिक्षक का उद्देश्य केवल शिक्षण और लोकतांत्रिक मूल्यों का संप्रेषण माना जाता है, न कि चुनाव प्रक्रिया के लिए श्रमिक के तौर पर कार्य करना।
सरकारी कर्मचारी के रूप में देखे जाते हैं शिक्षक
भारत में समस्या की जड़ यह है कि शिक्षकों को शिक्षा क्षेत्र के विशेषज्ञ या ज्ञान संवाहक के रूप में नहीं, बल्कि सरकारी कर्मचारी के रूप में देखा जाता है। इसी मानसिकता के कारण उनका व्यापक उपयोग प्रशासनिक कार्यों में किया जाता है। इस दृष्टि में बदलाव नीतिगत और संरचनात्मक सुधारों के बिना संभव नहीं है। शिक्षकों को गैर-शैक्षणिक कार्यों से मुक्त किए बिना देश में शिक्षा व्यवस्था को गुणवत्तापूर्ण और प्रभावी बनाना मुश्किल है।
इसके लिए सबसे पहले यह सुनिश्चित करना होगा कि चुनाव समेत अन्य कार्यक्रमों या अभियानों के लिए प्रशिक्षित मानव संसाधन विकसित किए जाएं, ताकि शिक्षकों को केवल तभी जिम्मा सौंपा जाए, जब स्थिति अत्यधिक अनिवार्य हो। दूसरा, यदि किसी परिस्थिति में शिक्षकों को ऐसे दायित्व निभाने पड़ें, तो उनके लिए स्वास्थ्य सुरक्षा, उचित मानदेय, कार्यदिवस संतुलन और बीमा जैसे प्रावधानों को अनिवार्य बनाया जाए। तीसरा, राज्य सरकारों और प्रशासनिक तंत्र को शिक्षा के अधिकार कानून का गंभीरता से पालन सुनिश्चित करना होगा।
लिपिक और सहायक कर्मचारियों की नियुक्ति बढ़ाई जानी चाहिए
इसके साथ ही विद्यालयों में लिपिक और सहायक कर्मचारियों की नियुक्ति बढ़ाई जानी चाहिए, ताकि गैर-शैक्षणिक कार्यों का बोझ शिक्षकों पर न पड़े। एक और महत्त्वपूर्ण पहलू शिक्षकों के अभाव का है। कई राज्यों, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में एकल-शिक्षक स्कूलों की संख्या बहुत अधिक है, जिससे शिक्षा की गुणवत्ता स्वाभाविक रूप से प्रभावित होती है। जब कुल शिक्षकों की संख्या अपर्याप्त हो और उन्हें अतिरिक्त दायित्व सौंप दिए जाएं, तो समर्पित शिक्षण सामर्थ्य और कम होता जाता है।
विश्व बैंक के एक अध्ययन के अनुसार, विकासशील देशों में प्राथमिक स्तर पर शिक्षक अनुपस्थिति 11-30 फीसद तक है। भारत में यह अनुपस्थिति कई बार विद्यालय से शिक्षकों को गैर-शैक्षणिक कार्यों के लिए बुलाए जाने के कारण होती है। यदि किसी राष्ट्र को गुणवत्ता आधारित शिक्षा व्यवस्था स्थापित करनी होती है, तो सर्वप्रथम उसे शिक्षक का सम्मान, सुरक्षा और कार्य संतुलन सुनिश्चित करना होता है। अगर शिक्षकों को उनके मूल कार्य से भटकाकर सतत प्रशासनिक भार का साधन बनाया जाता रहेगा, तो शिक्षा व्यवस्था भी सही दिशा में आगे नहीं बढ़ पाएगी।
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