जिस तरह हर रोज सुबह की कोमल किरणें अंधकार को चीरकर नवजीवन का संकेत देती हैं, उसी तरह मनुष्य जीवन की यात्रा आरंभ करता है। दुनिया में आने के बाद धीरे-धीरे डग भरते हुए वह बचपन की भोर से आगे बढ़ता है और यौवन की दोपहरी तक पहुंचता है, जहां तपती धूप के समान संघर्षों की तपन और अनुभवों की आंच उसे परिपक्व बनाती है। उसके बाद ही संध्या की मद्धम आभा दिनभर की आपाधापी को विश्रांति प्रदान करती है। उसी तरह जीवन भी अनवरत गति से अपने रंगों और रागों के साथ बहता चला जाता है।

यह जीवन, जो बाहरी रूप में निरंतर गतिशील प्रतीत होता है, भीतर से कहीं ठहर-सा गया लगता है। गुजरते समय ने अपने-पराए का अंतर स्पष्ट कर दिया है। रिश्तों के बंधनों में बंधकर वह अक्सर अपने लिए नहीं, अपनों की खुशी के लिए जीने को विवश होता है। जीवन की गाड़ी को चलाए रखने के लिए उसे ऊंचे-नीचे पथरीले रास्तों का लंबा सफर तय करना पड़ता है और इसी निरंतर भागमभाग में उसका अस्तित्व परिपक्व होता जाता है। उसके भीतर निस्वार्थ सुख के वे क्षण खोते चले जाते हैं, जिन्हें बार-बार चुराना पड़ता है।

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मनुष्य की दिनचर्या में शांति के पल सहज नहीं आते, उन्हें क्षण-क्षण की आपाधापी में खोजकर ही पाया जा सकता है। पद और प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को संघर्षों से गुजरना पड़ता है। यह साधना तभी सार्थक होती है, जब हम अपनी आत्मा की गहराइयों में उतरकर उसे अर्जित करने का प्रयत्न करें। मगर कभी-कभी यह वचन और उपलब्धि हमारे अपने ही या पराए जनों द्वारा हमसे छीन ली जाती है।

ऐसे क्षणों में इसे अवसाद का कारण न बनाकर अगर हम त्याग की भावना में स्थित होकर देखें, तो वहीं से एक नई खुशी का स्रोत भी खोजा जा सकता है। इसी खोज में अक्सर दिन के सारे क्षण दुविधाओं, द्वंद्वों और उत्तरदायित्वों के बोझ तले दब जाते हैं। रह जाती है केवल एक मूक इच्छा- स्वयं के लिए जी लेने की।

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कभी-कभी यह भी होता है कि जीवन की इस व्यस्त धारा में वे लोग हमसे दूर होते चले जाते हैं, जो हमारे हृदय के सबसे निकट थे, जिनके साथ हमने कभी जीवन के सुनहरे स्वप्न बुने थे। वे रिश्ते, वे क्षण, जिनमें कभी हृदय लयबद्ध हुआ करता था, अब स्मृतियों की परछाइयों में विलीन हो जाते हैं। जब हृदय पर एकाकीपन की छाया पड़ती है, तब मन अनायास ही अतीत की ओर भागने लगता है। बीते हुए क्षणों को फिर जीने की लालसा भीतर उमड़ती है, मानो समय को रोककर उसे फिर से पकड़ लेना चाहता हो। यही ठहराव दुख का कारण बनता है। सत्य को स्वीकार न कर पाने की जिद हमें वर्तमान की मधुर संभावनाओं और आने वाली खुशियों से वंचित कर देती है। और मन, उसी बीते हुए समय को ‘सर्वश्रेष्ठ’ मानकर बारंबार उसकी ओर लौट जाना चाहता है।

हम आत्मचिंतन करें, तो अनुभव करेंगे कि यह केवल मस्तिष्क का एक मोह-जाल है, एक मानसिक कोहरा, जो वर्तमान की स्पष्टता को ढक देता है। वास्तविकता यह है कि जीवन स्वयं में एक चक्र है- सुख और दुख का, संयोग और वियोग का, गति और विश्रांति का। कभी इसकी गति तीव्र होती है, तो कभी मंद। और मंद गति में दुख की छाया अधिक सघन प्रतीत होती है। ऐसे क्षणों में मन को विषादग्रस्त नहीं होने देना चाहिए, बल्कि इन्हीं पलों में भीतर संचित उन सौंदर्यपूर्ण स्मृतियों को फिर जीवंत करना चाहिए, जो हमें आत्मिक विश्रांति प्रदान करती हैं।

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उन रिश्तों को, उन लम्हों को फिर से स्मरण में लाना चाहिए, जिन्होंने हमें संपूर्णता का बोध कराया था। मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है सुख को थामे रखने की और दुख को नकारने की। वह हर उस भाव, वस्तु या व्यक्ति को रोक लेना चाहता है, जिसने उसे सुख प्रदान किया हो। मगर यही आग्रह और मोह उसे पीड़ा की ओर ले जाता है, क्योंकि जीवन का स्वभाव परिवर्तनशील है। कोई भी क्षण, परिस्थिति या अनुभूति स्थायी नहीं।

अगर प्रतिदिन आनंद में डूबे रहना संभव होता, तो ‘आनंद’ शब्द अपनी विशिष्टता खो बैठता। वह केवल एक सामान्य अनुभव बनकर रह जाता। उसी प्रकार अगर दुख भी स्थायी होता, तो उसकी पीड़ा निष्क्रिय हो जाती। इसलिए यह आवश्यक है कि हम अपने भावों में संतुलन स्थापित करें, सुख और दुख, दोनों को समान भाव से स्वीकार करें। तभी हम जीवन की विविधता को उसकी संपूर्णता में अनुभूत कर सकते हैं।

यह भी संभव है कि हम अपने जीवन के उन सुकुमार क्षणों को स्मृति में सहेजकर रखें और जब मनुष्य स्वयं से मिलना चाहे, जीवन से क्षण भर का विराम चाहे, तब वे स्मृतियां उसका मार्गदर्शन करें। सुखद अनुभूतियां, दुख की उष्णता को शीतलता प्रदान करती हैं। वे आश्वासन देती हैं कि ‘यह समय भी व्यतीत हो जाएगा।’ मगर जब जीवन सुख के उजास से भरा हो, तब भी यह न भूलें कि कहीं न कहीं, दुख की कोई मद्धम छाया हमारी प्रतीक्षा कर रही है। यही चेतना हमें विनम्र बनाती है, और यही अनुभूति हमें संपूर्णता की ओर ले जाती है।

जीवन की सार्थकता इसी में है कि हम उसकी निरंतर बदलती लयों को स्वीकार कर सकें। सुख और दुख, उतार-चढ़ाव, हानि और लाभ- ये सब केवल अनुभवों की सीढ़ियां हैं, जो हमें आत्मिक ऊंचाई प्रदान करती हैं। जो व्यक्ति हर परिस्थिति को समभाव से देखना सीख लेता है, वह बाहरी अशांति के बीच भी भीतर की शांति को संजो पाता है। संध्या का सौंदर्य इसी में निहित है कि वह दिन की थकान के बाद विश्राम देती है और आने वाले प्रभात का संकेत भी बनती है। जीवन भी ऐसा ही है अनश्वर, गतिशील और अनुभवों की ज्योति से आलोकित होता है।