हाल ही में एक टीवी कार्यक्रम में प्रतिभागी बनकर आए एक दस वर्षीय बच्चे की भाषा और बर्ताव चर्चा का विषय बने। आभासी दुनिया से लेकर आम परिवेश तक, नई पीढ़ी के बदलते व्यवहार को लेकर लोग चिंतित हुए। बालमन की दिशाहीनता कहें या अति उत्साह और अति आत्मविश्वास का मेल, यह मामला शिक्षकों और अभिभावकों समेत समग्र समाज को चेताने वाला रहा। एक ओर बच्चों की अनुशासनहीनता विमर्श का विषय बनी, तो दूसरी ओर परवरिश के मोर्चे पर कुछ कमी रह जाने को लेकर आक्रोश जताया गया। देशभर में बच्चों के मन-जीवन की बदलती दिशा को लेकर हैरान या परेशान होने वाले भावों से जुड़ा संवाद हुआ।
दरअसल, बच्चों का संवाद अब मासूमियत और मुस्कुराहटों से भरी बातचीत भर नहीं रहा। छोटे-छोटे बच्चों के व्यवहार में एक विचित्र वरिष्ठता नजर आने लगी है। आज की पीढ़ी की जीवनशैली ही नहीं, संवाद की भाषा भी असंयमित हो चली है। शिष्टाचार की कमी घर-आंगन में खेलते बच्चों से लेकर स्कूल के परिसर तक, हर जगह स्पष्ट दिखती है। चिंता की बात है कि नासमझी की उम्र के पड़ाव पर अभद्र भाषा, अनुशासनहीनता और आक्रामक हाव-भाव बच्चों के व्यवहार का हिस्सा बन गए हैं।
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आत्मनियंत्रण के मोर्चे पर पीछे छूटते बच्चे धीरे-धीरे दूसरी समस्याओं से भी ग्रस्त होने लगते हैं। अति आत्मविश्वास का घेरा बालमन के लिए सहज-सी बातों को भी असहनीय बना देता है। ऐसे बच्चे आत्ममुग्धता और आक्रोश के चलते कई बार अतिवादी कदम भी उठा लेते हैं। बच्चों के ऐसे बर्ताव को पोसने के पीछे पारिवारिक माहौल और सामाजिक परिवेश दोनों जिम्मेदार हैं। विडंबना यह है कि हाल के वर्षों में नई पीढ़ी के लिए आत्मविश्वास की एक नई परिभाषा गढ़ी गई है। हमारे घरों में शांत-सधे व्यवहार वाले बच्चों को नासमझ समझा जाने लगा है। मेहमानों के बीच करतब दिखाने या किसी का उपहास उड़ाने के व्यवहार को सराहना मिलने लगी है। बाहर के माहौल ने बच्चों की मासूमियत छीनी, तो अपने आंगन में भी समझ भरे बर्ताव को खाद-पानी नहीं मिल रहा है। समझ और ठहराव की बची-खुची उजास ‘स्क्रीन’ की चमक ने फीकी कर दी।
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बीते कुछ दशकों में कामकाजी अभिभावकों के आंकड़े बढ़े हैं। बच्चे एकल परिवारों में बड़े हो रहे हैं। हर ओर से कसते तकनीक के घेरे में उनका परिचय एक अलग ही दुनिया से हो रहा है। अभद्र रील का अनवरत सिलसिला और असभ्य भाषा वाले हास्य वीडियो देखते बच्चे आत्मविश्वास और अभद्रता का अंतर भूल गए हैं। लंबे समय तक एकाकी परिवेश में रहने के बाद बच्चों को अभिभावकों की रोकटोक भी सहन नहीं होती। वहीं जीवन की आपाधापी में फंसकर समय न दे पाने वाले माता-पिता अपराधबोध के चलते शिक्षकों द्वारा समझाइश देने पर भी बच्चों का ही पक्ष लेते हैं। कुछ बच्चे कार्टून चरित्रों से अजब-गजब भाषा सीख रहें हैं तो बहुत से बच्चे स्मार्ट स्क्रीन पर कुछ मनचाहा-अनचाहा देख-सुन रहे हैं।
ऐसी सामग्री से घिरे होने चलते कहीं कोई बच्चा असभ्य भाषा बोल रहा है, तो किसी बच्चे के सवाल सुनकर बड़े भी हैरान रह जाते हैं। कुछ बच्चे अभद्र और अश्लील हाव-भाव सीख गए हैं। ऐसे बच्चे भी हैं, जो बड़ों की कही छोटी-सी बात भी सहन नहीं कर पा रहे। कुछ बच्चों के बर्ताव में भोलेपन की जगह दिखावे की प्रवृत्ति नजर आने लगी है।
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बच्चों की जीवनशैली और विचार-व्यवहार से जुड़े ऐसे बदलाव सचमुच असहज करने वाले हैं। तकनीक की दस्तक ने नई पीढ़ी के मन-जीवन से जुड़े परिवर्तनों की गति न सिर्फ कई गुना बढ़ा दी है, बल्कि बहुत से नए पहलू भी जोड़ दिए हैं। ‘जेनरेशन अल्फा’ 2010 से 2024 के बीच जन्मे लोगों की पीढ़ी को कहा जाता है। डिजिटल संसार में आंखें खोलने वाली यह पीढ़ी ‘जेन-जी’ की अगली पीढ़ी है।
अल्फा पीढ़ी को जन्म के समय से ही तकनीक ने घेरा हुआ है। शुरुआत से ही कंप्यूटर, लैपटाप, टैबलेट, इंटरनेट और दूसरे डिजिटल यंत्र उनके जीवन का हिस्सा हैं। स्मार्टफोन, सोशल मीडिया और कृत्रिम बुद्धिमत्ता के युग में बड़ी हो रही पीढ़ी के मन-जीवन को थामने के लिए तकनीकी संसाधनों या यंत्रों के सधे इस्तेमाल की सीख देना आवश्यक है।
हालांकि डिजिटल दुनिया में कुशल ‘नेविगेटर’ कही जाने वाली यह पीढ़ी जागरूक और नवाचार के विचारों की धनी भी है, पर तकनीकी जाल में उलझे बच्चे कई मोर्चों पर दिशाहीनता का भी शिकार हैं। यही वजह है कि इस पीढ़ी को संभालने के लिए कुछ मामलों में असीम धैर्य और दिशानिर्देश की भी दरकार है।
समझना मुश्किल नहीं कि बिखरते परिवारों के इस दौर में बच्चे भी अनगिनत परेशानियां झेल रहे हैं। अकेलेपन और अवसाद का शिकार हैं। नई पीढ़ी को भी अपनी दुविधा कहने या शिकायत करने के लिए अपनों का साथ नहीं मिल रहा है। एकल परिवारों में अभिभावकों की व्यस्तता से या तो मनमानी करने की छूट मिल रही है या हद से ज्यादा बंधन। घरों में भी बच्चों के साथ आपसी संवाद कम हुआ है। जबकि नई पीढ़ी का मन-मस्तिष्क जानकारियों और सूचनाओं के भंवर में डूबा हुआ है।
ऐसे में सब कुछ कहने की जल्दबाजी में बहुत से बच्चे बातचीत के ठहराव और भावनात्मक अनुशासन के मोर्चे पर पीछे छूट रहे हैं। असल में बच्चों पर पारिवारिक परिस्थितियों के साथ-साथ समग्र परिवेश का भी गहरा प्रभाव पड़ता है।
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पारिवारिक संबंधों का सकारात्मक रवैया बच्चों को व्यावहारिक जीवन से जोड़ता है। वहीं सामाजिक परिवेश जीवन से जुड़े सरोकारी भाव को समझने की बुनियाद बनाता है। व्यवहार की सभ्यता और वैचारिक संयम का धरातल बच्चों को सध कर संवाद करना सिखाता है। ऐसे में घर के साथ सामाजिक परिवेश में भी सकारात्मक बोलचाल का माहौल होना चाहिए। सभ्य भाषा और संयमित बर्ताव जीवन कौशल हैं। छोटी उम्र में ही बच्चों के भीतर इन कौशलों को निखारने के प्रयास आवश्यक हैं।
शुरुआत से ही व्यवहार को सही दिशा देने के लिए अनिवार्य रोकटोक सहने की आदत न डाली जाए तो एक समय के बाद माता-पिता भी उनके व्यवहार को नियंत्रित नहीं कर पाते। स्वयं को विशेष समझने का भाव जड़ें जमा लेता है। परवरिश के इस मोर्चे पर समय रहते चेतना जरूरी है।
