फसल बीमा योजना का उद्देश्य किसानों को प्राकृतिक आपदाओं से हुए नुकसान की संपूर्ण भरपाई करना है, मगर जमीनी हकीकत इससे उलट दिखाई देती है। फसल बर्बादी के बाद किसान राहत की उम्मीद में भटकता है, राज्य सरकारें केंद्र से वित्तीय सहायता की गुंजाइश तलाशती हैं, जबकि बीमा कंपनियां निश्चिंत रहती हैं कि ‘बीमा शर्तों’ के कारण प्रारंभिक या आंशिक नुकसान पर उन्हें भुगतान नहीं करना है।

अतिवृष्टि और बाढ़ से इस बार पंजाब, महाराष्ट्र, हरियाणा, मध्यप्रदेश, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखंड और जम्मू-कश्मीर के अनेक जिलों में खरीफ की फसलें बुरी तरह प्रभावित हुईं। ऐसी स्थिति में फसल बीमा किसानों के लिए सहारा होना चाहिए था, मगर यह राहत के बजाय चिंता का कारण बन रहा है। बीमा कंपनियों को प्रीमियम के तौर पर किस्तों में पूरा भुगतान करने के बावजूद सरकार को किसानों के लिए राहत राशि बांटने को मजबूर होना पड़ रहा है।

वर्ष 2016 में शुरू हुई ‘प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना’ में हर वर्ष किसान हितग्राहियों की संख्या बढ़ी है। इसका एक कारण यह है कि बैंक ऋण लेने पर बीमा अनिवार्य है। दूसरा, इस बीमा के प्रचार में मात्र दो फीसद प्रीमियम पर किसानों को संपूर्ण फसल सुरक्षा का वादा।

वित्तीय वर्ष 2024-25 में देश में लगभग 4.19 करोड़ ऋणी किसान और 5.22 करोड़ गैर-ऋणी किसान फसल बीमा योजना से जुड़े हैं। योजना के अनुसार किसान केवल दो फीसद तक प्रीमियम देता है, जबकि शेष 98 फीसद हिस्सा केंद्र और राज्य सरकार समान रूप से वहन करती हैं।

इस वर्ष केंद्र सरकार ने 14,600 करोड़ रुपए का प्रावधान किया और लगभग इतनी ही राशि राज्यों ने भी बीमा कंपनियों को दी है। मगर आश्चर्य यह है कि इतने भारी सरकारी निवेश के बावजूद प्रभावित किसानों को उनकी पिछली फसलों में वास्तविक नुकसान का दस फीसद से भी कम मुआवजा मिला है।

पूर्व में फसल नुकसान का मूल्यांकन ‘फसल कटाई प्रयोग’ के माध्यम से तहसील स्तर पर किया जाता था। तीन वर्ष के औसत उत्पादन के आधार पर क्षतिपूर्ति तय होती थी। लेकिन इस पद्धति में राजस्व अमले और बीमा कंपनियों के बीच सांठगांठ से आंकड़े अक्सर किसानों के खिलाफ जाते थे—औसत उत्पादन जानबूझकर कम दर्शाया जाता, जिससे मुआवजा घट जाता था।

कृषि मंत्रालय ने इस व्यवस्था को सुधारने के लिए उपग्रह आधारित फसल आकलन प्रणाली लागू की है। उपग्रह से ली गई तस्वीरों से प्रत्येक किसान के खेत का विश्लेषण कर फसल क्षति का निर्धारण किया जाता है। इसी प्रणाली के आधार पर अगस्त 2025 में गत फसल के लिए देशभर के लगभग तीस लाख प्रभावित किसानों को 3,200 करोड़ रुपए का भुगतान किया गया। इसमें राजस्थान के किसानों को 1,120 करोड़, मध्यप्रदेश को 1,156 करोड़, छत्तीसगढ़ को 150 करोड़ और शेष अन्य राज्यों को 778 करोड़ रुपए दिए गए।

मगर यह राहत किसानों के लिए मरहम के बजाए उनके घावों पर नमक छिड़कने का काम कर रही है। अनेकों पीड़ित किसानों को सिर्फ सौ रुपए से लेकर दो हजार रुपए तक की बीमा राहत राशि उनके बैंक खातों में पहुंचाई गई है। कुछ किसानों को दी गई राशि उनके द्वारा अदा की गई प्रीमियम की दो फीसद रकम से भी कम है।

मध्यप्रदेश के जबलपुर जिले के कुंवरहटा गांव में सभी प्रभावित किसानों के खातों में कुल सत्रह रुपए का ही भुगतान हुआ है। जबकि महाराष्ट्र के शिलोत्तर गांव के एक किसान के खाते में बीमा कंपनी ने ग्यारह एकड़ धान की फसल की क्षतिपूर्ति राशि सिर्फ दो रुपए तीस पैसे जमा कराई है।

उपग्रह तस्वीरों में खेतों की हरी-भरी फसलें दिख जाती हैं, लेकिन यह अंतिम उत्पादन का आकलन नहीं कर पातीं। असल नुकसान तब पता चलता है जब फसल से दाने और भूसे को अलग किया जाता है। जब दाना कम और भूसा ज्यादा निकलता है तो किसानों की मेहनत पर पानी फिर जाता है।

यह समस्या फसल क्षति का बड़ा कारण होती है, जिसका आकलन उपग्रह प्रणाली से करना संभव नहीं हो पाता। यही वजह है कि आकलन में कई विसंगतियां सामने आती हैं और किसानों को वास्तविक नुकसान के अनुपात में बीमा राशि का भुगतान नहीं मिल पाता।

हाल के दिनों में अतिवृष्टि और बाढ़ से हुए फसल नुकसान के बीमा कंपनियों की परिधि में न आने की निराशाजनक शर्तों के बाद कई राज्य सरकारें अपने स्तर पर किसानों को राहत दे रही हैं या केंद्र सरकार से वित्तीय पैकेज मांग रही हैं। फसल बीमा कंपनियां केवल अंतिम उत्पादन पर नुकसान की सामूहिक भरपाई उत्पादन में गिरावट के आकलन से करती हैं। लेकिन हाल में फसलों को हुआ नुकसान प्रारंभिक अवस्था का है, इसलिए बीमा कंपनियां राहत देने से साफ बच रही हैं।

पंजाब सरकार ने 23.81 लाख प्रभावित किसानों को नुकसान की भरपाई के लिए 1,623.51 करोड़ रुपए की राहत राशि वितरित की। महाराष्ट्र सरकार ने 60 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में नुकसान के लिए 1,356.30 करोड़ रुपए जारी किए। अन्य राज्य नुकसान आकलन की प्रक्रिया में हैं।

देखा जाए तो यह बेहद चिंताजनक है कि जब सरकारें प्रीमियम के रूप में अरबों रुपए बीमा कंपनियों को दे रही हैं और कंपनियां संपूर्ण सुरक्षा कवच देने का दावा करती हैं, इसके बावजूद सरकार किसानों को अलग से राहत राशि देने को बाध्य है।

ऐसे में फसल बीमा योजना का वास्तविक औचित्य क्या रह जाता है? क्या यह योजना किसानों से अधिक बीमा कंपनियों को लाभ पहुंचाने का माध्यम बन गई है? शुरुआत से अब तक के आंकड़े बताते हैं कि बड़ी से बड़ी प्राकृतिक आपदाओं में किसानों की फसलें नष्ट होने के बाद भी संबंधित बीमा कंपनियां कभी भी लाभ से वंचित नहीं रही हैं।

ऐसे में फसल बीमा योजना में कुछ आवश्यक सुधारों की जरूरत है। व्यक्तिगत खेत स्तर पर वास्तविक आकलन में फसल नुकसान का निर्धारण केवल उपग्रह से नहीं, बल्कि भौतिक सत्यापन और उपज परीक्षण से भी होना चाहिए। बीमा कंपनियों की जवाबदेही तय करने के लिए भुगतान में अनुचित कटौती पर आर्थिक दंड लगाने की व्यवस्था होनी चाहिए। राज्य स्तर पर पारदर्शी पोर्टल बने, ताकि किसान अपने नुकसान और भुगतान की स्थिति ऑनलाइन देख सके।

प्रीमियम की समीक्षा करना भी जरूरी है। प्रीमियम के अनुपात में न्यूनतम गारंटीड मुआवजा कानूनी रूप से तय किया जाए। इसके अलावा प्राकृतिक आपदा और प्रारंभिक फसल क्षति को भी बीमा योजना में शामिल करना अनिवार्य हो।

फसल बीमा का उद्देश्य किसानों को संकट से उबारना है, न कि उन्हें बीमा कंपनियों के जाल में फंसाना। करोड़ों रुपए का प्रीमियम देने के बाद भी जब किसान को न राहत मिलती है, न भरोसा, तो यह नीति सुधार की मांग बन जाती है। अब जरूरत है कि केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर इस योजना की समीक्षा करें, ताकि यह बीमा कंपनियों का सुरक्षा कवच नहीं, बल्कि किसानों की वास्तविक वित्तीय ढाल बन सके।