प्रदर्शन के मूल में उन्नति होती है। यह भी मान सकते हैं कि प्रदर्शन से तरक्की का मार्ग प्रशस्त होता है। बढ़ने और इससे आगे बढ़ने की लालसा जीवन के क्रम हैं। जीवन में हर हाल में जागृति रहे, इसलिए प्रदर्शन होते रहने चाहिए। जागरूक व्यक्ति नई से नई राह पर चल कर एक से एक उपलब्धियां पा लेता है। ऊंचे से और ऊंचा बढ़ने को कृतसंकल्प रहता है। इसे ही सही विकास की राह पर चलना कहते हैं। विकास और उन्नति या तरक्की कोई अलग चीज नहीं, एक दूसरे के पर्याय हैं। शब्दों के मायाजाल पर मोहित होने की जरूरत तो नहीं है, लेकिन प्रदर्शन को शायद इसीलिए प्रगति सूचक कहा जाता है कि इसमें खुद को अभिव्यक्त किया जाता है।

किसी भी प्रदर्शन से पूर्व नई सकारात्मक सोच लानी होती है। सिर्फ अचानक ही आसमान की ओर देख लेने से कुछ नहीं होता। कम से कम अपने ऊपर आत्मविश्वास के स्तर को कुछ ऊंचा रखना पड़ता है। कुछ लोग उसे अहं के रूप में देख सकते हैं, लेकिन उसी आरोप को संभालना पड़ता है। शुरूआत में दृष्टि एक बिंदु पर न टिक कर इधर-उधर घूमती है, लेकिन सब कुछ देख लेने की फौरी जिज्ञासा इतनी प्रबल होती है कि जितना दिखता है, उससे और अधिक देख लेना चाहती है। इसे सृजक के नजरिए से देखा जा सकता है। दुनिया भर के सृजन के स्रोत ऐसे ही बनते हैं और बढ़ते जाते हैं। उमंगों की हिलोरों से एक खास उमंग जब उठती है ऊपर, तो वह आसमान को छू लेने की चाहत रखती है। इसे ही मुहावरे में कहा जाता है आसमान में छेद करना। यह मूलत: प्रदर्शन का परिणाम है। इसलिए यह आवश्यक है कि आगे बढ़ने की निरंतरता सदा बनी रहे।

शांतिपूर्ण प्रदर्शन से बना रहता है आपसी सौहार्द

आमतौर पर प्रत्येक विद्यार्थी की शैक्षिक प्रगति यानी ‘प्रोग्रेस रिपोर्ट-कार्ड’ बनाया जाता है, जिसे ‘रिजल्ट कार्ड’ या परिणाम-पत्र भी कहते हैं। इसे अच्छे-बुरे या उन्नति-अवनति का परिणाम प्रदर्शन-पत्र भी कह सकते हैं। यहां मुख्य उद्देश्य केवल प्रदर्शन से है। ये अक्सर जीवन में पथ-प्रदर्शक का कार्य कर जाते हैं। अनजाने में आई जटिलताओं का निवारण भी इन्हीं के आधार पर केंद्रित होता है।

आम जीवन में ही नहीं, बल्कि देश-विदेश की सरकारें भी स्वीकार्य प्रदर्शन करवाती हैं। अंतर इतना होता है कि कहीं दिखाने के लिए तो कहीं दूसरे को डराने-धमकाने के लिए ये प्रदर्शन किए जाते हैं। हालांकि प्रदर्शन कोरे प्रदर्शन नहीं होते, न ही ये मूक-बधिर होते हैं, बल्कि कुछ जागरूक लोगों की बुलंद आवाज में भी हो सकते हैं कि जिससे बड़े से बड़े सदन हिल जाते हैं। गहराई से देखा जाए तो शांतिपूर्ण प्रदर्शन से आपसी सौहार्द बना रहता है। टीवी पर एक पारिवारिक धारावाहिक में अलग-अलग जाति-धर्म-भाषा के परिवार हंसी-खुशी से रहते दिखाए जाते हैं। वे बात-बेबात लड़ाई-झगड़े भी करते हैं। फिर सुलह-दोस्ती कर एक सीध में हंसते हुए खड़े दिखते हैं। ये खड़े होने की उनका शैली ही खास प्रदर्शन है। इनके चेहरे दर्शकों की ओर मुंह किए हुए अर्ध-गोलाई में होते हैं।

केवल ज्ञान नहीं बल्कि हमारे व्यक्तित्व का गहन निरीक्षण करता है ‘दर्शन’, आलोचना करने की देता है क्षमता

बहरहाल, प्रदर्शन एक समान हो और उसका फल भी एक समान आए, यह तब संभव है जब एक समान शिक्षण-प्रशिक्षण हो, कोई भेदभाव न रखा जाए। बच्चों को एक स्कूल-परिधान पर्याप्त नहीं होते। उन्हें समान अवसर भी मिलना चाहिए। इसलिए कई विद्यालयों नें अपने विद्यार्थियों को अंग्रेजी के ‘यू’ अक्षर, यानी अर्धगोलाकार आकृति में बैठाना शुरू कर दिया है। इसके फलस्वरूप हर विद्यार्थी अपने शिक्षक के सामने होता है, उनसे सवाल-जवाब या बातचीत भी कर सकता है। इससे वह अपने शैक्षिक प्रदर्शन को बेहतर कर सकता है। एक-दूसरे के पीछे बैठने की मानसिकता कभी भी आगे, और आगे बढ़ने को प्रेरित नहीं करती।

प्रदर्शन का इतिहास है बहुत पुराना

सब जानते हैं स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्र दिवस जैसे मौकों पर देश की जनता को संबोधित किया जाता है। यह भी सरकार की विविध उपलब्धियों के प्रदर्शन का ही मौका होता है। जनसमूह इसे देख-सुन कर मान भी लेता है। इस अवसर पर दुनिया को एक कूटनीति के तहत अपनी ताकत से परिचित भी कराना होता है। विभिन्न झांकियां विकास की कहानियां प्रदर्शित करती दिखती हैं। चूंकि प्रदर्शन विकास के संदर्भ में होते हैं, इसलिए कई लोगों के लिए इसका अध्ययन स्वाभाविक हो जाता है। यों प्रदर्शन का इतिहास बहुत पुराना है। जहां तक लोकतांत्रिक प्रदर्शनों की बात है, इनकी जगहें बदलती रही हैं। जो प्रदर्शन कभी किसी शहर के केंद्र में हुआ करते थे, उनके लिए अब उसी शहर के किसी किनारे-कोने में जगह तय कर दी गई है। चूंकि बेबस जनता का मूल अधिकार होता है प्रदर्शन करना, अपनी बात को सरकार तक पहुंचाना, तो उधर जिम्मेदार सरकार का भी दायित्व बनता है इन प्रदर्शनों को संरक्षित और सुरक्षित रखना। जिस देश में प्रदर्शन जिंदा रहते हैं, वहां लोकतंत्र कभी मरता नहीं।

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प्रदर्शन का दर्शन-शास्त्र समझने के लिए पीछे की ओर भी देखा जा सकता है। गांधीजी के लिखे को केवल याद करने से नहीं चलेगा, उन्हें संजीदगी से पढ़ने और समझने की जरूरत है। यह जानना चाहिए कि ब्रिटिश सत्ता के दौरान भारत ने गांधी जी की प्रेरणा से किस तरह अपनी स्वतंत्रता की मजबूत इच्छाशक्ति का प्रदर्शन किया था और आखिरकार इन्हीं से निकले संदेशों के संकेत समझते हुए, अहिंसक प्रदर्शनों को देखते हुए अंग्रेज यहां से चले गए। यानी प्रदर्शन की दिशा सकारात्मक हो, तो वह देश-दुनिया में स्थायी अध्याय की रचना कर सकता है।