एक समय था जब घर में काम आने वाला अधिकतर सामान हाथ से बनाया जाता था और उसे स्थानीय बाजारों में बेचा जाता था। घरों में महिलाएं पुराने बड़े कपड़ों से सामान खरीदकर लाने के थैले, पायदान, बच्चों के कपड़े बना लिया करती थीं। आज समय की कमी, बाजार में सामान की सहज उपलब्धता ने इस प्रवृत्ति को कम किया है। अब ‘थ्री-डी’ यानी ‘रीड्यूस, रीयूज, रीसाइकिल’ यानी कम और पुन: उपयोग तथा पुनर्चक्रण एक परिष्कृत जुमला बनकर रह गया है।

औद्योगीकरण की वजह से अब अधिकतर चीजों का निर्माण हाथों की जगह आधुनिक तकनीकी से लैस कारखानों में होने लगा है। अब कपड़े धोने, रोटी बनाने, आटा पीसने, मसाला पीसने के उपकरण आम घरों का हिस्सा हैं। बाजार में इतनी जल्दी सुख-सुविधाओं की चीजें आ रही हैं कि हर किसी को नई-नई और बेहतर सुविधाएं चाहिए। अब नए-नए ब्रांड के कपड़े, नए-नए मोबाइल और बड़ी-बड़ी गाड़ियों के नए माडल लोगों को आकर्षित कर रहे हैं। माल से लकदक बाजार सबका ध्यान खींच रहे हैं।

उत्पादन जिस मात्रा में हो रहा है, उसी मात्रा में विज्ञापन लुभाने की पूरी कोशिश में लगे हैं। अब परिवारों में एक-एक सदस्य के पास बीसियों जोड़ी कपड़े देखे जा सकते हैं। कुछ कपड़े तो ऐसे भी होते हैं, जिन्हें एक-दो बार ही पहना गया होता है और फिर कई साल से वे रखे के रखे पुराने हो जाते हैं। हम उन्हें पहनते भी नहीं हैं और किसी को देते भी नहीं हैं। पहन लिए कपड़े अब तोहफे के रूप में किसी को दे भी नहीं सकते। कभी-कभी सर्दियों में कुछ ऊनी कपड़ों का तो एक बार भी पहनने का नंबर नहीं आता है। ऐसे में कुछ वर्षों बाद वे कपड़े पुराने फैशन के लगने लगते हैं, इस कारण हम उन्हें नहीं पहनते हैं।

अठहत्तर हजार तीन सौ करोड़ से ज्यादा का सामान बिना इस्तेमाल के पड़ा हुआ

एक रपट के अनुसार भारतीय घरों में अठहत्तर हजार तीन सौ करोड़ से ज्यादा का सामान बिना इस्तेमाल के पड़ा हुआ है। इसमें बीस करोड़ से अधिक का इलेक्ट्रोनिक सामान है। लगातार चारपहिया गाड़ियों के बढ़ने से शहरों में लगते जाम से लोग परेशान होते हैं, लेकिन हर किसी को लगता है कि यह तो सभी के करने से हो रहा है। जबकि वह भी इस परेशानी को बढ़ाने में अपना प्रत्यक्ष योगदान दे रहा है। महानगरों में रास्तों का जाम होना अब आम समस्या है, जिससे निजात पाने के लिए उपरिगामी मार्ग बनाए जा रहे हैं, उच्चमार्गों को चार लेन से छह लेन किया जा रहा है, सड़कों को चौड़ा किया जा रहा है, पेड़ों को काटा जा रहा है।

मगर असली समस्या की जड़ पर काम नहीं हो पा रहा है। अब गांव खाली होते जा रहे हैं और इसका दबाव शहरों पर पड़ रहा है। घर छोटे और सामान से भरते जा रहे हैं। ज्योतिषी विभिन्न वस्तुओं की खरीद का उचित मुहूर्त बताकर हमें समान खरीदने के लिए कह रहे हैं। विशेष अवसरों पर बड़ी कंपनियां तमाम तरह की छूट दे रही हैं। बैंक ऋण देने के प्रस्ताव भेज रहे हैं।

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बाजार का तो यह काम है कि वह अपना माल बेचे, लेकिन क्या हमें वास्तव में उस वस्तु की जरूरत है? यह हमारे देखने की बात है। पिछले कुछ वर्षों में तोहफा देने की परंपरा भी खूब बढ़ी है। कभी-कभी जब हम किसी मित्र या परिचित को तोहफा देते हैं, तो वह उसकी जरूरत या पसंद का नहीं होता या बड़ा कोई सामान, जो उसके घर में पहले से हो या उसे रखने की जगह नहीं होती है। ऐसे में वह उसे किसी और को दे देता है। कई बार हम अपने मित्र या परिचित की सही स्थिति का पता नहीं लगा पाते हैं। ऐसे में प्राप्तकर्ता उसी तोहफे को किसी और को तोहफे में दे देते हैं और वह तोहफा एक हाथ से दूसरे, दूसरे से तीसरे हाथ घूमता जाता है। जब जरूरत और पसंद के मुताबिक तोहफा नहीं होता है, तो प्राप्तकर्ता का उससे जुड़ाव भी नहीं बन पाता है।

कलम की रिफिल जितने पैसे में आ जाती है दूसरी कलम

प्लेटो ने कहा था- ‘कम चीजों के साथ जीना सबसे बड़ी दौलत है’। इसी बात को किसी ने कहा है- ‘सफर में जितना कम सामान रहेगा, उतना ही आसान रहेगा’। पहले हम सफर के दौरान एक चीज से कई काम निकाल लेते थे। अब ठंडे पेय की बोतल को ही पानी की बोतल के रूप में इस्तेमाल कर लेना, समय-समय पर पैकिंग के डिब्बों को रसोईघर में इस्तेमाल करना या कम कपड़ों और संसाधनों के साथ जीना कंजूसी मानी जाने लगी है। सुख-सुविधा का जितना सामान उतना ही घर संपन्न।

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कम सामान के साथ जीना, उसे संभालकर काम में लेना, उसकी कद्र करना उसके वैकल्पिक उपयोग खोजना हमें अधिक सार-संभाल करने वाला इंसान बनाता है। अब कलम की रिफिल जितने पैसे में दूसरी कलम आ जाती है। ऐसे में खरीदार रिफिल की जगह दूसरी कलम ले लेता है। ऐसी कितनी ही चीजों से हम ‘इस्तेमाल करो और फेंक दो’ की संस्कृति को जन्म देने लगते हैं। एक छोटी घटना हमारे पूरे व्यक्तित्व पर असर डालती है, जिसमें किसी चीज की कद्र न करना किसी इंसान की कद्र न करने की ओर ले जाती है और ऐसे में हम उपभोक्तावादी संस्कृति के हिस्से बनने लगते हैं।
हालांकि कुछ जगहों पर तोहफे की अदल-बदल जैसे छोटे-मोटे प्रयास हुए हैं, लेकिन वे नाकाफी हैं। इक्का-दुक्का संस्थाओं और विद्यालयों ने प्रयोग के तौर पर अपने विद्यार्थियों से शिक्षण शुल्क के स्थान पर प्लास्टिक जमा कराने का काम किया है। प्लास्टिक से सड़क बनाने और प्लास्टिक, कांच, कपड़ों से दुबारा नए उत्पाद बनाने की शुरूआत हुई है, लेकिन ये प्रयास अभी ऊंट के मुंह में जीरे जितने ही हैं।