शहरों में जहां बाहर आबादी के चिह्न नजर आते हैं, वहीं फ्लैट की सुबह-शाम में सिमट चुकी जिंदगी में संवेदनाओं के पदचिह्न कहां छूटते जा रहे हैं? चिमनियों के पार टिमटिमाती रोशनी और घरों की छतें जो पड़ोसी की चहचहाहट से सराबोर रहती थीं, एक अलग किस्म के सन्नाटे में सिमट गईं। पृथ्वी की ‘ठिठुरती-अंधेरी रातों में’ संबंधों के जमा खर्च के हिसाब खाते-खतौनियों में सिमटकर रह गए हैं। कहां गया वह वैश्विक ज्ञान के लिए मोटी किताबों का अध्ययन? जीवन के आर-पार निहारने की विकलता कभी-कभी नए की सार्थकता की तलाश भी करता है। मनुष्यता के विरुद्ध घुसपैठ करने वाली असंवेदनशील दृष्टि इसी विकलता में छंटती चली जाती है।

ऐसे में अनजानी मन:स्थितियों को शब्द-बद्ध कर देने से हम अपने भीतर अस्थिर होती स्थितियों को बचा लेते हैं। जीवन में कभी-कभी पानी में रंग और उसके भीतर ‘उबलती भाप की महक’, ‘पीले पत्ते की गंध’ और ‘नन्हें बादलों की टुकड़ी’ भी देख लेना चाहिए। इससे अपने भीतर की संवेदना सचेत बनी रहती है। जब ढलती हुई संध्या जीवन की ढलती सांझ में परिणत होने लगती है, तब व्यक्ति संवेदनाओं के अधिक निकट होता है। जिन आवाजों को हम दूर से सुन सकते हैं, लेकिन देखने में आंख की हदों के पार जाना संभव नहीं होता था, उन्हें भी देखने की अलग दृष्टि इन संवेदनाओं से निर्मित होती है।

चिंतन से आगे बढ़ते हुए प्रयास करता है मनुष्य

दरअसल, मनुष्य सिर्फ रोटी, कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी बातों का चिंतन नहीं करता, बल्कि उनके लिए चिंतन से आगे बढ़ते हुए प्रयास करता है। मनुष्य सिर्फ इच्छाओं में रमण करता है, जिसमें स्मृतियां हैं, रीति-रिवाज, चिंतन-मिजाज, प्रेम-व्यवहार, पहनावा-शृंगार, खान-पान, बोल-चाल वगैरह एक जगह और उनके परिवर्तन दूसरी जगह, जिन्हें आसानी से रेखांकित किया जा सकता है। लेकिन इस जीवन का काम कक्षाओं में सीखे हुए ज्ञान या धार्मिक उपदेशों से नहीं चलता। खुद से भी लड़ना पड़ता है! सर्वस्वीकृत होना मूर्ति हो जाना है। संघर्ष से असहमतियां बनती हैं, लेकिन अगर मनुष्य सर्वस्वीकृति में जीने लगे, उसकी सारी पीड़ा मिटा दी जाए, सारे अभावों से उसे मुक्त कर दिया जाए, कहीं कोई यातना या प्रतिस्पर्धा न रहे, हर तरह की समृद्धि से उसे भर दिया जाए, तो क्या होगा? अगर ऐसा हो जाए, तब समाज की करुणा मरने लगती है।

जीवन में सुख और दुख का आपस में है गहरा संबंध, हमें शाश्वत आनंद का मार्ग दिखाती है आत्मिक सत्य की प्राप्ति

मनुष्य अपने संघर्षों से मनुष्य है। संवेदनाएं समतल जमीन में जगह नहीं बनाती। सांझ में ही मनुष्य अपने जीवन के उजले पक्ष के गुण देख पाता है। पिछले दशक में चीजों को देखने, समझने और सूक्ष्मता का अध्ययन करने की क्षमता कितनी बाधित हुई है, कभी सोचा है हमने? उजाले को खुद-ब-खुद धीरे-धीरे अंधेरे में सिमटते देखने की कला हममें कितनी बची है? कितना ऐसा कुछ लिखा जा रहा है, जिसे साहित्य का नाम दे दिया गया, लेकिन कितना है उनमें चिंतन का दर्शन? न जाने कितनी पछाड़ खाती भावनाएं, लहूलुहान करते अंतर्द्वंद्व, संदेह और आत्मभ्रांति के बीहड़ अंधड़ आते हैं, जिन्हें मनुष्य भोगता है। मगर क्या भोगने के बाद बची रहती है उसकी मौलिक संवेदनाएं?

अब धीरे-धीरे सुदूर ग्रामीण इलाकों में भी संवेदनात्मक बदलाव या ह्रास देखने-महसूस करने को आसानी से मिल जाता है। नफा-नुकसान के गणित ने संवेदनाओं को छोटा कर दिया है। हाथ में मोबाइल न होने पर ऐसा लगता है, जैसे महाभारत युद्ध में उतरे हों और तीर-धनुष तो लिया ही नहीं। जो सबसे अधिक आत्ममुग्ध है, वही आत्मुग्धता के खिलाफ लड़ाई का नेतृत्व कर रहा है।

दुनिया में सबसे अधिक संवेदन-तत्त्व पर निर्भर हैं बुजुर्ग और बच्चे

यह भी कितना विरल संयोग है। ‘संवेदन’ पुल्लिंग शब्द है, जिसमें ‘आ’ प्रत्यय जोड़ने से ‘संवेदना’ स्त्रीलिंग शब्द बनता है। अनुभूति के स्तर पर स्त्री-पुरुष समभाव तो व्याकरण भी कहता है। कहने का अर्थ यह कि संवेदना के स्रोत तो बहुत हैं इस दुनिया के हर कोने में, बल्कि एक वस्तु भी अपनी जगह रहकर संवेदना का तत्त्व रखती है। कोने में रखा मिट्टी का घड़ा जब उपयोग में नहीं होता, तो भीतर रखा पानी सूख जाता है। घड़े पर धूल की परत चढ़ जाती है। जीवन में संवेदनाएं बची रहें, जब सिर्फ बड़ी-सी दान पेटी को भरकर ही नहीं, कुछ दूर पैदल चलकर, किसी बच्चे या बुजुर्ग को रास्ता पार कराते हुए, घोंसलों से चूजों को देखते हुए आंख भर आए। बाजार के अरण्य में व्यक्ति किसी उत्पाद की तरह हो गया है। खरीदने और बेचने के अतिरिक्त कुछ बचा नहीं है संबंधों में कि बेवजह कोई किसी से मासूम बच्चे-सा संवाद कर सके।

जरूरत बनाम दिखावा, किसी के पास 20 जोड़ी कपड़े तो वहीं किसी के पास किसी तरह चलता है काम

मनुष्यता को बचाने की लड़ाई हर सभ्यता में दर्ज है, लेकिन बचाना और अंत तक बचाए रखने वाली चीज है संवेदनशीलता, जो हमारे व्यक्तित्व और व्यवहार में कितनी व्याप्त है, यह विचारणीय विषय है। हम रोजमर्रा की जिंदगी में कितनी बार ऐसे क्षणों को स्वयं निर्मित करते हैं, जिसमें जाने-अनजाने हम संवेदनहीन पाए गए। कभी बुजुर्गों से झिड़क कर बात करना, कहीं बच्चों को समझे बिना अपने विचार थोपना- ये सब हमारे स्वभाव में इस तरह रच-बस गए हैं कि अब हम इन पर आश्चर्य भी नहीं करते। दुनिया में सबसे अधिक संवेदन-तत्त्व पर निर्भर हैं बुजुर्ग और बच्चे। सारी जिम्मेदारियों की मार इन्हीं से जुड़ी है।

बाजार के अरण्य में व्यक्ति किसी उत्पाद की तरह हो गया है। खरीदने और बेचने के अतिरिक्त कुछ बचा नहीं है संबंधों में कि बेवजह कोई किसी से मासूम बच्चे-सा संवाद कर सके। दरअसल, अधिक विकल्प या साधन गहराई से सोचने की क्षमता को प्रभावित करते हैं। कभी-कभी जवाबों के बीच से गुजरते हुए सवालों में ठहर जाना चाहिए। वे सवाल, जो दूसरों के जीवन से जुड़े हैं, मन को मथते हैं, अधिक जोड़ते हैं संवेदन-तत्त्व से।