मनुष्य का जीवन केवल क्रिया-प्रतिक्रियाओं की शृंखला नहीं है, बल्कि यह एक चेतन अवधान का विस्तार है। पर आज के समय में हम देखते हैं कि जीवन के अधिकतर निर्णय पसंद और नापसंद के खांचों में ढाले जाते हैं। लोग बड़े गर्व से कहते हैं कि ‘मुझे यह पसंद है, इसलिए मैं यह करूंगा या मुझे वह नापसंद है, इसलिए उससे दूर रहूंगा।’ इस अभिव्यक्ति के पीछे जो भाव छिपा है, वह स्वतंत्रता का भ्रम है। पर क्या यह सचमुच स्वतंत्रता है? क्या यह सच में हमारी चेतन प्रवृत्ति का प्रतीक है? नहीं, यह तो कहीं अधिक गहरी मानसिक बेड़ियों की जकड़न है- अदृश्य, किंतु कठोर।

हम यह मान बैठे हैं कि जिसे मैं पसंद करता हूं, वही सही है और जिसे नापसंद करता हूं, वह त्याज्य है। इस द्वैत ने हमारे सामाजिक और पारिवारिक जीवन में इतनी गहरी पैठ बना ली है कि आज लगभग हर संघर्ष, हर मनमुटाव, हर युद्ध का मूल कारण व्यक्ति विशेष की पसंद-नापसंद ही बन गई है। घर की दीवारों से लेकर राष्ट्र की सीमाओं तक, धर्म की परिधियों से लेकर विचारधाराओं के संघर्षों तक, हर स्थान पर यह द्वंद्व व्याप्त है। विडंबना यह है कि हम इसे स्वाभाविक मान बैठे हैं।

पसंद-नापसंद की यह प्रवृत्ति उस सोच का हिस्सा है, जो सीमित है, पूर्वाग्रहों से ग्रस्त है और दूसरों की अपेक्षाओं या अपनी आदतों के अधीन चलती है। जब हमारा मस्तिष्क एक सीमित परिधि में बंद होता है, तब हमारी दृष्टि स्पष्ट नहीं रहती। हम वही देखते हैं, जो हमारी इच्छा देखना चाहती है, हम वही सुनते हैं, जो हमारे मानस को भाता है। ऐसे में जो आवश्यक है, वह हमारे ध्यान से ओझल हो जाता है।

भारतीय योग परंपरा ने इस भीतर की पराधीनता को बहुत गहराई से देखा

अक्सर हम यह कहते हैं कि ‘मैं स्वतंत्र हूं, इसलिए मैं अपने मन की करूंगा’, तो यह वास्तव में स्वाधीनता नहीं है। मन को हमने इतना अधिक तूल दे दिया है कि अब वह हमारे विवेक का स्थान लेने लगा है। हम किसी वस्तु, विचार या व्यक्ति को केवल इसलिए स्वीकार करते हैं कि वह हमें अच्छा लगता है, और किसी को नकारते हैं, क्योंकि वह हमारी पसंद के अनुसार नहीं है। मगर चेतना वहां प्रकट होती है, जहां व्यक्ति यह समझ पाता है कि किसी परिस्थिति में ‘क्या आवश्यक है’, न कि केवल ‘क्या मुझे अच्छा लगता है।’

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इस मानसिक स्थिति का सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह है कि हम अपने भीतर एक सतत टकराव की स्थिति में रहने लगते हैं। हमें जीवन से शिकायतें होती हैं, लोग अच्छे नहीं, समाज गिरा हुआ, रिश्ते बेमानी, धर्म बंटे हुए, राजनीति भ्रष्ट, लेकिन हम यह नहीं देख पाते कि इन सबके मूल में हमारी अधूरी चेतना और सीमित सोच ही है। जब हम केवल अपनी पसंद के दायरे में जीते हैं, तो हमारी दृष्टि व्यापक नहीं रह जाती। फिर जो हमारे दायरे में नहीं आता, वह हमें या तो शत्रु प्रतीत होता है या उपेक्षणीय। यहीं से शुरू होता है झगड़ों का सिलसिला- घर में, समाज में, और अंतत: अंतरात्मा में।

अपनी प्रतिक्रियाओं से मुक्त होकर पूर्ण विवेक के साथ लेता है निर्णय

भारतीय योग परंपरा ने इस भीतर की पराधीनता को बहुत गहराई से देखा है। योग का उद्देश्य केवल शरीर की चपलता या सांस की लय नहीं है, बल्कि चेतना की वह ऊर्ध्व यात्रा है, जो व्यक्ति को अपने भीतर की ग्रंथियों से मुक्त करती है। योग कहता है कि जब तक हम अपनी चेतना के तल पर जागरूक नहीं होंगे, तब तक हम सच्ची स्वतंत्रता का अनुभव नहीं कर सकते, क्योंकि जो व्यक्ति भीतरी पराधीनता से मुक्त नहीं है, वह बाहरी आजादी का मूल्य ही नहीं समझ सकता। उसे स्वतंत्रता केवल एक व्यक्तिगत अधिकार लगती है, जबकि सच्चे अर्थों में स्वतंत्रता वह अवस्था है, जहां व्यक्ति अपनी प्रतिक्रियाओं से मुक्त होकर पूर्ण विवेक के साथ निर्णय लेता है। जहां वह परिस्थिति को उसके संपूर्ण परिप्रेक्ष्य में देख सकता है, न कि केवल अपनी रुचि और अरुचि की झील में डूबते-उतराते हुए।

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पसंद और नापसंद की होड़ से बाहर निकलने के लिए हमें यह स्वीकार करना होगा कि हम अब तक अपने ही बनाए हुए मानसिक जाल में उलझे रहे हैं। एक सजग और संवेदनशील व्यक्ति ही यह देख सकता है कि किसी विशेष परिस्थिति में क्या आवश्यक है, क्या उचित है और क्या अनावश्यक। वह अपनी पसंद को तब भी स्थगित कर सकता है, जब परिस्थिति किसी अन्य दिशा की मांग कर रही हो। जागरूकता वह दृष्टि देती है, जिससे हम न केवल वस्तुओं को, बल्कि अपने मन की गति को भी देख सकते हैं। यह वह दर्पण है, जिसमें हमारी प्रतिक्रियाओं की छाया स्पष्ट होती है। यह वह ध्वनि है, जो हमारे अंतर से कहती है, ‘जो पसंद है, वह जरूरी नहीं कि सही हो; और जो नापसंद है, वह अनावश्यक नहीं।’

पसंद-नापसंद से मुक्त होकर जीना आसान नहीं

जीवन की गति जब मात्र इच्छाओं की पूर्ति और नापसंद से बचाव में बीत जाती है, तब उसका सौंदर्य लुप्त हो जाता है। मगर जब हम अपनी चेतना को इतना विकसित कर लेते हैं कि हम परिस्थिति को उसके व्यापक स्वरूप में देख सकें, तब जीवन एक कला बन जाता है- विवेक, संतुलन, करुणा और न्याय की।

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पसंद-नापसंद से मुक्त होकर जीना आसान नहीं, पर असंभव भी नहीं। यह एक साधना है, अपने भीतर झांकने की, अपनी प्रतिक्रियाओं की दिशा को देखने की, और समय-समय पर अपने ही मन को चुनौती देने की। यह वही मार्ग है, जहां मानवता को अपना असली अर्थ मिला है। इसलिए आवश्यकता इस बात की नहीं है कि हम अपने मन की करें, बल्कि इस बात की है कि हमारा मन इतना परिष्कृत हो, इतना साक्षीभाव से भरा हो कि वह स्वयं यह समझ सके कि किस परिस्थिति में क्या करना उचित है। तभी हम सच्चे अर्थों में स्वतंत्र होंगे। वरना हमारी पसंद ही हमारी पराधीनता का दूसरा नाम बन जाती है। स्वतंत्र वह नहीं जो अपनी पसंद का हो, स्वतंत्र वह है जो अपने भीतर से मुक्त हो।