डायरी मात्र कागज के पन्नों का संग्रह नहीं है। यह आत्मा का एकांतवास है, जहां मन की अव्यक्त पीड़ा, अनकहे सपने और जीवन के क्षणिक उजाले बिना किसी संकोच के उतर आते थे। वह दौर अब अतीत की धुंध में खो रहा है, जब रात्रि की निस्तब्धता में किसी कलम की सरसराहट उस हृदय की धड़कन बन जाती थी, जो दिनभर के शोरगुल में गुम हो गई थी। डायरी लिखना एक अनुष्ठान था, स्वयं से संवाद स्थापित करने की एक पवित्र क्रिया। यह एक ऐसा दर्पण था, जिसमें व्यक्ति अपनी वास्तविक छवि देखता था, जिसमें कोई मुखौटा नहीं होता था। सोशल मीडिया के इस युग में, जहां सब कुछ सार्वजनिक है, डायरी की वह अंतरंगता, वह व्यक्तिगत ‘निजता’ एक दुर्लभ वस्तु बन गई है। हम अपनी भावनाओं को ‘लाइक’ और ‘कमेंट’ की कसौटी पर तौलने लगे हैं, जिसके कारण डायरी का वह कोना, जहां निस्वार्थ भाव से जीवन स्वयं को लिखता था, आज धूल फांक रहा है।
डायरी विधा का लुप्त होना केवल एक साहित्यिक हानि नहीं है, बल्कि यह मानव मन के गहन आत्म निरीक्षण की प्रक्रिया पर लगा एक विराम चिह्न है। डायरी हमें सिखाती थी कि कैसे हम अपनी असफलताओं को स्वीकार करें, गलतियों से सीखें और छोटी-छोटी सफलताओं का जश्न मनाएं। डिजिटल स्क्रीन की चकाचौंध में हम अपने अंदर झांकने का अभ्यास खो रहे हैं। डायरी के पन्नों में समय ठहर जाता था, वह पल अमर हो जाता था। वह कलम की स्याही केवल शब्द नहीं लिखती थी, बल्कि वह आंसुओं और मुस्कानों का लेखा-जोखा होती थी। महान लेखकों, विचारकों और यहां तक कि आम लोगों की डायरियां इतिहास के सबसे प्रामाणिक दस्तावेज हैं।
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ऐन फ्रैंक की डायरी इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, जिसने युद्ध की विभीषिका में भी मानवता की लौ को जलता रखा। क्या आज सोशल मीडिया पर लगातार ‘ताजा’ या अद्यतन रहना उस गहराई और उस मार्मिकता को छू सकते हैं? नहीं। बल्कि इससे होता यह है कि सोशल मीडिया हमारे सोचने-समझने के दायरे को सीमित कर देता है और हमारी संवेदनाएं भी उसे से प्रभावित और संचालित होने लगती हैं। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि अगर सोचने-समझने की प्रक्रिया सीमित या स्थगित होती है, तो उसके बाद वास्तव में हमारा बौद्धिक विकास भी रुक जाता है। फिर हमारे सामने जिस भी बात, प्रचार, धारणा को रखा जाता है, हम उसे उसी नजरिए से देखने लगते हैं, जिसकी हमसे मांग होती है। प्रकारांतर से देखा जाए, तो वहां हमारी सोच पूरी तरह स्वतंत्र नहीं होती।
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जीवन में जब कोई बड़ा तूफान आता था, तो डायरी के पन्ने ही थे, जो ‘सांत्वना’ का एक अदृश्य हाथ थामते थे। यह विधा हमें ‘अल्प विराम’ लेने का महत्त्व समझाती थी, जब जीवन की दौड़ में गति इतनी तीव्र हो जाती थी कि हम अपनी सांसें लेना भूल जाते थे। सोशल मीडिया पर सब कुछ तत्काल और क्षणिक है, जबकि डायरी धीर और स्थायी थी। वह हमें धैर्य का पाठ पढ़ाती थी। इस तकनीकी युग में, हम कुछ टाइप करने की गति में तो आगे बढ़ गए, पर हस्तलेखन यानी हाथ से लिखने की आत्मा को पीछे छोड़ दिया।
हर लिखावट में एक अनूठी ऊर्जा होती थी, एक व्यक्तित्व की छाप, जो आज के डिजिटल अक्षरों में गुम हो गई है। आधुनिक तकनीक ने डायरी के स्वरूप को बदलने का प्रयास किया है, ‘ब्लाग लिखना’ या ‘डिजिटल पत्रकारिता’ के रूप में, पर वह हाथ से लिखने का सुख, भौतिक जुड़ाव कहां! जब हम कलम को कागज पर रगड़ते थे, तब विचारों को एक मूर्त रूप मिलता था। वह स्याही की गंध, पन्नों का पलटना, सालों बाद उन पन्नों को छूकर अतीत को फिर से महसूस करना- यह एक ‘जादुई’ अनुभव था। हमारी डायरियां भविष्य के लिए पुरातत्त्व थीं, जो हमारे व्यक्तिगत इतिहास को सहेजती थीं।
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डायरी लेखन वास्तव में एक चिंतनशील प्रक्रिया थी, जो हमारी मानसिक शांति के लिए एक ‘थेरेपी’ या इलाज का काम करती थी। यह हमें अपने भीतर के उलझे हुए धागों को सुलझाने का अवसर देती थी। किसी प्रियजन के खोने का दुख हो, या करियर में आई कोई बाधा, डायरी वह अश्रुपूर्ण कंधा थी, जिस पर हम बिना किसी डर के अपना सिर रख सकते थे। आज के दौर में, जब मानसिक स्वास्थ्य एक बड़ी चिंता बन गया है, डायरी की यह उपचार शक्ति अत्यंत महत्त्वपूर्ण थी। यह एक प्रकार का ‘आत्म-निकासी’ थी। सोशल मीडिया पर जब हम अपनी ‘सफलता’ का प्रदर्शन करते हैं, तब डायरी हमें हमारी मानवता याद दिलाती थी। डायरी का खोना, हमारे सत्य से हमारा विमुख होना है। अहं को पोषित करने वाली इस दुनिया में, डायरी ही थी, जो हमें ‘मैं कौन हूं’, इसका ईमानदारी से जवाब देती थी।
अपने जीवन में कई ऐसे मौके आते थे, जब हम दुनिया से खुद को छिपाना चाहते थे, लेकिन खुद से नहीं। इसी खुद को अपने सामने खड़ा करके उसे सब कुछ बताने, उससे सवाल पूछने, कठघरे में खड़ा करने या किसी खास मामले में खुद को शाबासी देने का सहारा बनती थी हमारी डायरी। डायरी तो एक ‘गुरु’ थी, जो हमें ‘ध्यान’ की कला सिखाती थी, विचारों को स्थिर करने की युक्ति बताती थी। दुनिया की आपाधापी में अपने जीवन की जरूरतों को पूरा करने के क्रम में हम चाहे जितनी अस्थिरता से गुजरें, लेकिन ठीक उसी वक्त हम स्थिर रहने के भूखे भी होते थे। डायरी हमारे मन को वही स्थिरता देती थी।
