धरती पर जीवन के पदार्पण होते ही वह कई चरणों में अपनी यात्रा की शुरुआत कर देता है। शैशवास्था, बाल्यावस्था, तरुणावस्था, युवावस्था, प्रौढ़ावस्था और अंत में वृद्धावस्था के दौर में मानव मन कई अनुभूतियों और कार्यों से अपने को संलिप्त रखने को विवश है। बचपन के बाद तरुण काल में उसे विद्यालय के प्रांगण आमंत्रित कर लिया जाता है। जीवन निर्माण के उद्देश्य में व्यक्ति आगे की कड़ियों से तादात्म्य स्थापित करते हुए अध्ययन, व्यवसाय, खेती-गृहस्थी, नौकरी और अन्य प्रकल्पों की पूर्णता के बाद एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव पर आकर ठहर जाता है, जब वह अपने सभी बुनियादी दायित्वों से भी आजाद हो जाता है। इस क्रम में पुत्री-पुत्र की शादी के बाद नवदंपति के लिए नूतन घर गृहस्थी के नए आयाम प्रकट होते हैं। जीवन के उत्तरार्ध काल में माता-पिता जब अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त होते हैं, तब उनके पास अपनी एक सक्रिय दिनचर्या नहीं होती।

इस दौर में परिवार के सदस्य शिशु के आगमन की बाट जोहते हैं और जब यह घड़ी आ जाती है तो बच्चे के माता-पिता के साथ उसके दादा-दादी, नाना-नानी के जीवन में आनंद की लहरें उफान पर होती हैं। इस स्थिति में बुजुर्गों की दुनिया पूरी तरह परिवर्तित होते दिखती है। मासूम की मुस्कान और उसे अपनी गोद में लेकर स्नेह सिंचित करने का पल बुजुर्गों को नैसर्गिक सुख की अनुभूति से लबालब भर देता है। धीरे-धीरे शिशु अपनी उम्र के उस मोड़ पर आ जाता है, जब वह अपने पैरों पर खड़ा होना, ठुमकते हुए चहलकदमी करना कुछ बुदबुदाना और घर के सभी सदस्यों को पहचानने की अल्प समझ से जुड़ता है। माता-पिता के साथ बिताए पलों के बाद बच्चे का शेष समय उसके नानी-दादी, दादा-नाना के साथ अधिक बीतता हैं। ये लोग भी बड़ी आतुरता से प्रतीक्षा करते हैं कि कब उन्हें नन्हे बच्चे को अपने पास रखने का मौका मिले।

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कई बाल मनोवैज्ञानिकों के अनुभव का सारांश है कि बुजुर्ग जब अपने पोते-पोती, नाती-नतिनी की बाल्यावस्था की गतिविधियों से बंध जाते हैं, तो उनकी उम्र बढ़ने की गति कम होने लगती है। वे आत्मिक संतुष्टि और सुख के दृश्यों को जब नित्य जीते हैं, तो उनकी प्रसन्नता के सूचकांक में अभूतपूर्व वृद्धि दर्ज होती है। इस अवस्था में वे अपने स्वास्थ्य की छोटी-मोटी समस्याओं को भूल जाते हैं, क्योंकि उनका चरम लक्ष्य बच्चों के साथ समय बिताना तय है। यह घड़ी उन्हें अकेलेपन से राहत दिलाते हुए खुश रखती है। बच्चों के साथ बुजुर्गों के भावनात्मक लगाव के कुछ अन्य सकारात्मक लाभ भी मिलते हैं, जैसे जीवन के अन्य सांसारिक कार्यों से मुक्त होकर वे स्वच्छंद वातावरण में बिल्कुल स्वतंत्र महसूस करते हैं।

इससे उनकी प्रसन्नता और उत्साह में वृद्धि करने वाले हार्मोन का प्रवाह भी बना रहता है। बढ़ती उम्र का तकाजा है कि बुजुर्गों के शरीर में कुछ न कुछ व्याधियां प्रवेश कर जाती हैं, जिसमें प्रमुख हैं- मधुमेह, रक्तचाप, कैल्शियम की कमी। इस कारण से वे अपने रोग के निदान के लिए अधिक चिंतित हो जाते हैं, लेकिन जब उनके पोते-पोती, नाती-नतिनी अपने कदमों में गति भरने लगते हैं तो उन्हें सहारे की जरूरत होती है, जिसका मूल आधार बुजुर्ग बनते हैं।

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बच्चों के साथ अधिक समय बिताने के फलस्वरूप बुजुर्गों का अधिक चलना-फिरना हो जाता है। घर के आंगन या आसपास किसी उद्यान में बच्चों को ले जाकर उसके साथ खेलना, उसके पीछे अपनी गति में दौड़ने जैसी अन्य गतिविधियां उन्हें सक्रिय रखती हैं। शाम के समय बच्चों को कहानियां सुनाने और कभी-कभी अपने हाथों से उन्हें खाना खिलाने से बच्चे बुजुर्गों की ओर आकर्षित रहते है। कभी गांव में बुजुर्ग बच्चों को अपनी पीठ और कंधों पर बिठाकर कुछ देर घुमा दिया करते थे, जबकि दोनों घुटनों पर उन्हें सवार कर झुला झुलाने (घुघा-मामा) से बच्चों का मधुर मनोरंजन हुआ करता था। इस प्रक्रिया से बुजुर्गों को लाभप्रद व्यायाम हो जाता था।

बच्चों की देखभाल में सम्मिलित लोग अन्य बुजुर्गों की तुलना में कम सुस्त होते हैं। यह सक्रियता बुजुर्गों के शारीरिक वजन को नियंत्रित करते हुए उनके स्वास्थ्य को ठीक रखते हैं। अकेलेपन के शिकार अधिकतर बुजुर्ग अक्सर गैरजरूरी विषयों की चिंतन की गंभीरता के चलते मानसिक अवसाद के शिकार हो जाते हैं। बच्चों के साथ उनकी रोचक सहभागिता इस रोग से रक्षा करती है। आज की भौतिक भागदौड़ में अधिकांश बुजुर्ग अनिद्रा से पीड़ित होते हैं, लेकिन जब वे बच्चों की किलकारियां सुनते हैं, उसकी मधुर मुस्कान देखते हैं, उनके साथ खेल-खेल में अपना अधिक समय व्यतीत करते हैं, तो उन्हें भरपूर नींद भी आती है और वे रोज सुबह तरोताजा महसूस करते हैं।

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एकल परिवार की बहुलता के कारण बहुत से घरों में बुजुर्ग अकेले भी हैं, जिन्हें समय बिताना कठिन हो गया है। बुजुर्ग दंपति तो कुछ आपस में बोल-बतिया कर समय काट भी लेते हैं, लेकिन जिस घर-आंगन में बुजुर्ग सिर्फ अकेले हो गए हैं, उनके पुत्र-पुत्री साल में एक दो बार आते हैं और वे अपने माता-पिता को कई कारणों से साथ रख नहीं पाते। ऐसे बुजुर्गों के जीवन को एकाकीपन और निष्क्रियता घेर लेती है।

उनकी मानसिक व्यथा के घनत्व में अधिक वृद्धि तब दिखती है जब पर्व-त्योहार में उनकी संतान दो-चार दिन के लिए भी घर नहीं आ पाते। आज की युवा पीढ़ी को इस संदर्भ में विशेष चिंतन-मनन करना चाहिए, क्योंकि वे भविष्य में वरिष्ठ नागरिक की श्रेणी में जब आएंगे, तब तक पूर्वजों द्वारा संकल्पित ताने-बाने बिखरने का संकट खड़ा हो सकता है। इसलिए समय रहते अकेलेपन में जी रहे बुजुर्गों के कदमों में गति कायम रखने की हर कोशिश की जाए। शायद इस चेष्टा का फल यह हो कि हमारे बुजुर्गों की जिजीविषा जीवंत हो उठे।